Sunday, 18 May 2025

"ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- (भाग २)

 

"ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- (भाग २)
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"जब हम भगवान को पाने के लिये अपनी पूर्ण क्षमता से प्रयास करते हैं तब भगवान भी हम से बहुत प्रसन्न होते हैं, और अपने रहस्य अनावृत करने लगते हैं। पिछले लेख में हमने गीता के पंद्रहवें अध्याय पुरुषोत्तम योग के प्रथम श्लोक की विवेचना की थी, जो सर्वाधिक रहस्यमय है। अब वह रहस्य, रहस्य नहीं रहा है। धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा हम और आगे बढ़ेंगे। दूसरे, तीसरे और चौथे श्लोकों में भगवान कहते हैं --
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
अर्थात् - उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं; (पंच) विषय इसके अंकुर हैं; मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं ॥१५:२॥"
इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर --- ॥१५:३॥"
--- उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"॥१५:४॥"
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भगवान श्रीकृष्ण का यह संदेश लक्षणात्मक शैली में है। भगवान् श्रीकृष्ण जब कहते हैं कि इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे की ओर फैली हुईं हैं, इसका तात्पर्य - देवता, मनुष्य, पशु इत्यादि योनियों से है। "अध" और "ऊर्ध्व" इन दो शब्दों से इन्हीं दो दिशाओं की ओर निर्देश किया गया है।
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जीवों की ऊर्ध्व या अधोगामी प्रवृत्तियों का पोषण प्रकृति के सत्त्व, रज, और तम -- इन तीन गुणों के द्वारा किया जाता है। किसी भी वृक्ष की शाखाओं पर अंकुर या कोपलें होती हैं जहाँ से नई शाखाएं फूटकर निकलती हैं। यहाँ इस रूपक में इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों को प्रवाल यानि अंकुर कहा गया है।
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इस वृक्ष की गौण जड़ें नीचे फैली हुई हैं। परमात्मा तो इस संसार वृक्ष का अधिष्ठान होने से इसका ऊर्ध्वमूल है, किन्तु इसकी अन्य जड़ें भी हैं जो इस वृक्ष के अस्तित्व को बनाये रखती हैं। हमारे मन में नए नये संस्कार और वासनाएँ अंकित होती रहती हैं। ये वासनाएँ ही अन्य जड़ें हैं, जो मनुष्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिये कर्मों में प्रेरित करती रहती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का कारण भी ये वासनाएँ ही हैं।
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यह जो संसारवृक्ष है --, इसका आदि, अंत और मध्य कहीं भी नहीं दिखाई देता। भगवान उसे असङ्गतारूप शस्त्र के द्वारा काटने का आदेश देते हैं। अभी समझना पड़ेगा कि असंगता क्या है?
आचार्य शंकर के अनुसार "पुत्रैषणा (पुत्र की कामना), वित्तैषणा (धन की कामना), और लोकैषणा (लोकों में प्रसिद्धि की कामना) से उपराम हो जाना ही असङ्ग है।"
ऐसे असङ्गशस्त्र से इस संसारवृक्ष को बीजसहित उखाड़कर फेंक देना है।
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लेकिन असंगत्व शब्द का एक दूसरा भी अर्थ मुझे समझ में आ रहा है। वैराग्य को भी हम असंगत्व कह सकते हैं। अनन्य-योग के द्वारा हम कैवल्य पद को प्राप्त कर सकते हैं, यह भी असंगत्व है।
उपासना के समय भगवान जैसी भी प्रेरणा दें, वैसा ही करना चाहिए। मुख्य बात है समर्पण और भक्ति। लेकिन इस संसार-वृक्ष को कैसे भी उखाड़कर फेंक देना है। यह अति गहन साधना द्वारा ही संभव है।
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यह संसार वृक्ष (अश्वत्थ वृक्ष) कोई लौकिक वृक्ष नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत का प्रतीक है। कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि, अन्त, या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष हमारे अज्ञान से उत्पन्न होता है, और इसका अस्तित्व वासनाओं के कारण है। आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र "असंग" अर्थात् वैराग्य है। शरीर, मन और बुद्धि से परे जाकर, यानि इन से भी ऊपर उठ कर, यदि हम ध्यान करेंगे तो वैराग्य जागृत होगा। यह वैराग्य ही असंग अस्त्र है। वैराग्य का एक अर्थ -- राग से विमुखता भी है।
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भगवान हमें उस पद का अन्वेषण करने का उपदेश देते हैं, जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुनः बापस लौटते नहीं है। साधक को अपना ध्यान ऊर्ध्वमूल परमात्मा में लगाना चाहिये, जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है। हम इस उपदेश का पालन कैसे करें? इसका एकमात्र उपाय है शरणागति और प्रार्थना -- जिसका निर्देश चौथे श्लोक के अन्त में किया गया है कि -- मैं उस आदि पुरुष की शरण में हूँ, जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।
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अब अंतिम बात यह है कि हम "ऊर्ध्वमूल परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान कैसे करें।" यह बात साधक को उसकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार ही आचार्य द्वारा बताई जाती है। उस की सार्वजनिक चर्चा का निषेध है। फिर भी भगवान से आर्त प्रार्थना करने पर किसी न किसी माध्यम से भगवान इसे बता ही देते हैं। सुपात्र साधक को बताने में कोई दोष नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
== इति ==
दो भागों की इस शृंखला का समापन आचार्य शंकर के इन वचनों से कर रहा हूँ --
"सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥"
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मेरे से किसी भी तरह की कोई भूलचूक हुई हो तो मुझे क्षमा करें।
कृपा शंकर
२० मई २०२४

"ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- (भाग १)

"ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- (भाग १)
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"स्थायी रूप से अपना ध्यान सच्चिदानंद ब्रह्म परमात्मा में केन्द्रित करने से सुख-दुःख रूपी सभी अनुभूतियाँ नष्ट हो जाती हैं। हम उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभूत होते हैं।"
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यह लेख सिर्फ वे ही समझ सकते हैं जो यम-नियमों का पालन करते हुए, व्यवसायात्मिका बुद्धि से नित्य नियमित परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान करते हैं। यह बुद्धि का नहीं, अनुभव का विषय है। गीता के पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में ही भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
अर्थात् -- श्री भगवान् ने कहा -- ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं, जिसके पर्ण छन्द - वेद हैं, ऐसे संसार वृक्ष को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
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इस सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है, उस सब का कारण इस संसार रूपी वृक्ष का अत्यंत सूक्ष्म ऊर्ध्वमूल है। बहुत गहरे ध्यान में हम इसकी अनुभूति भी कर सकते हैं, और देख भी सकते हैं। यह नित्य और महान है। यह ऊर्ध्वमूल ही ब्रह्म है जो चिंतन व समझने का विषय है। एक बार इसकी अनुभूति हो जाये तो फिर वहीं उसी में रहना चाहिए, नीचे नहीं उतरना चाहिए। इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व है, जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है।
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जिस प्रकार किसी भी वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से प्राप्त होता है, उसी प्रकार जीव और जगत दोनों को अपना आधार और पोषण अनन्त ब्रह्म से ही प्राप्त होता है। अनंत ब्रह्म परमात्मा को ही यहाँ "ऊर्ध्व" कहा गया है। इसे समझाने के लिए ही अश्वत्थ वृक्ष की उपमा दी गई है। जो भी मुमुक्षु इस सत्य-स्वरूप ऊर्ध्वमूल को समझता है, वह वास्तव में वेदवित् है। ज्ञानी पुरुष वह है जो इस नश्वर संसार-वृक्ष तथा इसके शाश्वत ऊर्ध्वमूल परमात्मा को भी समझता है।
ॐ तत्सत्॥
(सावशेष) १९ मई २०२४
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(जब भी भगवान पुरुषोत्तम की विशेष कृपा होगी तभी आगे लिख पाऊँगा। कुछ भी समझने और उसे लिखने के लिए धैर्य, समय और भगवान की कृपा चाहिए।)

"श्री" एक वेदिक शब्द है। इस शब्द का मुख्य अर्थ क्या होता है?

 "श्री" एक वेदिक शब्द है। इस शब्द का मुख्य अर्थ क्या होता है?

'श' का अर्थ श्वास-प्रश्वास भी हो सकता है। 'र' अग्निबीज है। 'ई' शक्तिबीज है। मुख्यतः इसका प्रयोग भगवती लक्ष्मी के लिए होता है। भगवान के अवतारों के साथ भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं।
पुनश्च: -- रामचरितमानस में सीताजी की वंदना में -- "सर्वश्रेयस्करीं" शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका तात्पर्य है कि वे 'श्री' और यश को प्रदान करने वाली हैं। एक 'श्री संप्रदाय' भी है। वृंदावन के भक्त, भगवती श्रीराधाजी को ही 'श्री' मानते हैं। तंत्र में दस महाविद्याओं के साधक भगवती श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी को 'श्री' कहते हैं। ऋग्वेद में १५ मंत्रों का श्रीसूक्त है जो लक्ष्मी जी की आराधना हेतु है। गुरु शब्द के साथ भी श्री (श्रीगुरु) शब्द का प्रयोग होता है। विष्णु के सभी अवतारों के साथ श्री शब्द का प्रयोग होता है, जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि। हनुमान जी के साथ भी श्री शब्द का प्रयोग होता है, जैसे श्रीहनुमान। सभी देवियों के नामों के साथ भी श्री शब्द का प्रयोग होता है।
भारत में सभी पुरुषों के नामों के साथ 'श्री' शब्द का प्रयोग होता है। मेरा प्रश्न यह है कि 'श्री' शब्द का सर्वमान्य अर्थ क्या हो सकता है?
२० अप्रैल २०२५

पुण्य, पाप और धर्म क्या है ?

पुण्य, पाप और धर्म क्या है ? --- जो कर्म आत्म-तत्व का बोध करायें, वे मेरे लिए पुण्य हैं। जो कर्म मुझे आत्म-तत्व को विस्मृत करायें, वे मेरे लिए पाप हैं। निज जीवन में परमात्मा की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति" ही धर्म है। यही मेरा प्राण, और मेरी अस्मिता है।
. भगवान मिलें या न मिलें, इस बारे सोचना ही छोड़ दें। भगवान तो मिले हुए ही हैं। भगवान कहीं दूर नहीं, हमारे साथ एक हैं। किसी भी शिवालय में भगवान शिव के वाहन नंदी का मुंह सदा शिवलिंग की ओर ही होता है। अतः हमारी दृष्टी निज-आत्मा यानी आत्म-तत्व (कूटस्थ) की ओर ही हर समय होनी चाहिए क्योंकि हमारी यह देह हमारी आत्मा का वाहन है। .

मैं साँस नहीं ले रहा। स्वयं परमात्मा इस सारी सृष्टि के रूप में मेरे माध्यम से साँस ले रहे हैं।
(I am not breathing -- I am being breathed by the Divine).
यह देह परमात्मा का एक उपकरण है। परमात्मा अपने इस उपकरण से साँस ले रहे हैं। मेरा कुछ होना, यानि पृथकता का बोध -- एक भ्रम मात्र है। मैं और मेरे प्रभु -- एक हैं।

ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
२२ अप्रैल २०२५

जिहादी देश पाकिस्तान, और उसके समर्थकों का अस्तित्व समाप्त हो ---

आज भारत के अनेक स्थानों पर जिहादी आक्रमण के शिकार हिंदुओं की चिताएँ जल रही हैं। उन सब को श्रद्धांजलि। आज शोक का दिन है। कोई खुशी नहीं मना सकते। कश्मीर में पहलगाँव घूमने जाने वाले हिन्दू पर्यटकों के गुप्तांगों की जांच कर, उनका धर्म पूछकर, उनके परिवार के सामने उनकी नृशंस हत्या की गई थी।

