गुरुकुल शिक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है ---
Saturday, 22 February 2025
गुरुकुल शिक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है --- .
विश्व में घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है ---
किसी भी बात को बार बार लिखना उचित नहीं है ----
किसी भी बात को बार बार लिखना उचित नहीं है ----
यह संसार तमोगुण और रजोगुण से चल रहा है ---
मैं आध्यात्म की बात नहीं कर रहा, भौतिक जगत की वास्तविकता की बात कर रहा हूँ। भौतिक जगत में इस समय विश्व की सत्ता तीन आसुरी स्थानों से नियंत्रित हो रही है, और चार आसुरी गिरोह हैं जो विश्व को अपने अधिकार में रखे हुए हैं। जो भी इनका विरोध करता है उसे नष्ट कर दिया जाता है। हम लोग सिर्फ भावनात्मक रूप से मूर्ख मोहरे हैं।
आध्यात्म में "हृदय" शब्द का अर्थ ---
आध्यात्म में "हृदय" शब्द का अर्थ ---
परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं ---
(१) आध्यात्म में प्राप्त करने को कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह तुमसे छीन लिया जाएगा।
आध्यात्म में भगवान से कोई मांग नहीं होती, केवल समर्पण ही होता है ---
आध्यात्म में भगवान से कोई मांग नहीं होती, केवल समर्पण ही होता है ---
हमारा विवेक यानि प्रज्ञा ही अब तक महाविनाश से हमारी रक्षा कर रही है ---
हमारा विवेक यानि प्रज्ञा ही अब तक महाविनाश से हमारी रक्षा कर रही है, और हमारे प्रज्ञापराध ही हमारा महाविनाश करेंगे। जीवन में जो सर्वश्रेष्ठ कार्य हम कर सकते हैं, वह है -- परमात्मा की भक्ति और परमात्मा को समर्पण। द्वैत भाव की समाप्ति -- समर्पण है, और आत्मतत्व में स्थिति -- ध्यान, उपासना, व उपवास है।
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सारे सद्गुणों व ज्ञान के स्त्रोत परमात्मा हैं| हमारा प्रेम और समर्पण उन्हीं के प्रति हो| उन्हीं का हम ध्यान करें| पात्रतानुसार सारा मार्गदर्शन वे स्वयं करते हैं| परमात्मा से प्रेम -- सबसे बड़ा सद्गुण है जो सभी सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता है| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें| उन्हीं में सुख, शांति, समृद्धि, सुरक्षा, संतुष्टि, और तृप्ति है|
ॐ स्वस्ति !
क्या परमात्मा में, सद्गुरू में और स्वयं में कोई भेद है?
क्या परमात्मा में, सद्गुरू में और स्वयं में कोई भेद है?
वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---
वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---
परमात्मा को समर्पण किस विधि से करें ? ---
परमात्मा को समर्पण किस विधि से करें ? ---
मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---
मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---
अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है ---
अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। और कुछ भी देखना बाकी नहीं है। जो सार की बात है उसे स्वीकार कर, असार को त्याग देना ही उचित है।
वासनात्मक चिंतन से -- जीवन में न चाहते हुए भी हमारा व्यवहार राक्षसी हो जाता है ---
वासनात्मक चिंतन से -- जीवन में न चाहते हुए भी हमारा व्यवहार राक्षसी हो जाता है। हम असुर/पिशाच बन जाते हैं, और गहरे से गहरे गड्ढों में गिरते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति न आने पाये, इसका एक ही उपाय है -- निरंतर परमात्मा का चिंतन, और परमात्मा को समर्पण। अन्य कोई उपाय नहीं है।
मैं तो एक सेवक मात्र हूँ, जिसका कार्य अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना है, और कुछ भी नहीं ---
मैं तो एक सेवक मात्र हूँ, जिसका कार्य अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना है, और कुछ भी नहीं। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। मुझे कुछ भी नहीं आता। जो मेरे स्वामी करवाएँगे वही मुझसे होगा। जो कुछ भी करना है वह मेरे स्वामी ही करेंगे. मैं तो उनका एक उपकरण हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। मेरे स्वामी स्वयं परमात्मा हैं। मैं उनके साथ एक और उन्हीं का परमप्रेम हूँ। मैं पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से परे हूँ। . धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, और शुभ-अशुभ, --- इन सब द्वैतों से परे -- भगवान को समर्पित हो जाना -- ही सबसे बड़ा सार्थक निष्काम कर्मयोग है। किसी भी तरह की आकांक्षा या अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
ॐ ॐ ॐ !!
२२ सितंबर २०२१
परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है ---
परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है। वे ही एकमात्र सत्य हैं, वे ही लक्ष्य हैं, वे ही मार्ग हैं, वे ही सिद्धान्त हैं, और सब कुछ वे ही हैं। उनसे परे इधर-उधर देखना भटकाव है। परमात्मा के लिए हमें पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा। कालचक्र घूम चुका है। बुरे दिन व्यतीत हो रहे हैं। राष्ट्रद्रोही आसुरी शक्तियों का नाश निश्चित है। भगवान उनके लिए अब काल हैं --
भगवान की मेरी अवधारणा क्या है? ---
परम प्रेम और समष्टि के ज्योतिर्मय विस्तार, और उस से भी परे की निरंतर अनुभूति ही मेरे लिए परमात्मा है| उसी में आनंद और तृप्ति है| अब तो कूटस्थ के परम ज्योतिर्मय आलोक में मुझे एक पुराण-पुरुष के दर्शन होते हैं| उन्हीं का ध्यान होता है| वे ही भगवान वासुदेव है, और वे ही परमशिव और नारायण हैं| इस से अधिक मुझे कुछ नहीं पता| धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, और शुभ-अशुभ, --- इन सब द्वैतों से परे ... भगवान को समर्पित हो जाना --- ही सबसे बड़ा सार्थक निष्काम कर्म है| किसी भी तरह की आकांक्षा या अपेक्षा नहीं होनी चाहिए| ॐ ॐ ॐ !! २४ नवंबर २०२०
एक आध्यात्मिक साधक कभी -- धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, और सुख-दुःख की परवाह नहीं करता ---
परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---
परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---
जन्माष्टमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---
जन्माष्टमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ --- . >