Friday, 11 April 2025

जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है .....

जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है, यह हमें सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म ही सिखाता है| सनातन हिन्दू धर्म कोई संगठित पंथ नहीं है, यह एक जीवन पद्धति है| कोई भी संगठित पंथ हमें परमात्मा से साक्षात्कार नहीं करा सकता| निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति करना हमें सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म ही सिखाता है| यह मेरे निजी अनुभवों का सार भी है| देश-विदेशों में मैं खूब घूमा हूँ, अनेक तरह के लोगों व विभिन्न धर्मगुरुओं से भी मिला हूँ, सभी प्रमुख पंथों का अध्ययन भी किया है, और जीवन में खूब अनुभव लिए हैं| अध्ययन भी खूब है और साधना मार्ग पर भी बहुत सारे निजी अनुभव हैं जो मेरी अमूल्य निधि हैं| अपने जीवन का यह सार बता रहा हूँ कि जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य निज जीवन में आत्म-साक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति है| हमारा लक्ष्य कोई स्वर्ग में जाना नहीं, बल्कि परमात्मा को पूर्ण समर्पण और परमात्मा के साथ एकाकार होना है|
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सभी से मेरा आग्रह है कि संगठित पंथों और मतों से ऊपर उठाकर नित्य परमात्मा का कम से एक घंटे तक ध्यान करो| कोई ऊपरी सीमा नहीं है| भगवान से प्रेम करो, जब प्रेम में प्रगाढ़ता आयेगी तब परमात्मा स्वयं आपका मार्ग-दर्शन करेंगे| सनातन हिन्दू धर्म हमें यही सिखाता है| ध्यान साधना का आपका अनुभव ही सबसे बड़ा प्रमाण होगा|
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जो भी मत आपको भयभीत होना यानि डरना सिखाता है, या आपको पापी बताता है वह गलत है| आप परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, उनके अंश हैं| उठो, जागो और अपने लक्ष्य यानि परमात्मा को उपलब्ध हों| शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१८

कब तक हम प्रार्थना ही करते रहेंगे ? .....

 

कब तक हम प्रार्थना ही करते रहेंगे ? .....
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कब तक हम प्रार्थना ही करते रहेंगे| प्रार्थना करते करते युग बीत गए हैं पर हम वहीं के वहीं हैं| अपनी दुर्बलताओं का त्याग कर के हम अपने आत्म-तत्व में स्थित हों| जिनको हम ढूँढ रहे हैं वह तो हम स्वयं हैं|
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हमें अपने विचारों पर और वाणी पर सजगता पूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए| अधोगामी विचार पतन के कारण होते हैं| अनियंत्रित शब्द स्वयं की आलोचना, निंदा व अपमान का कारण बनते हैं| परमात्मा के किसी पवित्र मन्त्र का निरंतर जाप हमारी रक्षा करता है| परमात्मा हाथ में डंडा लेकर किसी बड़े सिंहासन पर बैठा कोई अलोकिक पुरुष नहीं है जो अपनी संतानों को दंड और पुरष्कार दे रहा है| जैसी अपनी सोच होती है वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है| हमारे विचार और सोच ही हमारे कर्म हैं|
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परमात्मा तो एक अगम, अगोचर, अचिन्त्य परम चेतना है जो हम से पृथक नहीं है| वह चेतना ही यह लीला खेल रही है| कुछ लोग यह सोचते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ करेगा और वही हमारा उद्धार करेगा| पर ऐसा नहीं है| हमारी उन्नत आध्यात्मिक चेतना ही हमारी रक्षा करेगी| यह एक ऐसा विषय है जिस पर उन्हीं से चर्चा की जा सकती है जिन के ह्रदय में कूट कूट कर प्रेम भरा है और जो पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित होना चाहते हैं|
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वर्तमान काल में हमें विचलित नहीं होना चाहिए| समय ही खराब चल रहा है| सारे सेकुलर चाहे वे राजनीति में हों, या प्रशासन में, या न्यायपालिका में ..... सब के सब धर्मद्रोही हैं| सारी सेकुलर मिडिया भी धर्मद्रोही है| अवसर मिलते ही वे हमारी आस्थाओं पर मर्मान्तक प्रहार करने से नहीं चूकते| हमें धैर्यपूर्वक अपना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक बल निरंतर बढाते रहना चाहिए| हमारी आध्यात्मिक शक्ति निश्चित रूप से हमारी रक्षा करेगी|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१८