जिहादी देश पाकिस्तान, और उसके समर्थकों का अस्तित्व समाप्त हो। एक एक आतंकी और उसके समर्थकों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर समाप्त करना होगा। पाकिस्तान से क्रिकेट खेलने के इच्छुक, और उसके साथ फिल्में बनाने के इच्छुक -- देशद्रोही हैं। हमें हमारे देश भारत से प्यार है। जो भी भारत के हित में होगा, वही करेंगे।
एक-दो आतंकी शिविरों को नष्ट करने से काम नहीं चलेगा। असली अपराधी तो पाकिस्तानी सेना और उसका जनरल मुनीर है। नष्ट ही करना है तो उनका GHQ उड़ाओ, और असली अपराधी और उनकी विचारधारा को ध्वस्त करो। पाकिस्तान की आतंकी सेना का नाश हो। संकट की इस घड़ी में मैं राष्ट्र के साथ हूँ। कश्मीर में हिंदुओं का जहां कल नर-संहार हुआ था, घटना स्थल पर एक भी पुलिस का सिपाही नहीं था। बड़ी फुर्सत से पर्यटकों के नाम पूछकर, उनके नीचे के कपड़े उतरवा कर, उनकी खतना है या नहीं, यह देखकर उनकी पत्नियों और परिवार के सामने उनकी हत्या की गयी। आतंकियों ने किसी की जाति नहीं पूछी, केवल खतना है या नहीं, यही देखा। यह जिहाद था, कोई आतंकवाद नहीं। भारत माता की जय॥ कृपया इसे शेयर या कॉपी/पेस्ट करें।
२४ अप्रेल २०२५

हिंदुओं में यदि संतान उत्पन्न करने की दर यही रही तो अगले ५० वर्षों में भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं ---

 हिंदुओं में यदि संतान उत्पन्न करने की दर यही रही तो अगले ५० वर्षों में भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। फिर हिन्दू -- म्यूजियम में ही दिखेंगे।

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हिंदुओं को अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो विवाह की आयु कम करनी होगी (युवती की 18 से 21 वर्ष, और युवक की 20 से 24)। अपनी आजीविका (Career) विवाह के बाद में भी बना सकते हैं। बहुओं को विवाह के बाद उच्च शिक्षा दिलवाइये।
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हरेक दंपत्ति के कम से कम चार संतान तो होनी ही चाहिये। अपनी संतान को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, व आर्थिक -- हर दृष्टि से सामर्थ्यवान बनायें।
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ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२७ अप्रैल २०२५

हमारे विखंडित बिखरे विचारों के ध्रुव स्वयं सच्चिदानंद हों ---

हमारे विखंडित बिखरे विचारों के ध्रुव स्वयं सच्चिदानंद हों। जो साधक कोई साधना नहीं करता, केवल प्रभावशाली बातें ही करता है, वह संसार को तो मूर्ख बना सकता है, लेकिन परमात्मा को नहीं। वह अपने अहंकार को ही तृप्त कर रहा है, अपनी आत्मा को नहीं। आत्मा की अभीप्सा, परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही तृप्त होती है, जिस के लिए उपासना/साधना करनी पड़ती है।

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हमारा सारा शास्त्रों का ज्ञान, लिखने व बोलने की प्रभावशाली कला, -- निरर्थक और महत्वहीन है, यदि चैतन्य में परमात्मा नहीं हैं। जठराग्नि को तृप्त करने के लिए कुछ आहार लेना ही पड़ता है, भोजन की प्रशंसा सुनकर किसी का पेट नहीं भरता। बड़ी-बड़ी बातों से तृप्ति नहीं मिलती, तृप्ति -- प्रेम, समर्पण और उपासना से ही मिलती है। जो अपने चेले से उपासना नहीं करा सकता, वह गुरु भी क्या गुरु है? गुरु ऐसा हो जो चेले को नर्ककुंड से बलात् निकाल कर अमृतकुंड में फेंक दे।
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जब हम अग्नि के समक्ष बैठते हैं तो ताप की अनुभूति होती है, वैसे ही परमात्मा के समक्ष उनका अनुग्रह मिलता है। परमात्मा के समक्ष हमारे सारे दोष भस्म हो जाते हैं। परमात्मा का ध्यान निरंतर तेलधारा के सामान होना चाहिए। तेल को एक पात्र से दूसरे में डालते हैं तो उसकी धार खंडित नहीं होती, वैसे ही हमारी साधना भी अखंड हो।
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इस सृष्टि में निःशुल्क कुछ भी नहीं है। हर चीज का मूल्य चुकाना पड़ता है। परमात्मा भी परमप्रेम, अनुराग और समर्पण से मिलते हैं, इनके बिना नहीं। यह परमात्मा को पाने का शुल्क है। इसलिए हमारे विखंडित बिखरे विचारों के ध्रुव सदा स्वयं सच्चिदानंद हों। और कुछ भी हमें नहीं चाहिये? शुचि-अशुचि कैसी भी अवस्था हो, परमात्मा का विस्मरण एक क्षण के लिए भी न हो। इसका अभ्यास करना पड़ता है। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ -- निरंतर "कूटस्थ-चैतन्य" और "ब्राह्मी-स्थिति" में रहें। मेरी चेतना में इस समय ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!

ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अप्रैल २०२१

भारत के अभ्युदय को अब कोई नहीं रोक सकता।

भारत के अभ्युदय को अब कोई नहीं रोक सकता ---
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अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय मैंने भारत से बाहर व्यतीत किया है। विदेशों में रहकर ही मैं भारत को अधिक अच्छी तरह से समझ पाया। भारत का एकमात्र अर्थ जो मैं समझ सका हूँ, वह है -- सत्य-सनातन-धर्म। मेरे लिये भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। योगिराज श्रीअरविंद ने तो यह बात मेरे इस शरीर के जन्म से बहुत पहिले ही कह दी थी। उन्होने जब ऐसा कहा उस समय तो मेरा जन्म ही नहीं हुआ था। सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है और सनातन धर्म का उत्थान ही भारत का उत्थान है। भारत एक ऊर्ध्वमुखी चेतना, और ऐसे लोगों का समूह है जो जीवन में श्रेष्ठतम और उच्चतम को पाने का प्रयास करते हैं। वे अपनी चेतना को विस्तृत कर समष्टि से जुड़ना चाहते हैं, और नर में नारायण को साकार करते हैं।
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भारत के अभ्युदय को अब कोई नहीं रोक सकता। भारत भूमि में दिव्य चेतना से सम्पन्न महान आत्माओं का अवतरण हो रहा है, और वह दिन अधिक दूर नहीं है जब तामसिक और जड़ बुद्धि के लोगों का भारत से सम्पूर्ण विनाश होगा। हमें स्वयं को ही ज्योतिर्मय बनना होगा। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ मई २०२५
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पुनश्च: --- सनातन धर्म के कारण ही भारत "भारत" है। भारत से यदि सनातन धर्म नष्ट हो जाये तो यह "भारत" नहीं, पाकिस्तान हो जायेगा। हमारी तो पूर्ण सत्यनिष्ठा से यही प्रार्थना है कि भारतवर्ष में सत्य सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा हो, सनातन धर्म का वैश्वीकरण हो, और भारत -- अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ एक धर्मनिष्ठ, आध्यामिक और अखंड हिन्दू राष्ट्र हो, सनातन धर्म ही जहाँ की राजनीति हो।

