Thursday, 12 June 2025

मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण मनुष्य का "लोभ और अहंकार" है।

 मनुष्य के पतन का सबसे बड़ा कारण मनुष्य का "लोभ और अहंकार" है। अन्य सब बुराइयाँ इनके पीछे-पीछे चलती हैं। मनुष्य की काम-वासना भी लोभ और अहंकार के अंतर्गत ही आती है। इनसे बचने का उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है।

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जिसको प्यास लगती है वही जल पीता है। भगवान भी आध्यात्म रूपी जल उन्हीं मुमुक्षुओं को प्रदान करते हैं, जिनमें अभीप्सा रूपी प्यास है। अन्य को उपदेश देना मूर्खता है। राग-द्वेष आदि का कारण भी हमारा लोभ और अहंकार है।
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एक बार कुछ युवाओं (जो ध्यान आदि का अभ्यास करते थे) को मैंने विश्वास में लेकर पूछा कि ध्यान में उन्हें क्या अनुभूतियाँ होती हैं? उनके जीवन का लक्ष्य क्या है? लगभग सभी का उत्तर था कि उनके ध्यान का उद्देश्य अपनी एकाग्रता को बढ़ाना है ताकि खूब धन एकत्र कर सकें, न कि ईश्वर की प्राप्ति। उन्होने कहा कि गुरुजी तो कहते हैं कि भगवान की ज्योति का भ्रूमध्य में ध्यान करो, लेकिन हमें तो ध्यान में सुंदर युवतियाँ और युवक ही दिखाई देते हैं, जिन के साथ मौज-मस्ती के लिए धन चाहिए। उसी धन यानि रुपये-पैसे की प्राप्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं। भगवान की उपयोगिता यही है कि वह हमें विषय-वासना के साधन, हमारी इच्छाओं की पूर्ति, और धन प्रदान करे, व हमारी रक्षा करे। बाकी कुछ भी भगवान से नहीं चाहिए।
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यह कलियुग का लक्षण है जहाँ वेद, ब्राह्मणों और धर्म का सबसे अधिक विरोध और अहित होता है। फिर भी धर्म का कुछ अंश बचा रहता है। धर्म की रक्षा का वचन भगवान ने दिया है, अतः जब बचे-खुचे धर्म पर प्रहार होता है तो इस सृष्टि का विनाश ही होगा, और भगवान नए सिरे से सृष्टि की रचना करेंगे।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिये हैं। ये लक्षण जिस दर्शन में हैं, वही धर्म है, बाकी सब अधर्म है।
१३ जून २०२३

मेरा बाकी बचा हुआ सारा जीवन परमात्मा को समर्पित है, जो होगा सो देखा जायेगा ---

 विश्व में घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की अनेक बहुत अधिक महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनका प्रभाव सीधा भारत पर पड़ता है।

लेकिन अब से मैं अपने नये निर्णय के अनुसार सिर्फ आध्यात्म और भक्ति पर ही लिखूंगा, किसी अन्य विषय पर नहीं। यह निर्णय मैंने दो दिनों पूर्व ही लिया था।
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मेरी पूरी आस्था, श्रद्धा और विश्वास, अब अन्य सब ओर से हट कर सिर्फ परमात्मा में ही स्थिर हैं। मुझे सारी प्रेरणा श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों से ही मिलती है। क्रियायोग और श्रीविद्या की साधना मेरे माध्यम से होती है। वेदांगों के स्वाध्याय का कभी अवसर नहीं मिला, इसलिए वेदों को समझने की बौद्धिक क्षमता मुझ में नहीं है। वेदों को मैं अंतिम प्रमाण मानता हूँ। मैं पूरी तरह सनातन धर्मावलम्बी आस्तिक हिन्दू ब्राह्मण हूँ।
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मेरी भौतिक आयु ७७+ वर्ष है। किसी से अनावश्यक बात नहीं करता। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में अब कोई रुचि नहीं है। परमात्मा की परम कृपा से मुझे पता है कि मुझे क्या करना है, किसी के मार्गदर्शन की मुझे आवश्यकता नहीं है। मेरा बाकी बचा हुआ सारा जीवन परमात्मा को समर्पित है। जो होगा सो देखा जायेगा। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२४

भगवान ने गीता और रामायण में जब इतने बड़े शाश्वत वचन दिये हैं तब और क्या चाहिए ?

 भगवान ने गीता और रामायण में जब इतने बड़े शाश्वत वचन दिये हैं तब और क्या चाहिए ?

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
"ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् --
"मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥"
"यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥"
"हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है, और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥"
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वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम कहते हैं --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥६-१८-३३॥"
अर्थात् --
जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है॥
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अब भगवान को शरणागति द्वारा समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प मेरे पास नहीं है। उनकी जय हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२४