Saturday, 22 February 2025

गुरुकुल शिक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है --- .

 गुरुकुल शिक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है ---

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राष्ट्र को आवशयकता है लाखों ऐसे विद्यार्थियों की जो गुरुकुलों में वेदांगों और श्रुतियों (वेदों) का स्वाध्याय करते हुए आधुनिक विज्ञान, वाणिज्य और कलाओं में भी निष्णात हो सकें।
बहुत बड़ी संख्या में उपाध्यायों और आचार्यों की भी आवश्यकता है।
जो वेदांगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरुक्त) की शिक्षा देते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। वेदों को समझने के लिए वेदांगों का ज्ञान होना अति आवश्यक है।
जो अपने आचरण और ज्ञान से श्रुतियों (वेदों) की शिक्षा देते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। उपाध्याय और आचार्य दोनों ही परम विद्वान होते हैं।
फिर अन्य विषयों के भी उप आचार्य होते हैं।
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आगे के लेखों में आध्यात्म की ही बात करेंगे। ॐ तत्सत् !!
५ जुलाई २०२४

विश्व में घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है ---

विश्व में घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की अनेक बहुत अधिक महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनका प्रभाव सीधा भारत पर पड़ता है।
लेकिन अब से मैं अपने नये निर्णय के अनुसार सिर्फ आध्यात्म और भक्ति पर ही लिखूंगा, किसी अन्य विषय पर नहीं। यह निर्णय मैंने दो दिनों पूर्व ही लिया था।
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मेरी पूरी आस्था, श्रद्धा और विश्वास, अब अन्य सब ओर से हट कर सिर्फ परमात्मा में ही स्थिर हैं। मुझे सारी प्रेरणा श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों से ही मिलती है। क्रियायोग और श्रीविद्या की साधना मेरे माध्यम से होती है। वेदांगों के स्वाध्याय का कभी अवसर नहीं मिला, इसलिए वेदों को समझने की बौद्धिक क्षमता मुझ में नहीं है। वेदों को मैं अंतिम प्रमाण मानता हूँ। मैं पूरी तरह सनातन धर्मावलम्बी आस्तिक हिन्दू ब्राह्मण हूँ।
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मेरी भौतिक आयु ७७+ वर्ष है। किसी से अनावश्यक बात नहीं करता। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में अब कोई रुचि नहीं है। परमात्मा की परम कृपा से मुझे पता है कि मुझे क्या करना है, किसी के मार्गदर्शन की मुझे आवश्यकता नहीं है। मेरा बाकी बचा हुआ सारा जीवन परमात्मा को समर्पित है। जो होगा सो देखा जायेगा। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ जून २०२४

किसी भी बात को बार बार लिखना उचित नहीं है ----

 किसी भी बात को बार बार लिखना उचित नहीं है ----

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आध्यात्म और साधना के बारे में जितना भी मुझे ज्ञात है वह मैं अनेक बार लिख चुका हूँ। घुमा-फिरा कर उसे ही बार बार लिखना अनुचित है। कोई नई बात सामने आयेगी तो उसे अवश्य लिखूँगा। पुरानी बातें दुबारा लिखने की इच्छा नहीं है।
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एक ही बात है जो नित्य-नवीन, नित्य सचेतन और नित्य अस्तित्व में है, और वह है -- सच्चिदानंद परमात्मा की अनुभूति। ध्यान में हमें सच्चिदानंद की अनुभूति होती है, उसे ही परमात्मा की प्राप्ति कहते हैं। ध्यान में हम परमब्रह्म परमात्मा के साथ एक होते हैं।
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जिससे प्रेरणा और निरंतर परमात्मा की अनुभूति होती रहे, बस उतना ही पढ़ना चाहिए। यदि एक घंटे पढ़ते हैं तो कम से कम आठ घंटे परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। ध्यान में कभी भी कोई भी अकेला नहीं होता। सहस्त्रार से ऊपर का भाग खुल जाता है। सारी सृष्टि, सारे ब्रह्मांडों, सारे जड़, चेतन, और सम्पूर्ण अनंतताओं के साथ हम एक हो जाते हैं।
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परमात्मा को अपनी सम्पूर्ण पृथकता के बोध और सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण कर दें। श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषदों व अन्य प्रेरणादायक ग्रन्थों का स्वाध्याय समय समय पर करते रहें। कर्ताभाव से मुक्त हो जाएँ। मार्गदर्शन की आवश्यकता हो तो किन्हीं ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय महापुरुष से ही लें। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पित कर दें, और उन्हीं में रमण करें। जो सुख, शांति और सुरक्षा परमात्मा के नामजप, स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान में है, वह इस सृष्टि में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। रात्री को सोने से पूर्व, और प्रातः उठते ही परमात्मा का ध्यान करें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें।
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निश्चित रूप से कल्याण होगा। हम परमात्मा के साथ एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है। आपको मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१८ अप्रेल २०२४