भारत की रक्षा दैवीय शक्तियाँ करेंगी।

राष्ट्र पर एक बड़ा भयंकर खतरा है। भारत की लगभग चार लाख महिलाओं ने पाकिस्तानियों से निकाह कर रखा है, और पाकिस्तान न जाकर, भारत में ही रहते हुए लाखों पाकिस्तानी संतान उत्पन्न कर रही हैं। किसी के भी छह से कम संतान नहीं है। उन महिलाओं ने भारतीय पासपोर्ट ले रखा है, और अन्य सारे आवश्यक भारतीय दस्तावेज भी उनके पास हैं। उनके पति भारत में सिर्फ संतान पैदा करने के लिए ही आते हैं। वे महिलाएं भारत सरकार से सारी निःशुल्क सेवाएं भी ले रही हैं।

क्या भारत के भाग्य में नष्ट होना ही लिखा है? हम लोग इस आसन्न खतरे को समझते ही नहीं है। यही हाल रहा तो बीस-पच्चीस वर्ष पश्चात इस देश में कोई हिन्दू नहीं बचेगा। देश की न्यायपालिका भी उनके साथ है। इस वीडियो को देखिये।
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भगवान में अपनी श्रद्धा व विश्वास को बढ़ाइये। हमारी श्रद्धा और विश्वास ही हमारी रक्षा करेंगे। भारत की स्थिति इस समय बड़ी विकट है। हम निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें, और भारत की रक्षा का संकल्प करते रहें। भारत की रक्षा दैवीय शक्तियाँ करेंगी। इस समय भारत की रक्षा का भार हनुमान जी ने ले रखा है और वे स्वयं भारत की रक्षा कर रहे हैं। ॐ ॐ ॐ !!

भारत में कम से कम यदि दस व्यक्ति भी ऐसे हैं जिन्हें परमात्मा से परमप्रेम और समर्पण है -- तब तक यह राष्ट्र भारत व उसकी अस्मिता जीवित और अमर है। .

 भारत में कम से कम यदि दस व्यक्ति भी ऐसे हैं जिन्हें परमात्मा से परमप्रेम और समर्पण है -- तब तक यह राष्ट्र भारत व उसकी अस्मिता जीवित और अमर है।

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पिछले दस वर्षों में ईश्वर की प्रेरणा और परमकृपा से लगभग चार हजार छोटे-मोटे लेख मेरे माध्यम से लिखे गये हैं। इनका एकमात्र उद्देश्य स्वयं को, और परमात्मा व राष्ट्र के प्रति हृदयस्थ अपने प्रेम को व्यक्त करना था। लिखने का आदेश व प्रेरणा मुझे कुछ संत-महात्माओं ने दी, अन्यथा मुझमें कोई योग्यता नहीं थी। उन्हीं के आशीर्वाद से उल्टा-सीधा कैसे भी लिखता रहा।
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सत्य-सनातन-धर्म शाश्वत व अमर है क्योंकि यह सृष्टि ही सनातन नियमों से चल रही है। जब तक मुझ में चेतना है तब अंतिम साँस तक परमात्मा की स्मृति बनी रहेगी। परमात्मा में स्वयं के सम्पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। इस समय राष्ट्र संकट में है अतः परमात्मा को समर्पित होकर उनसे प्रार्थना करेंगे। भारत अमर है और सदा विजयी रहेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मई २०२५

द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़व्रती व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है ---

 द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़व्रती व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है

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जैसी सृष्टि हम चाहते हैं, वैसी ही सृष्टि निर्मित हो, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना करनी होगी, अन्य कोई मार्ग नहीं है। सिर्फ वही सोचें जो हमारी चेतना का उत्थान कर हमें सत्य का बोध कराने में सहायक हो। हमारे हर विचार के पीछे परमात्मा की उपस्थिति हो। भोगों की कामना से हमारा ज्ञान अपहृत हो जाता है। यह बात स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गीता के सातवें अध्याय "ज्ञानविज्ञान योग" में कह रहे हैं। हमारी कामनाएँ ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं। कुछ प्राप्त करने के स्थान पर पूर्ण समर्पण की भावना होनी चाहिये। द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़व्रती पुरुष ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
After many lives, at last the wise man realises Me as I am. A man so enlightened that he sees God everywhere is very difficult to find.
अपने भाष्य में आचार्य शंकर ने ऐसे व्यक्ति को ही "महात्मा" की संज्ञा दी है। सर्वत्र परमात्मा का ही दर्शन करते हुए हम उन्हें पूर्णतः समर्पित हों। इससे अधिक बड़ा अन्य कोई ज्ञान नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०२५

रूस एक कष्ट-भूमि है जहाँ मनुष्य कष्ट पाने के लिए ही जन्म लेता है ---

 विश्व की सबसे बड़ी सैनिक परेड और सबसे बड़ा सैनिक प्रदर्शन प्रति वर्ष 9 मई को मॉस्को (रूस) में होता है। 1945 में इस दिन रूस ने जर्मनी को पराजित कर द्वितीय विश्व युद्ध का अंत कर दिया था। उस दिन जर्मनी में 8 मई थी, लेकिन मॉस्को में 9 मई थी अतः 9 मई को ही पूर्व सोवियत संघ के सभी देशों में यह पर्व मनाया जाता है।

