भगवान एक ईर्ष्यालु प्रेमी हैं, उन्हें वह ही भक्त प्रिय है जो उन्हें १००% (शत-प्रतिशत) प्रेम करता है। यदि आपके हृदय में भगवान के प्रति ९९.९९% भी प्रेम है तो भगवान की दृष्टि में आप शून्य हैं। उन्हें १००% प्रेम ही चाहिए। उससे कम कुछ भी नहीं।
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यह मैं अपने अनुभवों से कह रहा हूँ। जो एक बार जा कर फिर कभी बापस नहीं आती, वह युवावस्था भी देखी है; और जो आ कर कभी बापस नहीं जाती, वह वृद्धावस्था भी देख रहा हूँ। यह वृद्धावस्था बहुत खराब चीज है, लेकिन जीवन का सत्य वृद्धावस्था में ही समझ में आता है। मेरे अनेक ऐसे मित्र थे, जो किसी जमाने में बहुत अच्छे भक्त थे। लेकिन उनका पतन हो गया, क्योंकि प्रतिष्ठा, अहंकार, और मान-सम्मान की भूख से वे मुक्त नहीं हो पाये। वे जीते जी ही मनुष्य से राक्षस हो गए। इसी लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है --
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
"असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
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उपरोक्त पांचों श्लोक दो दिन पहिले भी मैंने एक लेख में उद्धृत किये थे। मुझे कुछ आता-जाता नहीं है। लेकिन करुणावश भगवान ने अपनी कृपा-दृष्टि कर रखी है। मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी अनेक भूलों को करुणावश उन्होंने क्षमा किया है, और मुझ अकिंचन के हृदय में अपना परमप्रेम जागृत किया है। जिस भी आध्यामिक विषय के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा हुई है, उसी विषय के सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ महात्माओं से भगवान ने मेरा सत्संग कराया है। यह भगवान की ही महिमा है, मुझ अकिंचन की कुछ भी नहीं।
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भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि वे मुझे अपनी अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति पूर्ण रूप से प्रदान करें। अन्य किसी कामना या प्रार्थना का जन्म ही न हो। भगवान के सिवाय मेरा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार कहीं पर भी न जाये।
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जिज्ञासुओं को मैं यही कहना चाहूँगा कि वे अपने हृदय का पूर्ण प्रेम भगवान को दें। भगवान सब गुरुओं के गुरु हैं। उनकी कृपा किसी को भी सर्वज्ञ बना सकती है। जब भी समय मिले एकांत में कंबल के आसन पर बैठिए। ठुड्डी भूमि के समानान्तर रहे, कमर सीधी, और मुख पूर्व दिशा में। शांत होकर भ्रूमध्य में भगवान का खूब ध्यान कीजिये। अपने प्रिय उनके किसी बीजमंत्र या नाम का खूब मानसिक जप करें। अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम उन्हें अर्पित करें। आगे का काम भगवान का है, वे निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेंगे। एक बात और कहना चाहता हूँ -- रात्रि को सोने से पूर्व उनका भजन, कीर्तन और ध्यान कर के ही सोएँ, और प्रातःकाल उठते ही फिर उनका भजन, कीर्तन और ध्यान करें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। जब भी समय मिले, उनका भजन, कीर्तन, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करें। उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिन्दु और कर्ता बनायें और स्वयं एक निमित्त मात्र होकर रहें।
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भविष्य में अब और कुछ भी लिखने का मन नहीं है। जो कुछ भी लिखूंगा वह आपके हृदय की पुस्तिका में ही लिखूंगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! श्रीरामचन्द्र चरणो शरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०२४