पुण्य, पाप और धर्म क्या है ? --- जो कर्म आत्म-तत्व का बोध करायें, वे मेरे लिए पुण्य हैं। जो कर्म मुझे आत्म-तत्व को विस्मृत करायें, वे मेरे लिए पाप हैं। निज जीवन में परमात्मा की यथासंभव पूर्ण अभिव्यक्ति" ही धर्म है। यही मेरा प्राण, और मेरी अस्मिता है।
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भगवान मिलें या न मिलें, इस बारे सोचना ही छोड़ दें। भगवान तो मिले हुए ही हैं। भगवान कहीं दूर नहीं, हमारे साथ एक हैं। किसी भी शिवालय में भगवान शिव के वाहन नंदी का मुंह सदा शिवलिंग की ओर ही होता है। अतः हमारी दृष्टी निज-आत्मा यानी आत्म-तत्व (कूटस्थ) की ओर ही हर समय होनी चाहिए क्योंकि हमारी यह देह हमारी आत्मा का वाहन है।
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मैं साँस नहीं ले रहा। स्वयं परमात्मा इस सारी सृष्टि के रूप में मेरे माध्यम से साँस ले रहे हैं।
(I am not breathing -- I am being breathed by the Divine).
यह देह परमात्मा का एक उपकरण है। परमात्मा अपने इस उपकरण से साँस ले रहे हैं। मेरा कुछ होना, यानि पृथकता का बोध -- एक भ्रम मात्र है। मैं और मेरे प्रभु -- एक हैं।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
२२ अप्रैल २०२५
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