मैं परमात्मा की प्रेरणा से परमात्मा की साक्षी में सत्य बोल रहा हूँ, और परमात्मा का पूरा पता-ठिकाना यहाँ सभी को बता रहा हूँ। इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपनी चेतना में ज्ञान और विवेक की अग्नि को प्रज्ज्वलित करना होगा। जब हम किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सद्गुरु-प्रदत्त विधि से भ्रूमध्य में परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब हमारे मेरु-दंड में एक घर्षण होता है, जो ज्ञान और विवेक की अग्नि को प्रज्ज्वलित करता है। वह अग्नि हमारे प्रारब्ध और संचित कर्मफलों को शनैः शनैः भस्म करने लगती है। यदि हम सत्यनिष्ठा से लगे रहेंगे तो एक अवस्था ऐसी भी आयेगी जब हमारे निज जीवन में परमात्मा से पृथक हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। तभी हम परमात्मा को पूरी तरह समझ सकेंगे।
.
कोई मेरी बात को माने या न माने, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं केवल अनुरोध ही कर सकता हूँ कि इसी समय से हम स्वयं परमप्रेममय होकर परमात्मा के प्रेम की अग्नि में कूद पड़ें, और सर्वव्यापी निजात्मा में रमण करें। इस विषय को समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम-योग व मोक्षसन्यास-योग को थोड़ा समझना होगा। यहाँ मैं अति अति संक्षेप में ही बता पाऊँगा।
.
(१) "पुरुषोत्तम योग" में भगवान जब कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
(अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥")
(२) और "मोक्षसन्यास योग" में वे कहते हैं --
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥१८:६१॥"
(अर्थात् -- हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥)
.
भगवान ने यह तो बता दिया कि वे हमारे हृदय में हैं, लेकिन यहाँ स्वभाविक रूप से एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि भगवान के मन में "हृदय" शब्द का क्या तात्पर्य है, जहाँ वे स्थित हैं? यदि हम "हृदय" शब्द का आध्यात्मिक अर्थ समझ सकते हैं, तो परमात्मा के पते-ठिकाने को भी समझ सकते हैं। यहाँ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अपना पता-ठिकाना बता रहे हैं।
.
आध्यात्म में "हृदय" शब्द से तात्पर्य शरीर के अंग "हृदय" से नहीं है। यहाँ "हृदय" शब्द का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं। आध्यात्म में -- सर्वव्यापक परमात्मा की चेतना, और भक्ति, करुणा, धैर्य, क्षमा, उत्साह, स्नेह, कोमलता, शांति, प्रसन्नता, व उदारता जैसे दैवीय गुणों से सम्पन्न जागरूक मन को ही "हृदय" कहते हैं, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है। यही परमात्मा यानि ईश्वर का स्थायी पता-ठिकाना है।
चैतन्यस्वरूप सच्चिदानंद ब्रह्म का ध्यान अपने इस हृदय में करें, उनका केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं। इस तरह हम सब परमात्मा के पते/ठिकाने पर पहुँच कर उनके साथ एक हो जायेंगे।
.
जिनके हृदय में परमात्मा के प्रति परमप्रेम है, वे ही मेरे साथ रहें। अन्य सब मुझे विष की तरह छोड़ दें, क्योंकि मैं उनके किसी काम का नहीं हूँ।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०२५