Friday, 16 May 2025

मैं तो फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल कैसा? तुम तो महक हो, तुम्हें अभी हवाओं में समाना है .....

 मैं तो फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल कैसा?

तुम तो महक हो, तुम्हें अभी हवाओं में समाना है .....
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किसी को किसी के प्रति भी द्वेष नहीं रखना चाहिए| राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के कारण हैं| जिससे भी हम द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उसी के घर जन्म लेना पड़ता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें द्वेष हैं वह वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है| बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो| परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मई २०१९

स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर को नमन !!

 स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर को नमन !!

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आज से २५२८ वर्ष, यानि ईसा से ५०७ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को केरल प्रांत के कालड़ी ग्राम में विश्व की एक महानतम प्रतिभा का जन्म हुआ जो कालांतर में आचार्य शंकर के नाम से प्रसिद्ध हुई। इनके पिता का नाम शिवगुरू तथा माता का नाम आर्याम्बा था। ८ वर्ष की आयु में ओंकारेश्वर के पास नर्मदा तट पर आचार्य गोविंदपाद से कार्तिक शु0 ११ को आपने सन्यास ग्रहण किया। आपके जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। आप शाक्षात शिव ही थे।
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मनोबुद्धय्हंकार चित्तानि नाहं
श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥1॥
मैं न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ न ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ न ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः
न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥2॥
मैं न प्राण चेतना हूं‚ न ही ह्यशरीर को चलाने वालीहृ पञ्च वायु हूं
मैं न ह्यशरीर का निर्माण करने वालीहृ सात धातुएं हूं‚ और न ही ह्यशरीर केहृ पाँच कोश
मैं न वाणी हूं‚ न हाथ हूं‚ न पैर‚ न ही विसर्जन की इंद्रियां हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः
न धर्मो न चार्थोन कामो न मोक्षः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥3॥
न मुझे किसी से वैर है‚ न किसी से प्रेम‚ न मुझे लोभ है‚ न मोह
न मुझे अभिमान है‚ न ईष्र्या
मैं धर्म‚ धन‚ लालसा एवं मोह से परे हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं
न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञः
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥4॥
मैं पुण्य‚ पाप‚ सुख और दुख से विलग हूं
न मैं मंत्र हूं‚ न तीर्थ‚ न ज्ञान‚ न ही यज्ञ
न मैं भोजन हूं‚ न ही भोगने योग्य हूं‚ और न ही भोक्ता हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥5॥
न मुझे मृत्यु का डर है‚ न जाति का भय
मेरा न कोई पिता है‚ न माता‚ न ही मैं कभी जन्मा था
मेरा न कोई भाई है‚ न मित्र‚ न गुरु‚ न शिष्य
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
न चासंगत नैव मुक्तिर्न मेयः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम ॥6॥
मै निर्विकल्प हूं‚ निराकार हूं
मैं विचार विमुक्त हूं‚ और सर्व इंद्रियों से पृथक हूं
न मैं कल्पनीय हूं‚ न आसक्ति हूं‚ न ही मुक्ति हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि‚ अनंत हूं‚ अमर हूं।
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∼ आदि शंकराचार्य १७ मई २०२१

हमें सुख और शांति कैसे मिले? ---

यह हमारी शाश्वत और सनातन जिज्ञासा है कि जीवन में हमें सुख और शांति कैसे मिले। हम सब सुख और शांति को प्राप्त करना चाहते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय को गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम १२ श्लोकों में बहुत बहुत अच्छी तरह से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन में सुख और शांति उसी को प्राप्त होती है जिसकी प्रज्ञा स्थिर है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही सुख और शांति को प्राप्त कर सकता है, और स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है।
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हम शाश्वत आत्मा हैं, जिसका निरंतर पुनर्जन्म अपने कर्मफलों को भोगने के लिए होता रहता है। हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं। जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं। यह सनातन धर्म, और सनातन सत्य है।
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पुनर्जन्म का मुख्य कारण राग-द्वेष है। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते हैं। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ हो सकता है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर है वह स्थितप्रज्ञ और जीवनमुक्त है। गीता में भगवान कहते हैं --
"तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:६१॥"
अर्थात् -- उन सब इन्द्रियों को संयमित कर युक्त और मत्पर होवे। जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है॥
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भगवान आगे कहते हैं कि --
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है॥
क्रोध से मोह, और मोह से स्मृति विभ्रम होता है। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है॥
आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रसाद) प्राप्त करता है॥
प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है॥
(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ?
जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है, वह एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा को हर लेती है॥
इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वदा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है॥
सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जानने वाले मुनि की दृष्टिमें रात है॥
जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं॥
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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अब प्रश्न उठता है कि आगे क्या किया जाये? इसका पूरा मार्गदर्शन गीता में है। सिर्फ उसके पाठ मात्र से कुछ नहीं होता, उसका आचरण करना होगा। भगवान ने हमें पूरा मार्गदर्शन दिया है। फिर भी यदि कोई कमी है तो वह हमारी है, भगवान की नहीं।
ॐ तत्सत् !!
१७ मई २०२३

