यह मेरा सौभाग्य था कि किशोरावस्था से ही मुझे पढ़ने के लिए प्रचूर मात्रा में बहुत अच्छा साहित्य मिला जिनमें महापुरुषों की जीवनियाँ, उनके लेख, और तत्कालीन हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ थीं| पढ़ने का शौक भी बहुत अधिक था जिसे पूरा करने केलिए बहुत अच्छा वातावरण मिला| उस जमाने में बहुत अच्छी पत्रिकाओं का प्रकाशन हिंदी भाषा में होता था जैसे ... "साप्ताहिक हिन्दुस्तान", "धर्मयुग", "कादम्बिनी", "नवनीत" आदि| बाल साहित्य भी खूब अच्छा मिलता था और बालकों के लिए भी अनेक ज्ञानवर्धक व रोचक पत्रिकाएँ छपती थीं, जैसे "बालभारती", "चंदामामा" आदि, जिनमें से कइयों के तो अब नाम भी याद नहीं हैं| पूरी महाभारत और रामायण तो घर पर ही किशोरावस्था में पढ़ ली थीं| बहुत अच्छे पुस्तकालय थे और लोगों को पढने का शौक भी बहुत था| अब तो लगता है कि वह ज़माना ही दूसरा था| आजकल के विद्यार्थियों पर तो ट्यूशन और कोचिंग का इतना अधिक भार है कि वे पाठ्यक्रम से बाहर का कुछ पढ़ने की सोच ही नहीं सकते| पहले हिंदी के समाचार पत्रों में भी बड़े अच्छे अच्छे ज्ञानवर्धक लेख आते थे जो अब नहीं आते|
Tuesday, 25 March 2025
सत्साहित्य पढ़ने से भक्ति जागृत होती है ...
हम धर्मनिरपेक्षता से कैसे मुक्त हों ?
हम धर्मशिक्षा के अभाव के कारण धर्मावलम्बी न होकर धर्मनिरपेक्ष हैं| धर्मनिरपेक्षता से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि हम अपने धर्मग्रंथों का स्वाध्याय तो करें ही, साथ साथ तुलनात्मक रूप से अन्य मतों के ग्रंथों का भी गहन अध्ययन करें और समझें कि उनमें क्या लिखा है| फिर उनकी निष्पक्ष तुलना करें| अन्य कोई उपाय नहीं है| हर हिन्दू को चाहिए कि वह गीता को तो समझे ही, साथ साथ न्यू टेस्टामेंट के गोस्पेल और कुरान का भी गहन तुलनात्मक अध्ययन करे| बिना किसी विषय को जाने और समझे, किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए| फिर "सर्वधर्म समभाव" और "धर्मनिरपेक्षता" का भूत उतर जाएगा|
एक जल की बूंद महासागर में मिल कर स्वयं महासागर बन जाती है ---
मेरी कोई भी कामना, आकांक्षा, संकल्प या प्रतिज्ञा -- अधर्म और व्यभिचार है, क्योंकि मैं निमित्त मात्र हूँ, कर्ता नहीं ---
मेरी कोई भी कामना, आकांक्षा, संकल्प या प्रतिज्ञा -- अधर्म और व्यभिचार है, क्योंकि मैं निमित्त मात्र हूँ, कर्ता नहीं| भगवान की सर्वव्यापकता ही हमारा आत्मस्वरूप है| हमारे निज जीवन में वे निरंतर व्यक्त हों| एक जल की बूंद महासागर में मिल कर स्वयं महासागर बन जाती है, वैसे ही एक जीवात्मा, परमात्मा में समर्पित होकर स्वयं परमात्मा बन जाती है| यह संसार परमात्मा का है, हमारा नहीं| उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता नहीं है, अपनी सृष्टि को चलाने में वे सक्षम हैं| अपनी सृष्टि के संचालन और भरण-पोषण के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, हम नहीं| हमारा कार्य उनके प्रति भक्ति और समर्पण है| जब हम निमित्त मात्र यानि उनके एक उपकरण मात्र हैं तब हमारा कर्ताभाव, हमारे संकल्प-विकल्प, आदि सब हमारा अहंकार है|
परोपकार की भावना से जितना हम दूसरों को देते हैं, उससे कई गुणा अधिक हमें प्रकृति प्रदान करती है|
परोपकार की भावना से जितना हम दूसरों को देते हैं, उससे कई गुणा अधिक हमें प्रकृति प्रदान करती है| समष्टि के कल्याण के लिए ही हम परमात्मा द्वारा परमात्मा के ही ध्यान का निमित्त बनते हैं| यह हमारा "निष्काम कर्मयोग" भी है, और "आत्मोत्थान" का मूल भी| यह हमें क्षुद्र से महान बनाता है|
सिर्फ तीन बातें कहने के लिए ही यहाँ उपस्थित हूँ ---
(१) पूरी सृष्टि, यानि सम्पूर्ण प्रकृति ही भगवान का नाम जप रही है। हम निमित्त मात्र होकर उसे सिर्फ सुन ही सकते हैं। हम न तो कर्ता हैं, और न श्रोता। कर्ताभाव एक अहंकार मात्र है। भगवान स्वयं ही अपना नाम जप रहे हैं, और स्वयं ही उसे सुन रहे हैं। दृष्टा भी वे हैं, और दृष्टि व दृश्य भी वे ही हैं। अंततः भोक्ता भी वे ही हैं।
आध्यात्मिक साधना के मार्ग में मेरी समझ से सबसे बड़ी कमजोरी --- हमारे में साहस का अभाव है, अन्य कोई समस्या नहीं है
आध्यात्मिक साधना के मार्ग में मेरी समझ से सबसे बड़ी कमजोरी --- हमारे में साहस का अभाव है, अन्य कोई समस्या नहीं है। साहस के अभाव में हम कोई निर्णय नहीं ले पाते। निर्भीक बनने के लिए हमें भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिए। स्वयं निमित्त मात्र होकर उन्हें जीवन का कर्ता बनायें। ॐ ॐ ॐ !!