जब तक मैं परमात्मा से दूर था, यह जीवन अपने केंद्र-बिन्दु से बहुत दूर एक मरीचिका (Mirage) यानि दृष्टिभ्रम या एक झूठा प्रतिबिंब (false image) मात्र ही था। एक झूठी आशा के पीछे भाग रहा था। सत्य का बोध तो अभी हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में यह आश्वासन एक नयी दृष्टि और बोध दे रहा है --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
But if a man will meditate on Me and Me alone, and will worship Me always and everywhere, I will take upon Myself the fulfillment of his aspiration, and I will safeguard whatsoever he shall attain.
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मैं -- मैं नहीं रहा। जीवन एक सतत प्रक्रिया है, अब तो उनका हृदय छोड़कर अन्यत्र की कल्पना भी मृत्यु है। शिवोहं शिवोहं॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ दिसंबर २०२५