भगवान के साथ सत्संग और उपासना ---

 भगवान के साथ सत्संग और उपासना ---

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सामने भगवान श्रीकृष्ण अपनी शांभवी मुद्रा में बैठे हैं। खेचरी भी लगा रखी है। दृष्टिपथ भ्रूमध्य में, और दृष्टि अनंत कूटस्थ में। उनकी मनमोहक छवि अवर्णनीय है। देखकर रहा नहीं जा रहा है। मैं अपनी सारी चेतना के साथ कूदकर उनमें ही समाहित हो जाता हूँ।
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अब वे निरंतर मेरे हृदय (समर्पित अन्तःकरण -- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में बिराजे हैं। मैं जब चलता हूँ तो वे मेरे साथ साथ चलते हैं, मैं सोता हूँ तो वे मेरे अन्तःकरण में ही सोते हैं। वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, इन कानों से वे ही सुन रहे हैं, इस भौतिक हृदय में भी वे ही धडक रहे हैं।
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आगे की कुछ बातें परम गोपनीय हैं जो हर किसी को बताई नहीं जा सकतीं।
यही मेरा भगवान के साथ सत्संग है। आप सब भी मेरे साथ एक हैं। जब तक भगवान मेरे साथ हैं, सब कुछ मेरे साथ है। जब यह शरीर छूट जाएगा, तब उन्हीं के साथ रहूँगा। इस शरीर में आने पूर्व भी उन्हीं के साथ था। इस जन्म में माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-संबंधी, शत्रु-मित्र आदि वे ही बन कर आए; और उन सब से मिला प्रेम उन्हीं का प्रेम था। उनका और मेरा साथ शाश्वत है। वे ही समस्त विश्व हैं, और वे ही यह "मैं" बन गये हैं। यही मेरा नित्य नियमित सत्संग है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मई २०२४

भगवान का इतना ऋण है कि उस से कभी उऋण नहीं हो सकता, सिर्फ समर्पित ही हो सकता हूँ, और कुछ भी मेरे बस में नहीं है.

 भगवान का इतना ऋण है कि उस से कभी उऋण नहीं हो सकता, सिर्फ समर्पित ही हो सकता हूँ, और कुछ भी मेरे बस में नहीं है.

भगवान की इस से बड़ी कृपा और क्या हो सकती है कि उन्होंने मुझे अपना उपकरण बनाया. वे ही मेरे माध्यम से स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं. इस ह्रदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही साँसे ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, कानों से वे ही सुन रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे है, और इन हाथों से महाबाहू वे ही सारा कार्य कर रहे हैं. वास्तव में मैं तो हूँ ही नहीं, यह पृथकता का बोध एक मिथ्या आवरण है. सारा अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त अहंकार) व सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं. उनकी पूर्णता का बोध सदा बना रहे. ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०१९

"पुरुषोत्तम योग" के आरंभिक ६ श्लोकों में योग-साधना के सारे सूत्र समाहित हैं ---

वैसे तो पूरी गीता ही योग शास्त्र है, लेकिन उसके १५ वें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" के आरंभिक ६ श्लोकों में योग-साधना के सारे सूत्र समाहित हैं। लेकिन वे भगवान की कृपा से ही समझ में आ सकते हैं। उन्हें बौद्धिक रूप से समझने मात्र का ही नहीं, निज जीवन में अवतरित कीजिए।

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मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह सबसे पहिले दूसरों की कमी देखता है। मेरे में लाख कमियाँ होंगी, लेकिन उनसे किसी अन्य की कोई हानि नहीं होगी, अतः मेरी कमियों की चिंता छोड़ दें, उनके लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ, कोई अन्य नहीं। अपनी स्वयं की कमियों को दूर करने का प्रयास करें। मेरे में लाखों कमियाँ हैं, लेकिन मैं हर समय ईश्वर की चेतना में रहता हूँ, यही मेरा एकमात्र गुण है। मैं स्वयं को सदा ईश्वर के सन्मुख पाता हूँ। मेरी बुराई करने से मेरी बुराइयों के अतिरिक्त किसी को कुछ भी नहीं मिलेगा। यदि देखना है तो ईश्वर में स्वयं को देखो।
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भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं कि "संसार से विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का तत्त्व जानने का अधिकार है, अन्य को नहीं"। उनका युग दूसरा था। उस समय समाज में इतने अभाव और कष्ट नहीं थे, जितने अब हैं। इसलिए परमात्मा की कृपा भी इस युग में शीघ्र ही हो जाती है।
१६ मई २०२३