Sunday, 25 May 2025

जिसे हम ढूँढ़ रहे थे, वे तो हम स्वयं हैं --- .

  जिसे हम ढूँढ़ रहे थे, वे तो हम स्वयं हैं ---

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"एक गहन अभीप्सा हो, प्रचंड इच्छा शक्ति हो, और ह्रदय में परम प्रेम हो, तो परमात्मा को पाने से कोई भी विक्षेप या आवरण की मायावी शक्ति नहीं रोक सकती। जो सबके हृदय में हैं, उनकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं हो सकती।"
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हम यह देह नहीं, सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हैं जो परमात्मा के साथ एक हैं। जब परमात्मा ही हमारा वास्तविक रूप है, तब पाने के लिए बाकी क्या रह गया है? सब कुछ तो पा लिया है। दिन-रात अपने सर्वव्यापी परमात्म रूप का चिंतन करो। जिस खजाने को इस सृष्टि में ढूँढ रहे हैं, वह खज़ाना तो हम स्वयं हैं। जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद भी हम स्वयं हैं।
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जल की एक बूंद महासागर की विराट जलराशि में विलीन होकर स्वयं महासागर हो गई है। परमात्मा की विराट अनंतता में विलीन एक शाश्वत आत्मा स्वयं को कैसे व कहाँ ढूँढे? परमात्मा के सिवाय कोई अन्य अस्तित्व नहीं है।
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"मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥"
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१९

नाद और बिंदु के संयोग से सृष्टि बनी है ....

 नाद और बिंदु के संयोग से सृष्टि बनी है ....

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जब ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था, तब अचानक ही एक बिंदु की उत्पत्ति हुई, और वह बिंदु मचलने लगा| तब उसके अंदर भयानक परिवर्तन और विस्फोट होने लगे| शिव पुराण के अनुसार नाद और बिंदु के संयोग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है| नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश| इसे ही अनाहत नाद या अनहद की ध्वनि कहते हैं जो शाश्वत और सनातन है| इसी ध्वनि को हिंदुओं ने "ॐ" के रूप में व्यक्त किया है और यह ॐ ही परम ब्रह्म है जो स्वयं प्रकाशित है| ध्यान में सुनने और दिखाई देने वाली इसी ज्योतिर्मय अक्षर परम ब्रह्म की सतत् चेतना को योगी लोग कूटस्थ चैतन्य कहते हैं|
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ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ है .... निरंतर 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना'| ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं| विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म ही है| जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है, उसको स्थित भी रखता है, और बापस अपने में समेट भी लेता है| नृत्यकार और नृत्य में कोई अंतर नहीं है| जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है| यह सृष्टि भी परमात्मा यानि परम ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है|
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ॐ तत्सत् |ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

भगवान एक ईर्ष्यालु प्रेमी भी हैं और छलिया भी हैं .....

 भगवान एक ईर्ष्यालु प्रेमी भी हैं और छलिया भी हैं .....

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भगवान की भक्ति एक अति-मानवीय असंभव कार्य है| भगवान हम सब को सर्वाधिक प्रिय हैं, पर वे बड़े से बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| वे शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, ९९.९९% भी उनके यहाँ नहीं चलता| १००% से कम उन्हें कुछ स्वीकार्य ही नहीं है| यही तो हम सब से नहीं होता, इसी लिए हम सब इस भवसागर में अटके हुए हैं| मन में किंचित भी तुच्छ से तुच्छ कोई अन्य कामना हो तो वे इसे व्यभिचारिणी भक्ति बताते हैं, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है| उन्हें तो अव्यभिचारिणी और अनन्य भक्ति चाहिए| अनन्य का अर्थ है जहाँ कोई अन्य है ही नहीं, जहाँ भक्त और भगवान में भी कोई भेद नहीं है| यह बहुत कठिन और लगभग असंभव है, पर हम सब उनके बिना रह भी तो नहीं सकते|
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वे श्रीहरिः, अपना "हरिः" नाम सार्थक अवश्य करेंगे| वे तो "चोर-जार-शिखामणि" और "दुःख-तस्कर" भी हैं| उन के लिए क्या असंभव है? इस अवचेतन अन्तःकरण में जो भी स्पृहायें हैं, उन सब का हरण वे ही कर सकते हैं| वास्तव में हम सब तो निमित्त मात्र हैं, कर्ता तो वे ही हैं| हमारी कोई औकात नहीं है उन की भक्ति करने की, जो करना है वह वे ही करेंगे| उनकी कृपा-दृष्टि ही कुछ करा सकती है| वे हमारा पूर्ण समर्पण स्वीकार करें|
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भगवान में एक कमजोरी है, वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते| गीता में वे कहते हैं .....
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च|
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||"
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अपनी कृपा से वे सदा हमारे सन्मुख हैं ...... "सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो"|
हमारे ह्रदय में कौन धड़क रहे हैं? इन नासिकाओं से कौन सांस ले रहे हैं? इन आँखों से कौन देख रहे हैं? रामचरितमानस में उन्होने ही तो कहा है .....
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा| दुर्लभ साज सुलभ करि पावा||"
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ|
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ||"
अर्थात् यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तारने के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं|| जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है||
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बड़े छलिया हैं| कभी कुछ और कभी कुछ कहते हैं| उनका काम छल करना है, और हमारा काम समर्पण करना है| भक्ति तो वे ही करेंगे| भक्त भी वे ही हैं, और भगवान भी वे ही हैं|
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०२०

