निम्न पंक्तियाँ मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| यह आवश्यक नहीं है कि ये सत्य ही हों| मेरा आंकलन भी गलत हो सकता है|
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सनातन हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष) को मानव जीवन का उद्देश्य या लक्ष्य बताया गया है| माता-पिता, आचार्यों और शास्त्रों के उपदेशानुसार आचरण भी पुरुषार्थ है|
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लेकिन इस जीवन का मेरा अनुभव यह कहता है कि जीवन में हमारे साथ वही होता है जो हमारी नियति में है| हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता| हमारी महत्वाकांक्षायें कभी पूरी नहीं होतीं| होता वही है जैसी परिस्थितियाँ हमारे चारों ओर होती हैं, और जैसी हमारी समझ और मस्तिष्क यानि दिमाग की क्षमता होती है| जितनी अधिक आकांक्षाएँ हमारे में होती हैं, उतनी ही अधिक हमारे जीवन में कुंठायें होती हैं| पुरुषार्थ भी तभी होता है जब वह हमारे भाग्य यानि नियति में लिखा हो, अन्यथा नहीं|
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हमारे पास एक ही स्वतंत्र चयन (free choice) है कि हम परमात्मा को प्रेम करें या नहीं| अन्य सब तरह के पुरुषार्थ की बात एक आदर्श लुभावनी मीठी-मीठी अव्यवहारिक कल्पना मात्र ही है| हम अपने कर्मफलों को भोगने के लिए ही आते हैं| बहुत ही कम विकल्प/अवसर, और उनका उपयोग करने की क्षमता हमें जीवन में मिलती हैं| होता वही है जैसी सृष्टिकर्ता की इच्छा होती है|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !! आप के विचार आमंत्रित हैं|
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ जुलाई २०२०