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19वीं शताब्दी में लिखे गये रूसी साहित्य और रूस के पिछली दो शताब्दियों के इतिहास में मेरी कुछ-कुछ रुचि रही है। मेरे दृष्टिकोण से रूस एक कष्ट-भूमि है जहाँ मनुष्य कष्ट पाने के लिए ही जन्म लेता है, लेकिन वहाँ के लोगों ने अत्यधिक कष्टों के बाद भी मनुष्य जीवन की जिजीविषा (जीने की चाह), और कष्टों से ऊपर उठने के मानसिक संघर्ष का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है।
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आध्यात्म का अभाव वहाँ है। आध्यात्म में रुचि धीरे धीरे बढ़ रही है, जिसकी यही गति रही तो भविष्य में रूस एक सनातन धर्मावलम्बी देश होगा। अभी तो वहाँ रूसी ओर्थोडोक्स चर्च का पूरा प्रभाव है। मार्क्सवाद का त्याग तो वहाँ आधिकारिक रूप से कर दिया गया है, लेकिन मार्क्सवाद का भूत वहाँ के जीवन से अभी तक गया नहीं है। ९ मई २०२५

प्रत्येक दिन शुभ है, जिसका आरंभ परमात्मा के ध्यान से करें ---

 मेरे मित्र-समूह में अनेक निष्ठावान स्त्री और पुरुष भक्त हैं जिन पर किसी को भी अभिमान हो सकता है। धन्य है उनकी निष्ठा और उनकी भक्ति। कुछ लोग ऐसे ही चिपके हुये भी हैं, लेकिन वे कम हैं। सभी का कल्याण हो। सभी का जीवन कृतार्थ हो और सभी कृतकृत्य हों।

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प्रत्येक दिन शुभ है, जिसका आरंभ परमात्मा के ध्यान से करें। जो ध्यान नहीं कर सकते वे गणेश जी महाराज और माँ भगवती की वंदना से, या अपने इष्ट देव/देवी के स्मरण से करें। सनातन परंपरा में ध्यान सर्वव्यापी भगवान शिव या विष्णु या उनके अवतारों का ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में किया जाता है। दिन में चौबीस घंटे, सप्ताह में सातों दिन ईश्वर की चेतना में रहें। जो संस्कृत का शुद्ध उच्चारण कर सकते हैं वे नित्य निम्न पांचों सूक्त या कम से कम एक सूक्त का पाठ अवश्य करें --- (१) पुरुष सूक्त, (२) श्री सूक्त, (३) रुद्र सूक्त, (४) सूर्यसूक्त, (५) भद्र सूक्त॥
जिनका संस्कृत उच्चारण अशुद्ध है वे वेदिक मंत्रों का पाठ न करें।
जिनका उपनयन यानि यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है, उन्हें नित्य कम से कम दस (१० की संख्या में) बार गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। अधिकतम की कोई सीमा नहीं है। कोई संशय है तो जहाँ से आपने दीक्षा ली हैं वहीं से अपनी गुरु-परंपरा में अपने संशय का निवारण करें। गायत्री जप का अधिकार उन्हें ही है जिनका उपनयन संस्कार हो चुका है, अन्यों को नहीं। अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार नित्य संध्या करें।
कृपा शंकर
१० मई २०२५

मेरे में इतना सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकूँ। आप ही मुझे याद कर लेना।

मेरे में इतना सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकूँ। आप ही मुझे याद कर लेना।

"अथ वायुः अमृतम् अनिलम् | इदम् शरीरं भस्मान्तं भूयात् |
ॐ कृतो स्मर, कृतं स्मर, कृतो स्मर, कृतं स्मर ||" ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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हे प्रभु, मेरे में इतना सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकूँ। आप से आजकल प्रेम कुछ अधिक ही हो रहा है। अन्य कुछ चाहिये भी नहीं, क्योंकि मैं असहाय, अकिंचन और निरीह हूँ। आप ही मुझे याद कर लेना। आपसे प्रेम ही मेरा अस्तित्व है, अन्य कुछ मेरे पास है भी नहीं।
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ और मेरे प्राण हैं। आप सब को सविनय सप्रेम नमन॥
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१२ मई २०२५

कोई माने या न माने पर जीवन के अंतिम काल में सभी को यह मानना ही पड़ता है

कोई माने या न माने पर जीवन के अंतिम काल में सभी को यह मानना ही पड़ता है कि उन्हें अपने जीवन की युवावस्था में ही भगवान से जुड़ जाना चाहिए था व भगवत्-साक्षात्कार ही उन के जीवन का एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य होना चाहिए था।
संसार से राग-द्वेष और अहंकार ही सारी समस्याओं की जड़ होती है। जब तक यह बात समझ में आती है तब तक बहुत अधिक देरी हो जाती है। इसी उधेड़बुन में प्राण छुट जाते हैं। ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर

१२ मई २०२५ 

जीवन में मेरा एक ही स्वप्न अधूरा है

जीवन में मेरा एक ही स्वप्न अधूरा है, वह है सत्य-सनातन-धर्म की सर्वत्र पुनः प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो। भारत की प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था और कृषि-व्यवस्था पुनः स्थापित हो। परमात्मा से और कुछ भी नहीं चाहिये, वे हमारा पूर्ण समर्पण स्वीकार करें, और स्वयं को सर्वत्र सदा व्यक्त करें।

इसकी कोई व्यवहारिक संभावना नहीं लगती, लेकिन परमात्मा चाहें तो भूतकाल को भविष्यकाल में, और भविष्यकाल को भूतकाल में भी परिवर्तित कर सकते हैं। यह सृष्टि परमात्मा के मन का एक स्वप्न और संकल्प मात्र है। उनके स्वप्न और संकल्प परिवर्तित भी हो सकते हैं। अन्य कोई उपाय नहीं है, इसके लिए परमात्मा की आराधना करनी होगी। वे हमारी निश्चित रूप से सुनेंगे। पिछले कुछ दिनों से सच्चिदानंद की गहन अनुभूतियाँ हो रही है। यह जीवन उन्हें समर्पित है। और कुछ भी मुझ अकिंचन के पास नहीं है। वे इस अकिंचन को स्वीकार करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१३ मई २०२५

हम आध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं या नहीं? इसका क्या मापदंड है?

 हम आध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं या नहीं? इसका क्या मापदंड है?

