ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ...
मेरे बड़े भाई साहब डॉ.दया शंकर बावलिया को महान उनके जीवन में प्रस्फुटित वेदान्त दर्शन ने बनाया| वे सदा हँसमुख और प्रसन्न रहते थे, किसी ने उन को कभी उदास या अप्रसन्न नहीं देखा| वे अपने पास उपचार के लिए आए हुए रोगियों की सेवा ईश्वर-सेवा मान कर ही करते थे| वे एक प्रख्यात नेत्र चिकित्सक (Ophthalmologist) तो थे ही, एक समाजसेवी भी थे| भारतवर्ष और
सनातन धर्म/संस्कृति से उन्हें बहुत प्रेम था| पुस्तकों को पढ़ने के वे बहुत शौकीन थे| उनके पास अपनी स्वयं की पुस्तकों का विशाल संग्रह था| लेकिन पिछले अनेक वर्षों से वे सिर्फ उपनिषदों व उन के शंकर-भाष्य का ही स्वाध्याय कर रहे थे| कुछ दिनों पूर्व ही उन्होने दुबारा श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय आरंभ किया था| उनकी साधना भी गुप्त और अज्ञात ही थी|
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अपने आध्यात्मिक जीवन का आरंभ उन्होने अपने से वरिष्ठ नेत्र-चिकित्सक डॉ.योगेश चन्द्र मिश्र (पीतांबरा पीठ, दतिया के स्वामीजी महाराज के शिष्य) से बगलामुखी दीक्षा लेकर आरंभ किया था| संत-सेवा भी उनके स्वभाव में थी| रामानंदी संप्रदाय के एक विद्वान सिद्ध संत अवधेश दास (औलिया बाबा) जी महाराज से उन्हें विशेष प्रेम था| उन की उन्होने खूब सेवा की| जयपुर ले जा कर अच्छे से अच्छे अस्पतालों में उनका उपचार करवाया था| नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत रतिनाथ जी से भी उनका विशेष प्रेम और खूब मिलना-जुलना था| क्षेत्र के सभी संत-महात्माओं से उनके बहुत अच्छे संबंध और प्रेम-भाव था|
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रा.स्व.से.संघ के वे सीकर विभाग (झुंझुनूँ , चुरू व सीकर जिलों के) के संघ-चालक थे| यह भी अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी| उनकी मनोकामना थी कि भारतवर्ष अपने परम वैभव के साथ एक आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र बने|
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जिस ब्राह्मण समाज में उन्होने जन्म लिया उसकी दुर्दशा से वे बहुत अधिक व्यथित थे| समाज के युवकों में व्याप्त नशाखोरी, अशिक्षा, धर्मविमुखता आदि को दूर करने के लिए उन्होने उनमें एक आत्मविश्वास जगाया| हमारे यहाँ का ब्राह्मण समाज उन्हें अपना सबसे बड़ा संरक्षक ही मानता था|
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अपने सच्चिदानंद स्वभाव में स्थिति को ही वे मोक्ष मानते थे, अन्यथा आत्मा तो नित्य मुक्त है| मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि ईशावास्योपनिषद के पहले और सत्रहवें श्लोक से देता हूँ ...
"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ||१||"
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||१७||"
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ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते | ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
२३ सितंबर २०२०