Wednesday, 7 May 2025

यदि भारत एक हिन्दू राष्ट्र बनता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि अगले बीस-तीस वर्षों में लगभग पूरा प्रबुद्ध पश्चिमी यूरोप, ईसाई रिलीजन को छोड़कर सनातन (हिन्दू) धर्म को अपना लेगा।

 

यदि भारत एक हिन्दू राष्ट्र बनता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि अगले बीस-तीस वर्षों में लगभग पूरा प्रबुद्ध पश्चिमी यूरोप, ईसाई रिलीजन को छोड़कर सनातन (हिन्दू) धर्म को अपना लेगा। पूर्वी यूरोप में यह अब तक हो जाता, लेकिन पुराने मार्क्सवादी प्रभाव ने इसे रोक रखा है। यूरोप में ईसाई रिलीजन हासिए पर आ चुका है, वहाँ के लोगों की आस्था ईसाईयत से समाप्त हो चुकी है। यही स्थिति धीरे-धीरे दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में भी हो जायेगी। बीस वर्ष बाद संस्कृत भाषा भी पूरे विश्व में अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाएगी, क्योंकि कम्प्यूटरों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ भाषा है। भारत का हिन्दू राष्ट्र बनना बहुत ही आवश्यक है।
.
जिस दिन वर्तमान आधुनिक विज्ञान यह मान लेगा कि आत्मा शाश्वत है, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धान्त सत्य हैं, उस दिन से सनातन धर्म का वैश्वीकरण होने लगेगा। मेरी तो अभी भी यह मान्यता है कि जो भी व्यक्ति आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों, व ईश्वर के अवतारों को मानता है, वह हिन्दू है, चाहे वह पृथ्वी के किसी भी स्थान पर रहता है।
.
मेरा यह विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प, और ईश्वर से प्रार्थना है कि भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हों, और भारत में छाया असत्य का अंधकार दूर हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२१

परमात्मा कहाँ हैं? सभी को यहाँ उनका पूरा पता-ठिकाना बता रहा हूँ ---

मैं परमात्मा की प्रेरणा से परमात्मा की साक्षी में सत्य बोल रहा हूँ, और परमात्मा का पूरा पता-ठिकाना यहाँ सभी को बता रहा हूँ। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपनी चेतना में ज्ञान और विवेक की अग्नि को प्रज्ज्वलित करना होगा। जब हम किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु-प्रदत्त विधि से भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब हमारे मेरु-दंड में एक घर्षण होता है, जो ज्ञान और विवेक की अग्नि को प्रज्ज्वलित करता है। वह अग्नि हमारे प्रारब्ध और संचित कर्मफलों को शनैः शनैः भस्म करने लगती है। यदि हम सत्यनिष्ठा से लगे रहेंगे तो एक अवस्था ऐसी भी आयेगी जब हमारे निज जीवन में परमात्मा से पृथक हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। तभी हम परमात्मा को पूरी तरह समझ सकेंगे।

