"जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्जपात् सिद्धिर्वरानने" ---
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मुझे कुछ भी नहीं आता-जाता, कुछ भी ज्ञान नहीं है, लेकिन जब से नींद से उठा हूँ, परमात्मा की परम कृपा से उनकी चेतना में खोया हुआ हूँ। विशाल महासागर में जल की एक बूंद जैसे विलीन हो जाती है, वैसे ही परमात्मा की दिव्य चेतना में विलीन हो गया हूँ। भगवान सच्चिदानंद (सत् चित्त आनंद) हैं, उनकी अनुभूति सच्चिदानंद के रूप में होती है। जब से उठा हूँ, चारों ओर उनका आनंद व्याप्त है, जो मैं स्वयं हूँ, यह नश्वर देह नहीं।
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पूरी सृष्टि, सारा
ब्रह्मांड -- प्रणव का जप कर रहा है, जिसे मैं सुन रहा हूँ। नेत्रों के दोनों गोलक बिना किसी तनाव के नासिका-मूल के समीप हैं, और उनका दृष्टि-पथ भ्रूमध्य की ओर है। सहस्त्रारचक्र में एक ज्योति प्रकट हुई थी जो अब सारे ब्रह्मांड में व्याप्त हो गई है। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म और प्रणवनाद के साथ मैं एक हूँ, यह नश्वर देह नहीं। शांभवी-मुद्रा अपने आप लग गई है, और देख रहा हूँ कि सारा ब्रह्मांड जप-योग कर रहा है, जिसका मैं साक्षीमात्र हूँ। गीता में भगवान ने कहा है --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
महर्षियों में मैं भृगु हूँ, वाणी सम्बन्धी भेदों में (पदात्मक वाक्यों में) एक अक्षर 'ओंकार' हूँ। यज्ञों में जपयज्ञ हूँ, और स्थावरों में अर्थात् अचल पदार्थों में हिमालय हूँ। (महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः॥)
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तंत्र शस्त्रों में भगवान शिव कहते हैं -- ‘हे पार्वती जी! मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि जप से ही सिद्धि प्राप्त हो सकती है।’
लगभग ९० प्रतिशत साधक जपयोग की ही साधना करते हैं। योगसूत्रों में महर्षि पतंजलि सर्वप्रथम क्रियायोग को बतलाते है। क्रियायोग वे क्रियाएं हैं, जिन से योग सधे। क्रियायोग का एकमात्र उद्देश्य समाधि की सिद्धि है।
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मंत्र का अर्थ क्या है? --- वह शक्ति जो मन को बन्धन से मुक्त कर दे, वही मंत्र है। ध्वनि के सूक्ष्म विद्युत रुपान्तर को मंत्र कह सकते हैं। मंत्र का जप करते-करते मन जब अपने आराध्य के ध्यान में तन्मय होकर लयभाव को प्राप्त कर लेता है, तब मंत्र की सिद्धि होती है। जिसके जपने मात्र से मनुष्य संसार रूपी भवसागर से पार हो जाता है, वह मंत्र की सार्थकता है। यह बहुत बड़ा विषय है जिसका कोई अंत नहीं है, अतः इसका समापन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०२३