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सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा, सत्य का आचरण, और सत्य के प्रति निरंतर आकर्षण -- ही मेरी दृष्टि में आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र मापदंड है। परमात्मा -- परम सत्य हैं, वे सत्यनारायण हैं। उनके प्रति हमारे प्रेम और समर्पण में यदि निरंतर वृद्धि हो रही है, तो हम आध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं, अन्यथा नहीं। हम निरंतर सचेत रहें कि कहीं हम असत्य का आचरण तो नहीं कर रहे हैं। सत्य क्या है? बिना किसी पूर्वाग्रह के निरंतर इसका अनुसंधान करते रहें। यही मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा, और परमधर्म है। यही हमारा स्वधर्म भी है। सत्य ही परमात्मा है, जितना हम सत्य से दूर हैं, उतने ही हम परमात्मा से दूर हैं। ॥ ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मई २०२५ . पुनश्च: --- कुछ भी नयी या पुरानी चीज सीखने की अब इच्छा नहीं रही है। किसका क्या मत है, कौन क्या सोचता है, और कौन क्या कर रहा है, इसका भी अब कोई महत्व नहीं रहा है। परम सत्य की ओर आकर्षण निरंतर बढ़ रहा है, यही एकमात्र अनुसंधान का ज्वलंत विषय रह गया है। क्या ईश्वर में और हमारे में कोई भेद है? यदि है तो वह कैसे दूर हो? ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१४ मई २०२५

वर्तमान तुर्की -- कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (१८८१-१९३८) की नीतियों से दूर जा रहा है।

 वर्तमान तुर्की -- कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (१८८१-१९३८) की नीतियों से दूर जा रहा है।

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यूरोप के ईसाईयों को मजहबी युद्धों में हराकर तुर्की के सुल्तान उस्मान प्रथम ने १३वीं सदी में अनातोलिया (तुर्की का वह भाग जो भूमध्य सागर में है) में उस्मान तुर्की साम्राज्य की स्थापना की, जो छह शताब्दियों तक विश्व का एक अति शक्तिशाली साम्राज्य रहा। सल्तनत-ए-उस्मानिया तुर्की की मुख्य भूमि से संचालित थी, जिसके आधीन --
अल्बानिया, बुल्गारिया, रोमानिया, ग्रीस, सर्बिया, क्रोएशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, इराक, सीरिया, लेबनान, मिस्र, इजराइल, फिलिस्तीन, सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, कतर, बहरीन, यमन, लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरक्को, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान जैसे बड़े बड़े २७ से अधिक प्रसिद्ध देश थे।
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प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन और फ्रांस ने मिलकर तुर्की को हरा कर इसके आधीन सभी देशों को स्वतंत्र कर दिया था। उस्मानिया सल्तनत के सुल्तान को खलीफा बोलते थे जो मुस्लिम उम्मा का प्रमुख होता था। अंतिम ३७ वाँ खलीफा सुल्तान अब्दुल मजीद (द्वितीय) फ्रांस के नीस नगर में एक शरणार्थी का जीवन जी रहा था। भारत के तथाकथित "राष्ट्रपिता महात्मा" ने तुर्की के इस अंतिम खलीफा को बापस अपनी गद्दी पर बैठाने के लिए "खिलाफ़त आंदोलन" आरंभ किया था। इसी आंदोलन ने पाकिस्तान की नींव डाली। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप केरल में मोपला मुसलमान इतने अधिक उत्तेजित हो गये कि अंग्रेजों का तो कुछ बिगाड़ नहीं पाये, लेकिन लाखों निरीह हिंदुओं की हत्या कर दी। विश्व के किसी भी इस्लामी देश ने इस खलीफे का समर्थन नहीं किया था।
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हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान सिद्दीकी की शादी तुर्की के अंतिम खलीफा अब्दुलमज़ीद (द्वितीय) की बड़ी बेटी शाहज़ादी दुर्रू शेहवार से हुई थी। उसका शाहज़ादा आजमजाह भी तुर्की के खलीफा खानदान की शाहजादी को व्याहा था, जो रिश्ते में उसकी मौसी भी लगती थी। जब ये लोग शादी कर के जलयान से भारत लौट रहे थे, तो उसी जलयान से मोहनदास गांधी भी यूरोप से भारत लौट रहे थे। वहीं उनकी दोस्ती हुई। कहीं पढ़ा था कि मोहनदास गांधी ने हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खान पर अपना प्रभाव डाल कर अंतिम खलीफा अब्दुल मजीद को ३०० पाउंड महीने की आजीवन पेंशन भी बँधवा दी थी। हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान का पोता शाहज़ादा मुकर्रम जाह था जो जवाहर लाल नेहरू का घनिष्ठ मित्र था।
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अब आता हूँ असली विषय पर जिसे बताने के लिए यह लेख लिख रहा हूँ। मुस्तफा कमाल पाशा का पारिवारिक नाम मुस्तफा था। अपनी कक्षा में गणित का बहुत प्रखर विद्यार्थी होने के कारण उसे मुस्तफा कमाल पाशा का नाम दिया गया। वह एक दबंग विद्यार्थी था जिसने जीवन में कभी किसी से मार नहीं खायी। जरा जरा सी बात पर वह दूसरों की पिटायी कर देता था।
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फ्रांस और रूस की सहायता से उसने तुर्की की सत्ता अपने हाथ में ले ली। अंग्रेज उसके विरुद्ध थे लेकिन उनकी नहीं चली। सारे मुल्ला-मौलवी उसके विरुद्ध थे लेकिन उसने अपनी दबंगी स्वभाव से सब को डरा-धमका कर उनकी नहीं चलने दी। उसने मुस्लिम उम्मा के उस देश में बहुत बड़े अकल्पनीय सुधार किये जिनके कारण उसे कमाल-अतातुर्क कहा जाता है।
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सत्ता में आते ही उसने सर्वप्रथम महिलाओं द्वारा बुर्का पहिनने पर प्रतिबंध लगा दिया। पुलिस को उसका आदेश था कि कोई भी महिला बुर्का पहिने दिखायी दे तो उसे गोली मार दो। पुरुषों द्वारा पहनी जाने बाली फ़ैज़ टोपी भी उसने प्रतिबंधित कर दी। एक भी गोली नहीं चली, महिलाओं ने बुर्के और पुरुषों ने फ़ैज़ टोपियां अपने आप ही फेंक दी। अरबी भाषा के प्रयोग पर उसने प्रतिबंध लगा दिया। उसका आदेश था कि तुर्की भाषा में लिखी कुरान ही पढ़ी जायेगी और मस्जिदों में अजान और तक़रीरें भी तुर्की भाषा में ही होगीं। अरबी भाषा का प्रयोग तुरंत बंद हो गया। उसका आदेश न मानने पर गोली मारने की ही सजा थी। किसी को गोली खाने का शौक नहीं था।
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मार्च १९२४ में कमाल ने खिलाफत प्रथा का अन्त किया और खलीफा को देश से भगा दिया। खलीफा जो पूरे मुस्लिम जगत का प्रमुख होता था, उसे उसके स्वयं के देश से भगाना कितना साहस का काम रहा होगा यह कल्पना कीजिये। उसने तुर्की को सेकुलर राष्ट्र घोषित करते हुए एक विधेयक संसद में रखा। अधिकांश संसद सदस्यों ने इसका विरोध किया, पर कमाल ने उन्हें जम के धमकाया। उसकी धमकी का प्रभाव पड़ा और सारे सांसदों ने कमाल को ही वोट दिये, व विधेयक पारित हो गया।
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मुल्ला-मौलवियों ने उसका बहुत विरोध किया लेकिन कमाल अतातुर्क ने उन मुल्ला-मौलवियों के सब नेताओं को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद मुल्ला मौलवियों का विरोध समाप्त हो गया। इसके बाद उसने इस्लामी कानूनों को हटाकर उनके स्थान पर एक नई संहिता स्थापित की। बहु-विवाह को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही पतियों से यह कहा गया कि वे अपनी पत्नियों के साथ ढोरों की तरह-व्यवहार न करके बराबरी का बर्ताव रखें। प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार दिया गया। सेवाओं में घूस लेना निषिद्ध कर दिया गया और घूसखोरों को बहुत कड़ी सजाएँ दी गयीं। स्त्रियों के पहनावे से पर्दा उठा दिया गया और पुरुष पुराने ढंग के कपड़े छोड़कर सूट पहनने लगे।
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उसका एक अति मानवीय पक्ष भी था। उसने लतीफी नाम की एक महिला से शादी की थी। उससे कमाल को कोई सन्तान नहीं हुई और दो वर्ष बाद वह निस्संतान ही मर गयी। बीबी के मरने के बाद मुस्तफ़ा कमाल पाशा ने कभी विवाह नहीं किया। जीवन के एकाकीपन को दूर करने के लिये उसने तेरह अनाथ बच्चों को गोद लिया जिनमें बारह लड़कियां थीं, और उनकी बेहतर ढंग से परवरिश की।
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कमाल अतातुर्क -- भारत के क्रांतिकारी कवि रामप्रसाद बिस्मिल से इतने अधिक प्रभावित थे कि तुर्की में एक नगर का नाम इन्होंने "बिस्मिल" रखा। बिस्मिल ने भी कमाल अतातुर्क की प्रशंसा में एक कविला लिखी थी जो इस समय अंतर्जाल पर तो उपलब्ध नहीं है। १९३८ में कमाल अतातुर्क का निधन हो गया।
तुर्की का वर्तमान तानाशाह शासक एर्दोगान अब स्वयं मुस्लिम विश्व का खलीफा बनना चाहता है। बड़ा कट्टर भारत विरोधी है। वह मुस्तफा कमाल पाशा की नीतियों को बदलना चाहता है। लेकिन उसे सफलता नहीं मिलेगी।
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आपने इतने लंबे इस लेख को पढ़ा जिसके लिए धन्यवाद॥
कृपा शंकर
१४ मई २०२५

