अनन्य भक्ति क्यों आवश्यक है? अनन्य भक्ति क्या होती है? ---
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"अनन्य भक्ति" एक ऐसा विषय है जिसे एक सद्गुरु स्वयं अपने सामने बैठाकर अपने सुपात्र शिष्य को ठीक से समझा सकता है। इसे ठीक से समझ तो वे ही पायेंगे जिनको वेदान्त की भी थोड़ी-बहुत अनुभूतियाँ हैं। हम यह देह नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि और अनंतता हैं। हंसःयोग (अजपा-जप) में इसी का अभ्यास किया जाता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
अर्थात् -- "अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥"
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अब प्रश्न उठता है कि अनन्य भाव क्या है?
भगवान मुझ से अन्य नहीं हैं, मैं उन की सर्वव्यापक अनंतता हूँ, और वे मेरे साथ एक हैं; मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि भगवान की पूर्णता हूँ, -- यह अनन्य भाव है। जिन पर ईसाईयत का प्रभाव है, वे इसका अर्थ दूसरा लगायेंगे। वे कहेंगे कि सिर्फ श्रीकृष्ण ही उपास्य है और परमात्मा के अन्य अवतार या अन्य रूप उपास्य नहीं हैं। लेकिन यह गलत है।
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अनन्यभाव से युक्त होकर सर्वव्यापी परमदेव नारायण को आत्मरूप से जानते हुए उनका निरन्तर चिन्तन -- निष्काम अनन्य उपासना है। यहाँ "योगक्षेम" हमारा लक्ष्य नहीं है, वह तो एक side effect है। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है। यह भगवान का काम है, हमारा काम सिर्फ आत्म-समर्पण है।
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अन्य भक्तों का योगक्षेम भी तो भगवान् ही चलाते हैं, यह बात ठीक है, किन्तु जो दूसरे भक्त हैं वे स्वयं भी अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा करते हैं। पर अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा नहीं करते। क्योंकि वे जीने और मरने में अपनी वासना नहीं रखते। केवल भगवान् ही उनके अवलम्बन रहते हैं। अतः उनका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।
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एक व्यक्ति यानि मनुष्य की चेतना में जो नारकीय जीवन मैं जी रहा हूँ, उसे जीने की मेरी बिल्कुल भी इच्छा नहीं है। अपने प्रारब्धवश ही यह जीवन जी रहा हूँ, अन्यथा मेरा सुख, शांति, सुरक्षा और प्रेम तो सिर्फ भगवान में है। स्वयं भगवान ही यह जीवन जी रहे हैं, यही मेरा सुख और आनंद है। भगवान की चेतना के बिना मैं मृत हूँ। भगवान की चेतना के बिना मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता।
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ॐ सहनाववतु, सहनौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै,
तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
११ मई २०२३
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पुनश्च: --- गीता के तेरहवें अध्याय का ग्यारहवाँ श्लोक भी "अनन्य योग" और "अव्यभिचारिणी भक्ति" की महिमा बताता है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
११ मई २०२३