.
कोई मेरी बात को माने या न माने, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं केवल अनुरोध ही कर सकता हूँ कि इसी समय से हम स्वयं परमप्रेममय होकर परमात्मा के प्रेम की अग्नि में कूद पड़ें, और सर्वव्यापी निजात्मा में रमण करें। इस विषय को समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम-योग व मोक्षसन्यास-योग को थोड़ा समझना होगा। यहाँ मैं अति अति संक्षेप में ही बता पाऊँगा।
.
(१) "पुरुषोत्तम योग" में भगवान जब कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
(अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥")
(२) और "मोक्षसन्यास योग" में वे कहते हैं --
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥१८:६१॥"
(अर्थात् -- हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥)
.
भगवान ने यह तो बता दिया कि वे हमारे हृदय में हैं, लेकिन यहाँ स्वभाविक रूप से एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि भगवान के मन में "हृदय" शब्द का क्या तात्पर्य है, जहाँ वे स्थित हैं? यदि हम "हृदय" शब्द का आध्यात्मिक अर्थ समझ सकते हैं, तो परमात्मा के पते-ठिकाने को भी समझ सकते हैं। यहाँ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपना पता-ठिकाना बता रहे हैं।
.
आध्यात्म में "हृदय" शब्द से तात्पर्य शरीर के अंग "हृदय" से नहीं है। यहाँ "हृदय" शब्द का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं। आध्यात्म में -- सर्वव्यापक परमात्मा की चेतना, और भक्ति, करुणा, धैर्य, क्षमा, उत्साह, स्नेह, कोमलता, शांति, प्रसन्नता, व उदारता जैसे दैवीय गुणों से सम्पन्न जागरूक मन को ही "हृदय" कहते हैं, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है। यही परमात्मा यानि ईश्वर का स्थायी पता-ठिकाना है।
चैतन्यस्वरूप सच्चिदानंद ब्रह्म का ध्यान अपने इस हृदय में करें, उनका केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं। इस तरह हम सब परमात्मा के पते/ठिकाने पर पहुँच कर उनके साथ एक हो जायेंगे।
.
जिनके हृदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम है, वे ही मेरे साथ रहें। अन्य सब मुझे विष की तरह छोड़ दें, क्योंकि मैं उनके किसी काम का नहीं हूँ।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०२५

कोई अन्य नहीं आयेगा, सब कुछ हमें स्वयं को ही करना होगा ---

 कोई अन्य नहीं आयेगा, सब कुछ हमें स्वयं को ही करना होगा ---

.
अन्य कोई नहीं आयेगा, सब कुछ हमें स्वयं को ही करना होगा। इस जन्म में नहीं तो अगले किसी जन्म में करना तो स्वयं को ही होगा। ईश्वर कोई ऊपर से उतर कर आने वाली वस्तु नहीं है, हमें स्वयं को ही ईश्वर बनना होगा। यही ईश्वर की प्राप्ति है। धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण भी स्वयं को ही करना होगा। भारत को हिन्दू राष्ट्र भी स्वयं को ही बनाना होगा।
लेकिन सारा कार्य एक निमित्त होकर करें, कर्ताभाव का अभिमान न आने पाये।
.
परमात्मा के मार्ग में हमारे दो सबसे बड़े शत्रु हैं -- (१) प्रमाद (आलस्य), और (२) दीर्घसूत्रता (काम को आगे टालने की प्रवृति)।
प्रमाद, ही महिषासुर है। राग-द्वेष, अहंकार, संशय, और लोभ आदि के कारण ही हम भगवान से दूर हैं। अन्य कोई कारण नहीं है। समय हो गया है, उठो और ध्यान के आसन पर बैठकर गुरु-चरणों का ध्यान करो। अभी और इसी समय।
.
जिस भौतिक विश्व में हम रहते हैं, उससे भी बहुत अधिक बड़ा एक सूक्ष्म जगत हमारे चारों ओर है, जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह की सत्ताएँ हैं।
जितना हम अपनी दिव्यता की ओर अग्रसर होते हैं, सूक्ष्म जगत की नकारात्मक आसुरी शक्तियाँ उतनी ही प्रबलता से हम पर अधिकार करने का प्रयास करती हैं। उन आसुरी जगत की शक्तियों के प्रभाव से हम जीवन में कई बार न चाहते हुए भी एक पशु की तरह आचरण करने लगते हैं, और चाह कर भी पतन से बच नहीं पाते। ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए?
.
आग लगने पर कुआँ नहीं खोदा जा सकता, कुएँ को तो पहिले से ही खोद कर रखना पड़ता है। अपने समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में करें। लोभ, कामुकता, अहंकार, क्रोध, प्रमाद व दीर्घसूत्रता जैसी वासनायें हमें नीचे गड्ढों में गिराती हैं, जिन से बचने के किए हमें अपनी चेतना, विचारों, व चिंतन के स्तर को अधिक से अधिक ऊँचाई पर रखना चाहिए।
.
रात्री को सोने से पहिले ईश्वर का कीर्तन, भजन, जप, और ध्यान आदि करके उसी तरह सोयें जैसे एक शिशु निश्चिंत होकर अपनी माँ की गोद में सोता है। प्रातःकाल उसी तरह उठें, जैसे एक शिशु अपनी माँ की गोद में निश्चिंत होकर उठता है। दिन का आरंभ भी ईश्वर के कीर्तन, भजन, जप, ध्यान आदि से करें। पूरे दिन परमात्मा को अपनी स्मृति में रखें। ईश्वर स्वयं ही हमारे माध्यम से सारे कार्य कर रहे हैं।
.
आप सब को नमन !! मैं आप सब के साथ एक हूँ, एक क्षण के लिए भी पृथक नहीं हूँ।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२४