विश्व राजनीति क्या है? / अमेरिका धन के लिए कितना भी नीचे गिर सकता है ---

 विश्व राजनीति क्या है? ---

विश्व राजनीति बड़ी कुटिल है। सारे देश अपना-अपना आर्थिक हित देखते हैं, नीतियाँ बाद में बनती हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी का न तो मित्र है, और न शत्रु। आर्थिक हितों के आधार पर ही शत्रु-मित्र बनते हैं। यही भू-राजनीति है जिसे कूटनीति भी कहते हैं।
अमेरिका धन के लिए कितना भी नीचे गिर सकता है ---
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कल रियाद में सं.रा.अमेरिका और सऊदी-अरब में हुआ १४२ अरब डॉलर का अब तक के विश्व इतिहास का सबसे बड़ा हथियारों का सौदा है, जो समझ से परे है। अमेरिका ने अल-शर्रा नाम के जिस आतंकी के सिर पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा था, उसी से कल अमेरिकी राष्ट्रपति ने सऊदी-अरब में हँसते हुये हाथ मिलाया। सऊदी अरब की कुल जनसंख्या ही लगभग तीन करोड़ सत्तर लाख है। वास्तव में अमेरिका ने धन के बदले इज़राइल का सौदा किया है। ये हथियार उम्मा के ही काम आयेंगे। फिर दुबई से भी अमेरिका ने आठ लाख करोड़ का हथियारों का सौदा किया। लगता है धन के लालच में अमेरिका स्वयं के ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। अल-शर्रा नाम का दुर्दांत आतंकी इस समय सीरिया पर शासन कर रहा है। अमेरिका ने सीरिया पर से भी सारे प्रतिबंध हटा लिए हैं।
१५ मई २०२५

ब्रह्मतत्व यानि परमात्मा को जानने का अधिकार सभी को है ---

 ब्रह्मतत्व यानि परमात्मा को जानने का अधिकार सभी को है, केवल विरक्त व्यक्ति को ही नहीं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अनेक बार यह बात कहते हैं। लेकिन इसके लिए परमप्रेम, अभीप्सा, शरणागति, समर्पण, स्वाध्याय, साधना व अध्यवसाय द्वारा पात्रता तो स्वयं को ही अर्जित करनी पड़ती है।

