Monday, 22 September 2025

पित्तरों के देवता भगवान अर्यमा का ध्यान व उनकी अनुभूति .....

 पित्तरों के देवता भगवान अर्यमा का ध्यान व उनकी अनुभूति .....

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्| पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्||१०:२९||
अर्थात् मैं नागों में अनन्त (शेषनाग) हूँ और जल देवताओं में वरुण हूँ; मैं पितरों में अर्यमा हँ और नियमन करने वालों में यम हूँ||
पितृलोक में पित्तरों के देवता भगवान अर्यमा हैं| पुण्यात्माओं का वे ही कल्याण करते हैं| यदि हम पूर्ण भक्ति भाव से उनका गहरा ध्यान करें तो वे निश्चित रूप से अपनी उपस्थिती का आभास कराते हैं और हमारे किसी प्रश्न का उत्तर भी दे सकते हैं| इस तरह की अनुभूति मुझे भी हुई है, और मेरे एक प्रश्न का उत्तर भी उनसे मिला है|
"ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः| ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय||"
अर्थात् पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ हैं| अर्यमा पितरों के देव हैं| अर्यमा को प्रणाम|
हे पिता, पितामह, और प्रपितामह; हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम| आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें||
23 सितंबर 2020

हम जीवात्म भाव से मुक्त हों ...

 हम जीवात्म भाव से मुक्त हों ...

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हे मनमोहन भगवान वासुदेव, हमारा मन तुम्हारे ही श्रीचरणों में ही समर्पित हो, तुम्हें छोड़कर यह मन अन्यत्र कहीं भी नहीं भागे| तुम ही गुरु हो और तुम ही परमशिव और परमगति हो| तुम्हारे ही आदेश हैं ...
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्| यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्||९:२७||"
अर्थात् हे कौन्तेय तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो|
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"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
अर्थात् तूँ मुझ में ही मन और चित्त लगा, मेरा ही भक्त यानि मेरा ही भजन पूजन करने वाला हो, तथा मुझे ही नमस्कार कर| इस प्रकार करता हुआ तूँ मुझ वासुदेव में अपने साधन और प्रयोजन को समर्पित कर के मुझे ही प्राप्त होगा| मैं तुझ से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तूँ मेरा प्रिय है|
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
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इस नश्वर देह के साथ हमारा संबंध सिर्फ कर्मफलों का है| इस जन्म में किये हुए सकाम कर्मफलों को भोगने के लिए फिर से देह धारण करनी होगी| इसमें हमारी इच्छा नहीं चलती, सब कुछ प्रकृति के नियमों के अनुसार होता है| हमें कर्म करने का अधिकार है पर उनके फलों को भोगने में हम स्वतंत्र नहीं हैं| उनका फल भुगतने के लिए प्रकृति हमें बाध्य कर देती है| हमारे सारे सगे-सम्बन्धी, माता-पिता, संतानें, शत्रु-मित्र ..... सब पूर्व जन्मों के कर्मफलों के आधार पर ही मिलते हैं| अतः जिस भी परिस्थिति में हम हैं वह अपने ही कर्मों का भोग है, अतः कोई पश्चात्ताप न करके इस दुश्चक्र से निकलने का प्रयास करते रहना चाहिए|
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इस निरंतर हो रहे जन्म-मरण के दुश्चक्र से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम तो हमें परमात्मा को स्थायी रूप से अपने हृदय में बैठाना होगा, और परमप्रेम से उनको समर्पित होना होगा| फिर सतत् दीर्घकाल की साधना द्वारा कर्ताभाव और देहबोध से मुक्त होना होगा|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०२०

ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ...

 ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ...


मेरे बड़े भाई साहब डॉ.दया शंकर बावलिया को महान उनके जीवन में प्रस्फुटित वेदान्त दर्शन ने बनाया| वे सदा हँसमुख और प्रसन्न रहते थे, किसी ने उन को कभी उदास या अप्रसन्न नहीं देखा| वे अपने पास उपचार के लिए आए हुए रोगियों की सेवा ईश्वर-सेवा मान कर ही करते थे| वे एक प्रख्यात नेत्र चिकित्सक (Ophthalmologist) तो थे ही, एक समाजसेवी भी थे| भारतवर्ष और सनातन धर्म/संस्कृति से उन्हें बहुत प्रेम था| पुस्तकों को पढ़ने के वे बहुत शौकीन थे| उनके पास अपनी स्वयं की पुस्तकों का विशाल संग्रह था| लेकिन पिछले अनेक वर्षों से वे सिर्फ उपनिषदों व उन के शंकर-भाष्य का ही स्वाध्याय कर रहे थे| कुछ दिनों पूर्व ही उन्होने दुबारा श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय आरंभ किया था| उनकी साधना भी गुप्त और अज्ञात ही थी|
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अपने आध्यात्मिक जीवन का आरंभ उन्होने अपने से वरिष्ठ नेत्र-चिकित्सक डॉ.योगेश चन्द्र मिश्र (पीतांबरा पीठ, दतिया के स्वामीजी महाराज के शिष्य) से बगलामुखी दीक्षा लेकर आरंभ किया था| संत-सेवा भी उनके स्वभाव में थी| रामानंदी संप्रदाय के एक विद्वान सिद्ध संत अवधेश दास (औलिया बाबा) जी महाराज से उन्हें विशेष प्रेम था| उन की उन्होने खूब सेवा की| जयपुर ले जा कर अच्छे से अच्छे अस्पतालों में उनका उपचार करवाया था| नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत रतिनाथ जी से भी उनका विशेष प्रेम और खूब मिलना-जुलना था| क्षेत्र के सभी संत-महात्माओं से उनके बहुत अच्छे संबंध और प्रेम-भाव था|
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रा.स्व.से.संघ के वे सीकर विभाग (झुंझुनूँ , चुरू व सीकर जिलों के) के संघ-चालक थे| यह भी अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी| उनकी मनोकामना थी कि भारतवर्ष अपने परम वैभव के साथ एक आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र बने|
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जिस ब्राह्मण समाज में उन्होने जन्म लिया उसकी दुर्दशा से वे बहुत अधिक व्यथित थे| समाज के युवकों में व्याप्त नशाखोरी, अशिक्षा, धर्मविमुखता आदि को दूर करने के लिए उन्होने उनमें एक आत्मविश्वास जगाया| हमारे यहाँ का ब्राह्मण समाज उन्हें अपना सबसे बड़ा संरक्षक ही मानता था|
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अपने सच्चिदानंद स्वभाव में स्थिति को ही वे मोक्ष मानते थे, अन्यथा आत्मा तो नित्य मुक्त है| मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि ईशावास्योपनिषद के पहले और सत्रहवें श्लोक से देता हूँ ...
"ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत |
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ||१||"
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् |
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ||१७||"
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ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते | ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
२३ सितंबर २०२०