क्या यह संसार नष्ट हो जाएगा, और दुबारा सृष्टि की रचना होगी? क्या दूसरे लोकों के अधिक उन्नत प्राणी आकर इस पृथ्वी पर अपना अधिकार कर लेंगे? ---
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कुछ भी हो सकता है। जो होगा वह ईश्वर की इच्छा से ही और हम सब के कल्याण के लिए ही होगा। आध्यात्मिक उपदेश और ज्ञान वहीं देना चाहिए जहाँ उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास-निष्ठा और वास्तव में आवश्यकता हो। श्रोता की भी पात्रता होती है। जब उपस्थित समूह अपने दुराग्रह या अज्ञान से किसी मत विशेष या उसके प्रणेता को ही अंतिम मानते हैं, तब उनके मध्य अपनी विचारधारा की बात कहना एक मूर्खता मात्र है। अपनी बात वहीं कहनी चाहिए जहाँ श्रोताओं में सत्य को जानने की एक गूढ़ जिज्ञासा हो, न कि एक बौद्धिक अभिरुचि मात्र।
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धर्म और आध्यात्म -- बलशाली और समर्थवान व्यक्तियों के लिए हैं, शक्तिहीनों के लिए नहीं। बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती -- "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्।" (मुण्डकोपनिषद् ३/२/४)
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इस संसार ने मुझे आनंद का प्रलोभन दिया था, लेकिन मिला सिर्फ छल-कपट और झूठ। इसलिए सारी आस्थाएँ अब सब ओर से हटकर केवल ईश्वर में ही प्रतिष्ठित हो गई हैं। किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं रही है। किसी से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं है। यह संसार यदि नष्ट हो जाये या दूसरे लोकों के प्राणी आकर इस पर अपना अधिकार भी कर लें तो मुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।
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झंझावात में खड़े इस अकेले व्यक्ति की तरह मैं अकेला नहीं हूँ। यह अंधकार भी मेरे ही अस्तित्व का एक भाग है जिसके बिना सृष्टि नहीं चल सकती। पूरी सृष्टि अंधकार और प्रकाश का ही एक खेल है। मेरे साथ हर समय भगवान हैं, जिन से प्रेम ही मेरा अस्तित्व है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२३