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जिसको प्यास लगी है वही पानी पीयेगा। किसी अन्य के पानी पीने से हमें तृप्ति नहीं मिलती। इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। जो लोग केवल बातें करते हैं, वे बातें ही करते रह जाते हैं। परमात्मा को पाने के लिए भी परमप्रेम (भक्ति) और समर्पण द्वारा कीमत सब को चुकानी पड़ती है।
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इस पृथ्वी पर कभी प्रलय आयेगी तो सबसे पहिले वे ही नष्ट होंगे जो अपना काम ठीक से नहीं करते, दूसरों को दुःखी करते हैं, और जिनकी दृष्टि पराये धन पर होती है। नर्काग्नि की भयावह दाहकता भी उनके लिए आरक्षित है। उन्हें कोई बचा नहीं सकता।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२५

"पुष्पिता वाणी" (दिखावटी शोभायुक्त वाणी) से बचो, और "व्यवसायात्मिका बुद्धि" (निश्चयात्मिका बुद्धि) पर दृढ़ रहो ---

 गीता के सांख्य-योग (अध्याय २) में भगवान हमें गीता के सांख्य-योग (अध्याय २) में भगवान हमें "पुष्पिता वाणी" (दिखावटी शोभायुक्त वाणी) से बचने, और "व्यवसायात्मिका बुद्धि" (निश्चयात्मिका बुद्धि) पर दृढ़ रहने को कहते हैं ---

"यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२:४२॥"
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२:४३॥"
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२:४४॥"
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गीता का स्वाध्याय बार बार करना पड़ता है, अन्यथा हमारी स्मृति हमें धोखा देने लगती है। मेरे लिखे इस लेख को पढ़ने की अपेक्षा प्रत्यक्ष गीता का ही स्वाध्याय करें। साथ में भाष्यकारों के कम से कम दो भाष्य भी साथ में रख कर उनकी सहायता लें। मैं शंकर भाष्य से मार्गदर्शन तो लेता ही हूँ, साथ में एक और भाष्य का स्वाध्याय भी करता हूँ।
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मेरी स्मरण-शक्ति अब बहुत अधिक धोखा देने लगी हैं, अतः हर समय सजग और सावधान रहना पड़ता है। व्यवसायात्मिका बुद्धि के अभाव में आध्यात्मिक विफलता तो मिलती ही है, व्यक्तिव में विखंडन भी हो सकता है।
सादर सप्रेम धन्यवाद !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२५
"यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥२:४२॥"
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥२:४३॥"
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥२:४४॥"
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गीता का स्वाध्याय बार बार करना पड़ता है, अन्यथा हमारी स्मृति हमें धोखा देने लगती है। मेरे लिखे इस लेख को पढ़ने की अपेक्षा प्रत्यक्ष गीता का ही स्वाध्याय करें। साथ में भाष्यकारों के कम से कम दो भाष्य भी साथ में रख कर उनकी सहायता लें। मैं शंकर भाष्य से मार्गदर्शन तो लेता ही हूँ, साथ में एक और भाष्य का स्वाध्याय भी करता हूँ।
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मेरी स्मरण-शक्ति अब बहुत अधिक धोखा देने लगी हैं, अतः हर समय सजग और सावधान रहना पड़ता है। व्यवसायात्मिका बुद्धि के अभाव में आध्यात्मिक विफलता तो मिलती ही है, व्यक्तिव में विखंडन भी हो सकता है।
सादर सप्रेम धन्यवाद !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२५

बड़े भाग्यशाली पुण्यवान लोगों के घर पर ही शहनाई बजती है ---

 बड़े भाग्यशाली पुण्यवान लोगों के घर पर ही शहनाई बजती है

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शहनाई की ध्वनि अति मंगलकारी और शुभ होती है। विवाह आदि शुभ अवसरों पर पाँच या सात दिन पहिले से ही नित्य सायंकाल घर के दरवाजे पर शहनाई व नौबत बजवानी चाहिये। इससे सात्विक मंगलकारी शुभ शक्तियाँ आकर्षित होती हैं। प्रत्येक शुभ अवसर पर हमें घर पर कलाकारों को बुलाकर उनसे शहनाई और नौबत बजवानी चाहिये। यदि किसी के घर के दरवाजे पर शहनाई बज रही है तो समझ लीजिये कि इस व्यक्ति ने बहुत पुण्य किये हैं और भाग्यशाली है।
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डीजे की ध्वनि सूक्ष्म जगत की नकारात्मक आसुरी शक्तियों को आमंत्रित करती है।
विवाह स्थल पर जहाँ पाणिग्रहण संस्कार होता है -- उस स्थान को देशी नस्ल की गाय के गोबर और शुद्ध मिट्टी से लेपन कर के कुछ गंगाजल छिड़क देना चाहिये। इस से वह स्थान पवित्र हो जाता है।
जहाँ दुल्हे/दुल्हन ने, उनके माता-पिता ने, या विवाह करवाने वाले पंडित जी ने किसी भी तरह का मदिरापान कर रखा है -- वहाँ देवताओं का आगमन नहीं हो सकता, चाहे कितने भी मंत्रपाठ करवा लो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२५
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पुनश्च: --- "नौबत" शब्द फारसी भाषा का है। इसे संस्कृत में 'दुन्दुभि' भी कहते थे। इसे बोलचाल की भाषा में "नक्कारा" कहते हैं, जिससे "नगाड़ा" शब्द की उत्पत्ति हुई है। यह एक छोटे व एक बड़े दो ड्रमों का जोड़ा होता है जिनका पीछे का भाग गोलाकार होता है। इसे बैठ कर दो डंडियों की सहायता से बजाया जाता है। हिन्दुओं के विभिन्न संस्कारों में एवं देवालयों पर इन्हें बजाया जाता है। एक मुहाबरा भी इससे बना है -- "नक्कारखाने में तूती की आवाज"।

आज का दिन दुबारा बापस लौट कर नहीं आयेगा ---

 Celebrate each day as if it were once in a lifetime.

आज का दिन दुबारा बापस लौट कर नहीं आयेगा। हरेक दिन जीवन में एक ही बार मिलता है। यह बात मुझे बहुत देरी से समझ में आयी। जो हम आज अभी कर सकते हैं, वह कल नहीं कर पायेंगे। जो कार्य भविष्य में करना है, वह अभी करो। जो कार्य आज करना है वह इसी समय अभी करो। इस विषय पर मैं शास्त्रों में से प्रमाण दे सकता हूँ। यह हमारे शास्त्रों का आदेश है।