सृष्टि का रहस्य ---


जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह गया है| सब कुछ तो प्राप्त कर लिया है| मैं और मेरे प्रभु एक हैं, अब उन में और मुझ में कोई भेद नहीं रह गया है| सृष्टि का रहस्य है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं| जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है| ये विचार, ये भाव ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है| इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है| हब सब भगवान के ही अंश हैं, हम सब ही भगवान में एक हैं, पृथक पृथक नहीं, हम ही भगवान हैं, यह देह नहीं|
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता| किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम| इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं| किसी महान संत ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है| एक विद्यार्थी जो डॉक्टर बनना चाहता है उसे अपनी ही सोच के विद्यार्थियों के साथ रहना होगा| जो जैसा बनना चाहता है उसे वैसी ही अनुकूलता में रहना होता है|
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इसी तरह संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति मानवीय कार्य है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है| इसे कोई लाखों में से एक ही कर सकता है| लोग उस लाखों में से एक का ही उदाहरण देते हुए दूसरों को निरुत्साहित करते हैं| जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें हर प्रतिकूलता पर प्रहार करना होगा| सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों पर नियंत्रण| इसके लिए अपने अनुकूल वातावरण निर्मित करना पड़ता है|
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स्वामी रामतीर्थ स्वयं को बादशाह राम कहते थे| उनके लिए पूरी सृष्टि उनका परिवार थी, समस्त ब्रह्माण्ड उनका घर, और पूरा भारत ही उनकी देह थी|| बिना रुपये पैसे के पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया, विदेशों में खूब प्रवचन दिए और जिस भी वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती, प्रकृति उन्हें उस वस्तु की व्यवस्था कैसे भी स्वयं कर देती| अगर हमारे संकल्प में गहनता है तो इस सृष्टि में कुछ भी हमारे लिए अप्राप्य नहीं है| तपस्वी संत महात्मा एकांत में रहते है| भगवन उनकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है|
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो| जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हमारा ही है| यह समस्त सृष्टि हमारी ही है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहां तक के हम ही सम्राट हैं| सृष्टि के सारे सद्गुण हमारे ही हैं| अपने आप को परमात्मा को सौंप दो| परमात्मा का सब कुछ हमारा ही है| स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी क्या बचा रह गया है ???. हमें आभारी होना चाहिए कि भगवान ने हमें स्वस्थ देह दी है, अपना चिंतन दिया है, अहैतुकी प्रेम दिया है, हमारे सिर पर एक छत दी है, अच्छा पौष्टिक भोजन मिल रहा है, स्वच्छ जल और हवा मिल रही है, पूरे विश्व में हमारे शुभचिंतक मित्र है जो हम से प्रेम करते हैं, और हमारे गुरु महाराज हैं जो निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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जिस आसन पर बैठ कर हम भगवान का ध्यान करते हैं वह हमारा सिंहासन है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहाँ तक के हम सम्राट हैं| हम स्वयं ही वह सब हैं| पूरी सृष्टि हमारा परिवार है, समस्त ब्रह्मांड हमारा घर है, हम परमात्मा की दिव्य संतान हैं| जो कुछ भी भगवान का वैभव है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| वह सब हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं| हम और हमारे परम पिता परमात्मा एक हैं|
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि "परमात्मा" को उपलब्ध होने के पश्चात् और पाने को कुछ भी नहीं बचता --- .