भगवान हैं, यहीं पर, इसी समय हैं; और सर्वदा व सर्वत्र भी हैं। यदि नहीं दिखाई देते, तो दोष हमारे बुरे कर्मों का है ---

  भगवान हैं, यहीं पर, इसी समय हैं; और सर्वदा व सर्वत्र भी हैं। यदि नहीं दिखाई देते, तो दोष हमारे बुरे कर्मों का है।

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जब लगे कि -- ध्यान, ध्याता, व ध्येय; -- दर्शन, दृष्टा, व दृश्य; -- उपासना, उपासक, व उपास्य; --- ये सब एक हो गए हैं, तब समझना चाहिए कि आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। यही मुक्ति व मोक्ष का मार्ग है।
🙏🕉🙏
भगवान हमारे माध्यम से स्वयं साधना करते हैं, हम तो निमित्त मात्र हैं। कर्ता होने का भाव मिथ्या 'अहंकार' है, और कुछ पाने का भाव 'लोभ' है। यह लोभ और अहंकार -- सबसे बड़ी हिंसा है। लोभ और अहंकार से मुक्ति -- 'अहिंसा' है, जो हम सब का परम धर्म है।
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भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो।।
[ बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है ]
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समाज में कदम-कदम पर हर ओर छाई हुई हर तरह की भयंकर कुटिलता (छल, कपट, झूठ) व विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी मैं अपनी आस्था पर पूरी श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा से दृढ़ हूँ|
भगवान की पूर्ण कृपा है| जब उनका निरंतर साथ है तो किसी से कोई अपेक्षा नहीं है| वे हर समय अपने हृदय व स्मृति में रखते हैं| उन की कृपा सब पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०२४ . पुनश्च: ---
🙏🕉🙏 जब लगे कि -- ध्यान, ध्याता, व ध्येय; -- दर्शन, दृष्टा, व दृश्य; -- उपासना, उपासक, व उपास्य; --- ये सब एक हो गए हैं, तब समझना चाहिए कि आध्यात्मिक उन्नति हो रही है। यही मुक्ति व मोक्ष का मार्ग है।
🙏🕉🙏
भगवान हमारे माध्यम से स्वयं साधना करते हैं, हम तो निमित्त मात्र हैं। कर्ता होने का भाव मिथ्या 'अहंकार' है, और कुछ पाने का भाव 'लोभ' है। यह लोभ और अहंकार -- सबसे बड़ी हिंसा है। लोभ और अहंकार से मुक्ति -- 'अहिंसा' है, जो हम सब का परम धर्म है।
🙏🕉🙏
भगवान कहते हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो।।
[ बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है ]
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अर्जुन ने बाएँ हाथ से भी बाण चलाने के लिए विशेष दक्षता प्राप्त की थी, यह उसके अध्यवसाय और परिश्रम का परिणाम था| हम भी परमात्मा को समर्पित होंगे तो हमें भी हर क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त होगी| 🕉🕉🕉 ||

ब्रह्म और भ्रम में क्या भेद है?

 ब्रह्म और भ्रम में क्या भेद है?

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जो स्वयं से पृथक है, वह भ्रम है। जो स्वयं के साथ एक है, जिस में सर्वस्व समाहित है, जिस से परे कुछ भी नहीं है, वह ब्रह्म है। ब्रह्म एक अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। जब हमारी चेतना इस नश्वर देह के साथ एक न होकर समष्टि यानि सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक होती है, तब हम स्वयं भी ब्रह्म हैं। तब हम कह सकते हैं -- अहं ब्रह्मास्मि।। हम ब्रह्म हैं, ब्रह्म से आये हैं, और ब्रह्म में ही विलीन हो जायेंगें। हम यह नश्वर देह नहीं हैं। जब तक इस सत्य का साक्षात्कार न हो, इसका चिंतन मनन निदिध्यासन और ध्यान परमप्रेमपूर्वक करते रहें।
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उस समय तक अकिंचन भाव में ही रहें, स्वयं को साधक समझना माया का एक आवरण है जो हमें भ्रमित करता है।
ओम् तत्सत् ।।
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०२४