यह संसार तमोगुण और रजोगुण से चल रहा है ---

मैं आध्यात्म की बात नहीं कर रहा, भौतिक जगत की वास्तविकता की बात कर रहा हूँ। भौतिक जगत में इस समय विश्व की सत्ता तीन आसुरी स्थानों से नियंत्रित हो रही है, और चार आसुरी गिरोह हैं जो विश्व को अपने अधिकार में रखे हुए हैं। जो भी इनका विरोध करता है उसे नष्ट कर दिया जाता है। हम लोग सिर्फ भावनात्मक रूप से मूर्ख मोहरे हैं।

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विश्व को नियंत्रित करने वाले तीन आसुरी केंद्र हैं --
(१) सिटी ऑफ लंदन, (२) वाशिंगटन डीसी, और (३) वेटिकन।
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विश्व को जिन्होंने अपनी मुट्ठी में कर रखा है, वे चार आसुरी गिरोह हैं --
(१) विश्व में नशीले पदार्थों का कारोबार करने वालों का गिरोह।
(२) विश्व में युद्ध के हथियार बनाकर बेचने वालों का गिरोह।
(३) विश्व में दवा बनाकर बेचने वालों का गिरोह।
(४) खनिज तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री करने वालों का गिरोह।
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उपरोक्त के अलावा कुछ गुप्त आसुरी संगठन हैं जो पूरे विश्व की सत्ता को अपने हाथों में लेकर नियंत्रित करना चाहते हैं। वे आसुरी शक्तियों यानि शैतान के उपासक हैं। वे भी कुछ न कुछ षड़यंत्र रचते ही रहते हैं।
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इस विषय पर और कुछ भी लिखना नहीं चाहता। आप सब को नमन करते हुए धीरे धीरे सार्वजनिक जीवन से पीछे हट रहा हूँ। भावनात्मक रूप से मूर्ख नहीं बने रहना चाहता।
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यह संसार तमोगुण और रजोगुण से चल रहा है। सतोगुण तो सिर्फ एक संतुलन बनाने के लिए ही है। धार्मिक भावनाओं से दूसरों का शोषण भी तमोगुण और रजोगुण की विशेषता है। आजकल वह बहुत सामान्य है।
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जहां तक आध्यात्म की बात है, उसके लिए त्रिगुणातीत होने की साधना करनी पड़ती है। तभी कुछ समझ में आता है। बिना भक्ति और अभीप्सा के आध्यात्म में प्रवेश नहीं हो सकता। पिछले तीन हजार वर्षों से तो विश्व पर असुरों का ही राज्य चल रहा है, और निकट भविष्य में भी कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही है।
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सभी को मंगलमय शुभ कामनायें और नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ मार्च २०२३

आध्यात्म में "हृदय" शब्द का अर्थ ---

 आध्यात्म में "हृदय" शब्द का अर्थ ---

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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि वे चैतन्य रूप से समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं। यहाँ हृदय शब्द का अर्थ शारीरिक हृदय नहीं है।
करुणा, प्रेम, क्षमा, उदारता जैसे अनेक गुणों से सम्पन्न मन को ही आध्यात्म में हृदय कहते हैं। हमारा शांत, प्रसन्न, सजग और जागरूक मन ही हृदय कहलाता है, जो आत्म-तत्व का अनुभव करने में सक्षम है।
हमारी सब घनीभूत पीड़ाओं का कारण हमारे हृदय में परमात्मा का अभाव है। उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती ही आनंद है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर ११ मई २०२४

परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं ---

 (१) आध्यात्म में प्राप्त करने को कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह तुमसे छीन लिया जाएगा।