 परमात्मा के ध्यान में बहुत अधिक गहराई है। जो ध्वनि/शब्द उन्हें निज चेतना में व्यक्त करता है, वह हमें एक अलौकिक चेतना में आत्मसात कर लेता है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण ही उसी से हुआ है। 

मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि "परमात्मा" को उपलब्ध होने के पश्चात् और पाने को कुछ भी नहीं बचता ---
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हमें निरंतर अनन्य भाव से परमात्मा का चिंतन-मनन, निदिध्यासन-ध्यान आदि करते रहना चाहिये। प्रकृति का नियम है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं। जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है, और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है। परमात्मा के निरंतर चिंतन से हम स्वयं ही परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
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हमारे विचार और भाव ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं। पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है, वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है। चारों ओर की सृष्टि हमारी ही रचना है। हम सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं। परमात्मा से पृथकता का बोध मिथ्या है।
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम। इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं। ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है।
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संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति-मानवीय कार्य है, जिसे हर कोई नहीं कर सकता। जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अपने विचारों पर नियंत्रण रखना पड़ता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण चाहिए। तपस्वी संत महात्मा इसीलिए एकांत में रहते है। भगवान उनकी व्यवस्था कर देते हैं, क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है।
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो। जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है, वह हम स्वयं हैं। हर समय सर्वव्यापी आत्मा का ध्यान करो, अनात्मा का नहीं। इसे समझने के लिए किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय, सिद्ध महापुरुष के मार्गदर्शन में साधना करनी पड़ेगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०२३

मैं वैदिक सनातन हिन्दू धर्म का एक अनुयायी हूँ ___+

मैं वैदिक सनातन हिन्दू धर्म का एक अनुयायी हूँ| संस्कारों से मैं भक्ति, योग और वेदांत दर्शन से प्रभावित हूँ पर हिन्दू धर्म को उसकी समग्रता में स्वीकार करता हूँ| मैं धर्म-सापेक्ष हूँ और शिव-शक्ति की साधना मेरे जीवन का अभिन्न भाग है| भगवान श्रीराम मेरे परम आदर्श हैं| मेरे पूर्वज शिव भक्त थे| मेरे ऊपर अनेक संतों का प्रभाव है जिनमें श्री श्री रमण महर्षि, श्री श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, श्री अरविन्द और परमहंस योगानंद प्रमुख हैं| श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की क्रियायोग परंपरा में मैं दीक्षित हूँ|
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भारत भूमि मेरे लिए एक भूमि का टुकड़ा नहीं, बल्कि साक्षात माता है| मेरे लिए भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है| मेरे लिए भारत एक ऊर्ध्वमुखी लोगों का समूह भी है| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है, और सनातन धर्म का पतन ही भारत का पतन है, भारत की अस्मिता और भविष्य सनातन हिन्दू धर्म ही है व भारत का भविष्य ही इस सृष्टि का भविष्य है, ऐसी मेरी आस्था और मान्यता है| सनातन धर्म का आधार है --- परमात्मा को पूर्ण अहैतुकी परमप्रेम और समर्पण द्वारा स्वयं में व्यक्त करना| मैं उन सब व्यक्तियों और समूहों का वंदन करता हूँ जिनके ह्रदय में भारतवर्ष और उसकी अस्मिता के प्रति प्रेम है| जय जननी जय भारत !
25 मई 2014

इस तरह हिन्दू राष्ट्र नेपाल को तबाह किया था राजीव गांधी ने ---

 इस तरह हिन्दू राष्ट्र नेपाल को तबाह किया था राजीव गांधी ने।


पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने नेपाल के हिन्दू राजपरिवार को सत्ता को उखाड़कर वामपंथियों और चीन समर्थकों के सत्ता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त किया था :
- पूर्व स्पेशल डायरेक्टर रॉ ।

भारत के प्रति सदैव लगाव व झुकाव रखने वाले नेपाल के राज परिवार के विरुद्ध राजीव गांधी ने रॉ के द्वारा शुरू करवाये थे वामपंथी_आंदोलन।

