Tuesday, 20 May 2025

जो जैसे वातावरण में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है ---

 सिर्फ पुस्तकों से पढ़कर ही कोई वायुयान का पायलट, या जलयान का कप्तान नहीं बन सकता। तैरने के बारे में पढ़ने मात्र से आज तक कोई तैरना नहीं सीख पाया है। इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लेकर कोई डॉक्टर नहीं बन सकता। जो जैसे वातावरण में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है।

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संसार के राग-द्वेष, लोभ-मोह, छल-कपट और विषय-वासना के वातावरण में रहते हुए, सिर्फ पुस्तकों को पढ़कर, या संकल्प मात्र से ही कोई भी व्यक्ति आध्यात्म में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य जो कुछ भी बनना चाहता है, उसे वैसा ही उचित वातावरण, मार्ग-दर्शन और प्रशिक्षण मिलना चाहिए।
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हम ईश्वर को पाना चाहते हैं तो विरक्त भक्तों, महात्माओं और योगियों का सत्संग करना होगा, सिद्ध ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय महात्माओं से मार्ग-दर्शन लेना होगा, और कठोर उपासना/साधना/तपस्या भी करनी होगी। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए -- भक्ति, वैराग्य, उचित वातावरण, उचित प्रशिक्षण और अध्यवसाय चाहिए। सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों से हम कहीं भी नहीं पहुँच सकते।
ॐ तत्सत् ||
२१ मई २०२१

परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है ---

 परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है। वे ही एकमात्र सत्य हैं, वे ही लक्ष्य हैं, वे ही मार्ग हैं, वे ही सिद्धान्त हैं, और सब कुछ वे ही हैं। उनसे परे इधर-उधर देखना भटकाव है। परमात्मा के लिए हमें पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा।

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कालचक्र घूम चुका है। बुरे दिन व्यतीत हो रहे हैं। राष्ट्रद्रोही आसुरी शक्तियों का नाश निश्चित है। भगवान उनके लिए अब काल हैं --
"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः|
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः||११:३२||"
"तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌||११:३३||" (गीता)
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ॐ तत्सत् !!
२१ मई २०२४

"भगवान नहीं मिलने" के "स्मृति-दोष" को दूर करने के लिए ही सारी आध्यात्मिक साधनाएँ हैं। भगवान तो मिले ही हुए हैं ---

 "भगवान नहीं मिलने" के "स्मृति-दोष" को दूर करने के लिए ही सारी आध्यात्मिक साधनाएँ हैं। भगवान तो मिले ही हुए हैं ---

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भगवान से कर्म भक्ति और ज्ञान के सारे उपदेश प्राप्त करने के पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता के "मोक्ष-सन्यास योग" नामक १८वें अध्याय के ७३वें श्लोक में भगवान को अर्जुन कहते हैं --
"नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥१८:७३॥"
अर्थात् - अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गयी है। अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा॥
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इस श्लोक के भावार्थ को भगवान की कृपा से ही समझा जा सकता है। अर्जुन ने भगवान को अच्युत कहा है, क्योंकि भगवान कभी च्युत नहीं होते। अर्जुन ने कहा कि हे अच्युत, मेरा अज्ञानजन्य मोह जो कि समस्त संसार रूप अनर्थ का कारण था, और समुद्र की भाँति दुस्तर था, नष्ट हो गया है। हे अच्युत, आप की कृपा के आश्रित होकर मैंने आप की कृपा से आत्मविषयक ऐसी स्मृति भी प्राप्त कर ली है कि जिस के प्राप्त होने से समस्त संशय विच्छिन्न हो जाते हैं।
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छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार आत्मा को न जानने वाला शोक करता है। आत्मज्ञान होने पर अज्ञान की समस्त ग्रन्थियों का विच्छेद हो जाता है। हृदय ग्रन्थि विच्छिन्न हो जाने पर मोह और शोक नहीं रहते। भगवान की कृपा से अर्जुन कृतकृत्य और कृतार्थ हो गये हैं। भगवान की आज्ञा के पालन के सिवाय उनका कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा है।
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भगवान् श्रीकृष्ण इससे पूर्व कह चुके हैं कि वे चैतन्य रूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द का अर्थ शारीरिक हृदय नहीं है। करुणा, प्रेम, क्षमा, उदारता जैसे अनेक गुणों से सम्पन्न मन को ही आध्यात्म में हृदय कहते हैं। हमारा शांत, प्रसन्न, सजग और जागरूक मन ही हृदय कहलाता है, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है।
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हमारी सब घनीभूत पीड़ाओं का कारण हमारे हृदय में परमात्मा का अभाव है। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती ही आनंद है। हम निरंतर उनका अनुस्मरण करेंगे तो जैसे अर्जुन का मोह नष्ट हुआ, और दिव्य स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हुई, वह हमें भी प्राप्त होगी। यह विषय अनंत है जो कभी समाप्त नहीं हो सकता, इसलिए इसे यहीं समाप्त कर रहा हूँ। हमारे चित्त में सदा परमात्मा का निवास हो।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मई २०२५