भगवान का एकमात्र निवास हमारा हृदय है, हम भी सदा उनके हृदय में ही निवास करें ---

 भगवान का एकमात्र निवास हमारा हृदय है, हम भी सदा उनके हृदय में ही निवास करें ---

.
पता नहीं क्यों कल रात्रि में हृदय में बहुत ही अधिक व्याकुलता और पीड़ा थी। नींद भी नहीं आ रही थी। जब पीड़ा असह्य हो गई तब उठ कर श्रीमद्भगवद्गीता के १५वें अध्याय "पुरुषोत्तम-योग" का स्वाध्याय करने लगा। सारा ध्यान १५वें श्लोक पर अटक गया --
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् -- मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ।।
.
अब बापस पिछले तीन श्लोकों पर गया --
"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५:१२॥"
"गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५:१३॥"
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
.
एक ऊहापोह यानि अनिश्चय की स्थिति चल रही थी, और मन में अनेक तरह के तर्क-वितर्क, और द्वन्द्वात्मक विचार चल रहे थे। वह ऊहापोह शांत हुआ तो हृदय की पीड़ा भी शांत हुई।
यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, वह वस्तुत मुझ चैतन्य स्वरूप का ही प्रकाश है। इसी प्रकार चन्द्रमा और अग्नि के माध्यम से व्यक्त होने वाला प्रकाश भी मेरी ही विविध प्रकार की अभिव्यक्ति है।
जो चैतन्य सूर्य में प्रकाश तथा उष्णता के रूप में व्यक्त होता है, वही चैतन्य पृथ्वी में उसकी उर्वरा शक्ति और जीवन को धारण करने वाली गुप्त पौष्टिकता के रूप में व्यक्त होता है।
हमारे उदर में वे वैश्वानर अग्नि हैं, जो प्राण और अपान वायु से संयुक्त होकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य -- चार प्रकार के अन्नों को पचाता है। वैश्वानर अग्नि खाने वाला है, और सोम खाया जानेवाला अन्न है। यह सारा जगत् अग्नि और सोम स्वरूप है।
.
जिस विचार से मेरी पीड़ा शांत हुई वह यह था कि भगवान का ही एकमात्र अस्तित्व है। वे ही यह "मैं" बन गए हैं। मेरी चेतना में उनका अभाव ही मेरी पीड़ा है। वे ही समस्त ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता हैं। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती में कोई पीड़ा नहीं हो सकती। मेरा एकमात्र निवास स्थल परमात्मा का हृदय है, अन्य कोई मेरा ठिकाना नहीं है। परमात्मा के हृदय का केंद्र सर्वत्र है,लेकिन परिधि कहीं भी नहीं। जैसे उनका हृदय सर्वव्यापी है, वैसे ही मेरी चेतना भी परमात्मा के साथ साथ सर्वत्र व्याप्त है। भगवान सच्चिदानंद हैं, उन्हें कोई पीड़ा नहीं हो सकती। ॐ ॐ ॐ !!
.
आध्यात्म में हृदय शब्द का अर्थ ---
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चैतन्य रूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द का अर्थ शारीरिक हृदय नहीं है। करुणा, प्रेम, क्षमा, उदारता जैसे अनेक गुणों से सम्पन्न मन को ही आध्यात्म में हृदय कहते हैं। हमारा शांत, प्रसन्न, सजग और जागरूक मन ही हृदय कहलाता है, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है।
हमारी सब घनीभूत पीड़ाओं का कारण हमारे हृदय में परमात्मा का अभाव है। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती ही आनंद है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२४