राजीव ने दो वजहों से नेपाल को बर्बाद किये।

एक बार वहां की राजकुमारी के साथ छिछोरापन करने की असफल कोशिश की और गिरफ्तार हुए पर भारत सरकार के हस्तक्षेप से बच गए।

दूसरी बार राजीव गांधी, सोनिया के साथ पशुपति नाथ मंदिर में दर्शन करना चाह रहे थे, जहां राजीव को पुजारियों ने तब रोक दिया मंदिर मे प्रवेश से।
क्योंकि पशुपतिनाथ में तब परंपरा थी गैर हिन्दू मंदिर में प्रवेश या पूजा नहीं कर सकते थे। फिर सरकारी हस्तक्षेप के बाद राजीव को तो मंदिर प्रशासन ने इज़ाज़त दे दी, पर सोनिया को फिर भी नहीं जाने दिया ।

इस बात पर राजीव चिढ़ गए और वो मंदिर गए बिना ही लौट आये और भारत आने के बाद नेपाल की बर्बादी का खेल खेला ।
गैर हिन्दू पृष्ठभूमि के कारण संसार के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र के प्रति द्वेषभाव ऐतिहासिक सत्य है ।
नेपाल के राज परिवार का लगाव व झुकाव सदैव भारत की ओर था, यह लगाव इतना था कि भारत के स्वतंत्र होने पर नेपाल के राज परिवार ने खुद राजपाट त्याग कर नेपाल का भारत में एक राज्य के रूप में विलय का प्रस्ताव तक रखा था ।
परन्तु अक्ल पर भारी चट्टानें रख कर घूमने वाले तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था और तर्क दिया था कि वैसे ही इतना बड़ा देश संभालना मुश्किल हो रहा है, भला और अतिरिक्त भू भाग कैसे संभालेंगे।

उसी नेहरू खानदान के कुलदीपक राजीव गांधी ने भारत के प्रति सदैव आदर व स्नेह का भाव रखने वाले नेपाली राज परिवार को नेपाल की सत्ता से हटाने हेतु पर्दे के पीछे से एक बहुत ही गंदा खेल खेला और आनेवाले दशकों के लिए नेपाल को भारत के मित्रों की सूची से दूर करते हुए वामपंथी नेतृत्व के अंतर्गत चीन के प्रति झुकाव रखने वाला देश बनवा दिया।

यह बातें निकल कर आईं हैं,
रॉ के पूर्व स्पेशल_डायरेक्टर_अमर_भूषण की
किताब "इनसाइड_नेपाल" से,
👉 जिसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है कि कैसे संवैधानिक लोकतंत्र के नाम पर राजीव गांधी के निर्देश पर कोवर्ट ऑपरेशन्स लांच कर नेपाल की भारत समर्थक हिन्दू राजशाही को सत्ता से हटाया गया ।

अमर भूषण की पुस्तक इनसाइड नेपाल में राजीव गांधी के निर्देश पर लॉन्च किये गए कोवर्ट ऑपरेशन्स की प्रकृति का भी उल्लेख है ।
और यह भी बताया गया है कि किस प्रकार तत्कालीन नेपाल के विपक्षी दलों के संग मिलकर गुप्त तरीके से नेपाल के पूरे राजशाही सिस्टम को ध्वस्त किया गया।

उस समय अमर भूषण जो चीफ ऑफ ईस्टर्न ब्यूरो ऑफ रॉ थे, को एक नकली नाम जीव नाथन के अंतर्गत उनकी पहचान छिपा कर इन ऑपरेशन को अंजाम देने का दायित्व सौंपा गया था।
उन्हें एक अनुभवहीन यूनिट बनाकर नए जासूसों को भर्ती कर राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव की राजशाही का तख्ता पलट कर नेपाल में संवैधानिक लोकतंत्र लाने का मिशन दिया गया था।

तत्कालीन राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने नेपाल के हिन्दू मोनार्क की सत्ता समाप्त करने हेतु उस समय नेपाल में चल रहे जन आंदोलनों का समर्थन किया था और सैंकड़ों वर्षों से जो नेपाल राज परिवार भारत के प्रति समान धर्म व संस्कृति के कारण मित्रतापूर्ण आचरण करता रहा, स्नेह व विश्वास का भाव रखता था ।
उसी नेपाल के राज परिवार संग राजीव गांधी ने यह गंदा खेल खेला और रॉ स्पॉन्सर्ड जन आंदोलन के नाम पर नेपाल के हिन्दू राजपरिवार को सत्ता से हटाने का षड्यंत्र रच दिया।

