Saturday, 3 May 2025

परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए विरक्त होना आवश्यक है ?

 परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए विरक्त होना आवश्यक है ?

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एक समय था जब यह प्रश्न मेरे मन को बहुत अधिक उद्वेलित करता था| गत वर्ष इसी विषय पर मैंने एक बहुत बड़ा लेख लिखा था जिस पर खूब प्रतिक्रियाएँ भी आई थीं| अब यह विषय महत्वहीन हो गया है|
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सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा कि >>>>> मनुष्य की संकल्प शक्ति से अधिक शक्तिशाली तो उसके चारों ओर के वातावरण का प्रभाव होता है| व्यक्ति को आजीविका के लिए अनेक प्रकार के व्यक्तियों से मिलना पड़ता है, देश-विदेश में पता नहीं कहाँ कहाँ भटकना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उसके घर-परिवार के सदस्यों के भी नकारात्मक विचारों का प्रभाव उस पर पड़ता है| समाज का वातावरण आजकल बहुत अधिक विषाक्त है| ऐसे वातावरण का प्रभाव व्यक्ति को परमात्मा से दूर ले जाता है|
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अतः व्यक्ति को प्रयासपूर्वक कुसंग का त्याग और सत्संग करना चाहिए| किसी व्यक्ति को जब परमात्मा की एक झलक भी मिले तभी से निःसंग विरक्त होकर एकांत में भगवान की साधना अवश्य करनी चाहिए| घर, परिवार और समाज में रहकर यह असम्भव है| यह मैं अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ| किसी को अपने घर-परिवार में यदि सकारात्मक और सहायक वातावरण मिले तो दूसरी बात है|
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कोई दो लाख में से एक व्यक्ति के ह्रदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा होती है| यह अनेकानेक जन्मों के संचित कर्मों का फल होता है| अच्छे संतों से मिलना भी कई जन्मों के अच्छे कर्मों का फल होता है| आध्यात्म में भी सफलता मेरे विचार से प्रारब्ध से ही होती है|
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अतः इस बारे में सोचना ही बंद कर देना चाहिए| जितना साधन-भजन हो सकता है उतना कीजिये और बाकी परमात्मा पर छोड़ दीजिये|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
४ मई, २०१७

जीवन में एकमात्र आकर्षण सच्चिदानंद का है ---

जीवन में एकमात्र आकर्षण सिर्फ सच्चिदानंद का है। हमें परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी के साथ की आवश्यकता नहीं है। अपने हृदय के सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम प्रेम का उपहार परमात्मा को दें। सारी सृष्टि सच्चिदानंदमय है। सारी सृष्टि (सारी आकाशगंगाएँ -- अपने नक्षत्रों, ग्रहों, उपग्रहों के साथ, समस्त जड़-चेतन, सारे प्राणी, और यह अनंतता) भगवान का ध्यान कर रही है। प्रणव की ध्वनि चारों ओर गूंज रही है। चारों ओर आनंद ही आनंद है। सच्चिदानंद भगवान विष्णु - इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हो रहे हैं। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश, और आनंद ही आनंद है। कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं है। मेरे प्रभु ही यह "मैं" बन गए हैं।


अपनी इष्ट देवी/देवता या सद्गुरु के चरण-कमलों का सदा ध्यान करें। उनके चरण-कमलों का ध्यान ज्योतिर्मय-ब्रह्म के रूप में तब तक कीजिये जब तक उन की आनंदमय उपस्थिती का प्रत्यक्ष बोध न हो। फिर उनको अपने माध्यम से अपने अन्य सब आवश्यक कार्य करने दीजिये। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें। जीवन के हर क्षण स्वयं के माध्यम से परमात्मा को व्यक्त करें। कौन क्या कहता है, इसका कोई महत्व नहीं है। हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं? -- महत्व सिर्फ इसी का है।


मेरे साथ कुछ देर के लिए भी वे ही रह पाते हैं, जिन के हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा हुआ है, और जो इस जीवन में परमात्मा का साक्षात्कार चाहते हैं। अन्य सब भाग जाते हैं। मेरा अनुभव तो यही है कि जिसके साथ, मैं परमात्मा की चर्चा करता हूँ, वह फिर बापस लौट कर नहीं आता। जिस किसी के साथ वेदान्त की चर्चा करता हूँ, वह तो उसी समय उठ कर चल देता है।

वर्तमान युग, और हमारा समाज ही ऐसा है कि परमात्मा एक उपयोगिता की वस्तु बन कर रह गए हैं। अगर उनके माध्यम से रुपये-पैसे आदि की प्राप्ति होती है, या कष्ट दूर होते हैं तब तक तो वे ठीक हैं, अन्यथा उनका कोई उपयोग नहीं है। उनकी भक्ति को लोग Time pass या समय की बर्बादी बताते हैं। चारो ओर बहुत अधिक तमोगुण व्याप्त है। थोड़ा बहुत रजोगुण भी है। सतोगुण का तो अभाव है। कुछ भी नहीं किया जा सकता। भगवान से प्रार्थना ही कर सकते हैं कि वे हमारी निरंतर रक्षा करें।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च॥
योगो योग-विदां नेता प्रधान-पुरुषेश्वरः।
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ ॐ ॐ !!
. कृपा शंकर ४ मई २०२२