Thursday, 3 April 2025

शुक्राचार्य द्वारा आराधित असाध्य रोग,अकाल मृत्यु निवारक ।। मृतसंजीवनीमंत्र।।

 शुक्राचार्य द्वारा आराधित असाध्य रोग,अकाल मृत्यु निवारक ।। मृतसंजीवनीमंत्र।।


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ॐहौं ॐजूं ॐ स: ॐभू: ॐभुव: ॐस्व: ॐमह: ॐजनः ॐ तपः ॐ सत्यं

ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं

त्र्यबकं यजामहे सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम्

भर्गोदेवस्य धीमहि उर्वारुकमिव बंधनान्

धियो योन: प्रचोदयात् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्

ॐसत्यं ॐतपः ॐजन: ॐ मह: ॐस्व: ॐभुव: ॐभू: ॐ स: ॐजूं ॐहौं ॐ।।

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इस मंत्र का अर्थ है : हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं... उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए... जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं, तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं.

इस मंत्र के जप से असाध्य रोग कैंसर, क्षय, टाइफाइड, हैपेटाइटिस बी, गुर्दे, पक्षाघात, ब्रेन ट्यूमर जैसी बीमारियों को दूर करने में भी मदद मिलती है। इस मंत्र का प्रतिदिन विशेषकर सोमवार को 101 जप करने से सामान्य व्याधियों के साथ ही मानसिक रोग, डिप्रैशन व तनाव आदि दूर किए जा सकते हैं।

तेज बुखार से शांति पाने के लिये औंगा की समिधाओं द्वारा पकाई गई दूध की खीर से हवन करवाना चाहिए। मृत्यु-भय व अकाल मृत्यु निवारण के लिए हवन में दही का प्रयोग करना चाहिए।

इतना ही नहीं मृत्युंजय जप व हवन से शनि की साढ़ेसाती, वैधव्य दोष, नाड़ी दोष, राजदंड, अवसादग्रस्त मानसिक स्थिति, चिंता व चिंता से उपजी व्यथा को कम किया जा सकता है। भयंकर बीमारियों के लिए मृत्युंजय मंत्र के सवा लाख जप व उसका दशमांश का हवन करवाना उत्तम रहता है।

सारी सृष्टि सारा ब्रह्मांड -- मेरा शरीर है, सारे प्राणी मेरा परिवार हैं ---


सारी सृष्टि सारा ब्रह्मांड -- मेरा शरीर है, सारे प्राणी मेरा परिवार हैं। मैं कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म (निरंतर विस्तृत, सर्वव्यापक) परमशिव (परम कल्याणकारी) हूँ, जो इस समय यह एक अति साधारण, सामान्य, अकिंचन मनुष्य बन गया है।
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इस समय मैं एक निमित्त मात्र हूँ, कर्ता तो परमशिव है। मैं जो कुछ भी लिखता हूँ, वह मेरा सत्संग है, जिसका एकमात्र उद्देश्य -- अपने स्वयं, सनातन-धर्म और भारत के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करना है। मैं अपने या किसी अन्य के मनोरंजन के लिए बिल्कुल भी नहीं लिखता। कौन क्या सोचता है यह उसकी समस्या है, मेरी नहीं। ॐ शिव शिव शिव !!
अप्रैल ४, २०२३.

हम भगवान की ओर अग्रसर हैं या नहीं?

हम भगवान की ओर अग्रसर हैं या नहीं? इस पर विचार करते हैं। मैं बहुत गंभीरता से यह लिख रहा हूँ। नीचे लिखा हरेक शब्द अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

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यदि भगवान के प्रति हमारा प्रेम निरंतर बढ़ रहा है, और हमें सच्चिदानंद की अनुभूतियाँ हो रही हैं, तो हम भगवत्-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हैं, अन्यथा नहीं।
यदि सांसारिक मान-सम्मान और प्रसिद्धि की कामना का कण मात्र भी अवशेष है, तो हम आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर रहे हैं।
अनेक प्रकार की वासनाओं और कामनाओं से घिरे रहना भी जड़ता और आध्यात्मिक अवनति की निशानी है।
सारी भागदौड़ और प्रयासों के पश्चात जब मैं स्वयं में स्थित होता हूँ, तो पाता हूँ कि जिसे में खोज रहा था, वह तो मैं स्वयं हूँ॥ .
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
After many lives, at last the wise man realises Me as I am. A man so enlightened that he sees God everywhere is very difficult to find.
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मंगलमय शुभ कामनाएँ॥ ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ अप्रेल २०२४