राजीव गांधी की जब नेपाल नरेश के साथ नेपाल में लोकतंत्र लागू करने की वार्ता कई दौर की बातचीत के बाद विफल हो गयी, तब राजीव गांधी ने भारत से नेपाल जाने वाली खाद्य सामग्री व अन्य आवश्यक वस्तुओं पर रोक लगा दी और नेपाल नरेश को नेपाल में लोकतंत्र लागू करने के लिए बाध्य किया ।

जिसके कारण नेपाल के राजपरिवार को, जिसने तब तक चीन से दूरी बनाये रखी थी, उसे उसी चीन से सहायता मांगनी पड़ी और राजीव गांधी की इसी मूर्खतापूर्ण हरकत के कारण चीन को नेपाल के आंतरिक विषयों में दखल देने का अवसर मिल गया ।
और साथ ही उसके बाद चीन धीरे धीरे नेपाल में अपनी जड़ें मजबूत करता हुआ नेपाल को भारत से दूर ले गया और आज भारत की सिक्योरिटी इस्टेबलिशमेंट के लिए नेपाल एक सरदर्द है ।

नेपाल में चीनी फुटप्रिंट रणनीतिक रूप से भारत के लिए बहुत ही चिंताजनक व प्रतिकूल परिस्थिति थी और भारत कभी नहीं चाहता था कि चीन की उपस्थिति कभी भी नेपाल में हो ।
यह किसी भी प्रकार से भारतीय हित में नहीं था, किन्तु राजीव गांधी द्वारा बिना सोचे समझे उठाये विवेकहीन कदम ने भारत का यह दुःस्वप्न सच कर दिया।

अंत में रॉ के चीफ ए.के वर्मा को नेपाल में लोकतंत्र स्थापित करने का दायित्व दिया गया, जिन्होंने अपने विश्वासपात्र 'जीवनाथन' को मैदान में उतारा ।
भूषण उर्फ जीवनाथन ने कार्यभार सम्भाला और माओवादी लीडर पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड को काफी कूटनीतिक इस्तेमाल कर व मशक्कत कर अपनी तरफ किया ।
और उसे अन्य विपक्षी पार्टियों से हाथ मिलाकर नेपाल की राजनीति में नेपाल के हिन्दू राजपरिवार के विरुद्ध एक ज्वाइंट फ्रंट बनाने को कहा।

सबको राजपरिवार के विरुद्ध एक साथ लड़ने को कहा, यही प्रचंड आगे चल कर 2008 व 2016 में नेपाल का प्रधानमंत्री भी बना, प्रचंड एक जाना माना वामपंथी है, जो चीन का काफी करीबी है और समय समय पर भारत सरकार के विरुद्ध चीन को इस्तेमाल भी करता रहा है ।

पुस्तक "इनसाइड नेपाल" बताती है कि कैसे दुर्गम क्षेत्रों में विभिन्न राउंड्स की गहन बातचीत के बाद रॉ ने पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड को राजीव गांधी का एजेंडा फॉलो करने के लिए मनाया,
क्योंकि आरम्भ में प्रचंड को भी भारतीय प्रधानमंत्री राजीव की इस आत्मघाती रणनीति पर विश्वास नहीं हो रहा था और बातचीत में एक समय पर तो उसने रॉ से यह प्रश्न भी किया था कि
आखिर भारत को नेपाल में लोकतंत्र लाकर क्या फायदा मिलेगा, राजपरिवार तो पहले से ही भारत की सभी नीतियों का अनुसरण करता है ?

परन्तु भारत देश का दुर्भाग्य कि ऐसी विकृत मानसिकता से ग्रस्त विवेकहीन अदूरदर्शी राजीव गांधी उस समय भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर 400 से अधिक सीटों के अभूतपूर्व बहुमत के संग खून पीने वाले चमगादड़ के समान उल्टा लटका हुआ भारत के हितों को ही नुकसान पहुंचाने में लगा हुआ था ! (संकलित)