आत्मा में स्थित कैसे हों ? ---
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण, और उपनिषदों के ऋषि बार बार हमें आत्मा में स्थित होने का उपदेश देते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें निस्त्रैगुण्य, निर्द्वंद्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, और आत्मवान होने का उपदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
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इसका स्पष्ट उत्तर देना चाहूँगा कि यह एक गुरु द्वारा सिखाई जाने वाली विद्या है। सिर्फ पुस्तक में पढ़कर आप किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते। आत्मा में स्थित होकर ही आध्यात्म में प्रवेश हो सकता है। कुछ प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान आदि की क्रियाएँ हैं जो हमें आत्मा में स्थित कर सकती हैं। वे सीखने के लिए एक सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय सदगुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है।
इनका थोड़ा-बहुत अभ्यास भी महाभय से हमारी रक्षा करता है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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पुनश्च: -----
भगवान श्रीकृष्ण के अमृत वचन जिन्होंने सदा मार्गदर्शन किया ---
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् --
यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।
योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
०७ नवंबर २०२४