मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण मनुष्य का "लोभ और अहंकार" है। अन्य सब बुराइयाँ इनके पीछे-पीछे चलती हैं। मनुष्य की काम-वासना भी लोभ और अहंकार के अंतर्गत ही आती है। इनसे बचने का उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है।
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जिसको प्यास लगती है वही जल पीता है। भगवान भी आध्यात्म रूपी जल उन्हीं मुमुक्षुओं को प्रदान करते हैं, जिनमें अभीप्सा रूपी प्यास है। अन्य को उपदेश देना मूर्खता है। राग-द्वेष आदि का कारण भी हमारा लोभ और अहंकार है।
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एक बार कुछ युवाओं (जो ध्यान आदि का अभ्यास करते थे) को मैंने विश्वास में लेकर पूछा कि ध्यान में उन्हें क्या अनुभूतियाँ होती हैं? उनके जीवन का लक्ष्य क्या है? लगभग सभी का उत्तर था कि उनके ध्यान का उद्देश्य अपनी एकाग्रता को बढ़ाना है ताकि खूब धन एकत्र कर सकें, न कि ईश्वर की प्राप्ति। उन्होने कहा कि गुरुजी तो कहते हैं कि भगवान की ज्योति का भ्रूमध्य में ध्यान करो, लेकिन हमें तो ध्यान में सुंदर युवतियाँ और युवक ही दिखाई देते हैं, जिन के साथ मौज-मस्ती के लिए धन चाहिए। उसी धन यानि रुपये-पैसे की प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। भगवान की उपयोगिता यही है कि वह हमें विषय-वासना के साधन, हमारी इच्छाओं की पूर्ति, और धन प्रदान करे, व हमारी रक्षा करे। बाकी कुछ भी भगवान से नहीं चाहिए।
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यह कलियुग का लक्षण है जहाँ वेद, ब्राह्मणों और धर्म का सबसे अधिक विरोध और अहित होता है। फिर भी धर्म का कुछ अंश बचा रहता है। धर्म की रक्षा का वचन भगवान ने दिया है, अतः जब बचे-खुचे धर्म पर प्रहार होता है तो इस सृष्टि का विनाश ही होगा, और भगवान नए सिरे से सृष्टि की रचना करेंगे।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिये हैं। ये लक्षण जिस दर्शन में हैं, वही धर्म है, बाकी सब अधर्म है।
१३ जून २०२३