भगवान "श्री स्वर्णाकर्षण भैरव" जी का मंदिर

 भगवान "श्री स्वर्णाकर्षण भैरव" जी का मंदिर

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"श्री स्वर्णाकर्षण भैरव" जी का एक ही मंदिर मैंने पूरे भारत में देखा है, जो राजस्थान के चुरू जिले के राजलदेसर नगर में है। अन्यत्र भी इस तरह का कोई मंदिर है तो मुझे नहीं पता।
ॐ पीतवर्णं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं पीतवाससम्।
अक्षयं स्वर्णमाणिक्य तड़ित पूरित पात्रकम्॥
अभिलसन् महाशूलं चामरं तोमरोद्वहम्।
सततं चिन्तये देवं भैरवं सर्वसिद्धिदम्॥
मंदारद्रुमकल्पमूलमहिते माणिक्य सिंहासने।
संविष्टोदरभिन्न चम्पकरुचा देव्या समालिंगितः॥
भक्तेभ्यः कररत्नपात्रभरितं स्वर्णददानो भृशं।
स्वर्णाकर्षण भैरवो विजयते स्वर्णाकृति: सर्वदा॥"
भावार्थ :--- श्रीस्वर्णाकर्षण भैरव जी मंदार (सफेद आक) के नीचे माणिक्य के सिंहासन पर बैठे हैं ! उनके वाम भाग में देवि उनसे समालिंगित हैं ! उनकी देह आभा पीली है तथा उन्होंने पीले ही वस्त्र धारण किये हैं ! उनके तीन नेत्र हैं ! चार बाहु हैं जिन्में उन्होंने स्वर्ण-माणिक्य से भरे हुए पात्र, महाशूल, चामर तथा तोमर को धारण कर रखा है ! वे अपने भक्तों को स्वर्ण देने के लिए तत्पर हैं। ऐसे सर्वसिद्धि प्रदाता श्री स्वर्णाकर्षण भैरव का मैं अपने हृदय में ध्यान व आह्वान करता हूं, उनकी शरण ग्रहण करता हूं ! आप मेरे दारिद्रय का नाश कर मुझे अक्षय अचल धन समृद्धि और स्वर्ण राशि प्रदान करे और मुझ पर अपनी कृपा द्रष्टि करें।
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राजस्थान के चुरू जिले के राजलदेसर नगर में स्थित "भद्रकाली सिद्धपीठ" में स्वर्णाकर्षण भैरव का मंदिर है। इस मंदिर के ठीक नीचे एक अन्य मंदिर "बटुक भैरव" और "काल भैरव" का है। इस मंदिर के ठीक सामने एक मंदिर "श्रीराधा-कृष्ण" का है, जिसके ऊपर "दक्षिणमुखी हनुमान जी" का मंदिर है। पास में ही एक विशाल "शिवालय" है, और एक भूमिगत मंदिर "भगवती भद्रकाली" का है। इस सिद्धपीठ की स्थापना अनंतश्रीविभूषित दण्डी स्वामी जोगेन्द्राश्रम जी महाराज ने की थी। वे एक सिद्ध संत हैं। इस समय इस सिद्धपीठ के पीठाधीश्वर स्वामी शिवेंद्रस्वरूपाश्रम जी महाराज हैं। यहाँ एक अन्य मौनी अवधूतस्वामी विश्वेन्द्राश्रम जी महाराज भी विराजते हैं। यह एक पूर्ण रूप से जागृत सिद्धपीठ है।
एक गौशाला भी यहाँ है, और सीमित मात्रा में आयुर्वेदिक औषधियों का वितरण भी होता है। समय समय पर अनेक तपस्वी दण्डी सन्यासी यहाँ पधारते रहते हैं। यह सिद्धपीठ मुख्यतः भगवती भद्रकाली को समर्पित है। ४ अप्रेल २०२४