(२) अप्राप्त को प्राप्त करने का लोभ नर्क का द्वार है।
(३ ) भगवान कोई प्राप्त करने का विषय नहीं है। जैसे सिनेमा में देखते हैं वैसे भगवान ऊपर आसमान से उतर कर नहीं आते। हमें स्वयं को भगवान बनना पड़ता है। यही आत्म-साक्षात्कार है, यही ईश्वर को उपलब्ध होना है। अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, व अहंकार) को शरणागति द्वारा पूर्णतः समर्पित करना पड़ता है।
(४) भगवान की कृपा हम पर उसी अनुपात में होती है जिस अनुपात में हमारे हृदय में उनके प्रति परमप्रेम होता है।
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जिसका हम ध्यान करते हैं, वही हम बन जाते हैं। परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लालच -- माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही हैं, तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? आत्मा की एक अभीप्सा होती है, उसे परमात्मा का विरह एक क्षण के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। इसी को परमप्रेम या भक्ति कहते हैं। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ प्राप्त करने में। हम यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२३

आध्यात्म में भगवान से कोई मांग नहीं होती, केवल समर्पण ही होता है ---

 आध्यात्म में भगवान से कोई मांग नहीं होती, केवल समर्पण ही होता है ---

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मेरे विचार अधिकांश श्रद्धालुओं से नहीं मिलते, इसलिए मुझे भीड़ से दूरी में ही आनंद मिलता है। जिन से मेरे विचार मिलते हैं, उनका थोड़ा-बहुत सत्संग आनंददायक होता है। मेरी मान्यता भगवान से कुछ मांगने की नहीं, बल्कि अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित करने की ही है। भगवान से कुछ मांगना मेरे लिए संभव नहीं है। यदि भगवान से कुछ मांगना ही है तो उनकी अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति ही मांगनी चाहिए, अन्य कुछ भी भगवान से मांगना, भगवान का अपमान है।
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शिवभक्ति के संस्कार पूर्व जन्म से ही हैं। शिव को मैं सीमित नहीं कर सकता। ध्यान-साधना में सहस्त्रार से ऊपर का भाग खुल जाता है, अतः ध्यान-साधना सूक्ष्म-जगत की अनंतता से भी परे के एक परम आलोकमय जगत में होती है, जहाँ स्वयं भगवान परमशिव हैं। कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन, और परमशिव का साक्षीभाव से ध्यान मेरी आध्यात्मिक साधना है। कुछ निषेधात्मक कारणों से कुंडलिनी महाशक्ति के बारे में सार्वजनिक मंचों पर चर्चा नहीं की जा सकती। इस विषय की चर्चा का अधिकार गुरु-परंपरा के भीतर ही है, बाहर नहीं।
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सारी प्रेरणा मुझे श्रीमद्भगवद्गीता से मिलती है। मेरे सारे संशयों का निवारण भी श्रीमद्भगवद्गीता से ही हुआ है। अतः गीता-पाठ और शिव पूजा -- साधना के भाग हैं। कर्ता के रूप में तो भगवान स्वयं है। वे ही साध्य, साधक और साधना हैं। भगवान से कुछ मांगना, भगवान का अपमान है; अतः मैं भगवान से कुछ मांग नहीं सकता। जो कुछ भी सामान मेरे पास है, वह सब उन्हें समर्पित है। पूर्व-जन्म की स्मृतियाँ कभी कभी जागृत हो जाती थीं, अब उन्हें पूरी तरह भुला दिया है। भगवान की अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी भगवान से मांगने योग्य नहीं है।
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"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥१३:८॥"
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्॥१३:९॥"
"असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥१३:१०॥"
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् --
अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम॥
इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन॥
आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता।।
अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
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आज के स्वाध्याय के लिए गीता के उपरोक्त पाँच श्लोक ही पर्याप्त हैं। भगवान से कोई मांग नहीं, बल्कि स्वयं को उन्हें पूर्णतः समर्पित करें।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२४

हमारा विवेक यानि प्रज्ञा ही अब तक महाविनाश से हमारी रक्षा कर रही है ---

हमारा विवेक यानि प्रज्ञा ही अब तक महाविनाश से हमारी रक्षा कर रही है, और हमारे प्रज्ञापराध ही हमारा महाविनाश करेंगे। जीवन में जो सर्वश्रेष्ठ कार्य हम कर सकते हैं, वह है -- परमात्मा की भक्ति और परमात्मा को समर्पण। द्वैत भाव की समाप्ति -- समर्पण है, और आत्मतत्व में स्थिति -- ध्यान, उपासना, व उपवास है।

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सारे सद्गुणों व ज्ञान के स्त्रोत परमात्मा हैं| हमारा प्रेम और समर्पण उन्हीं के प्रति हो| उन्हीं का हम ध्यान करें| पात्रतानुसार सारा मार्गदर्शन वे स्वयं करते हैं| परमात्मा से प्रेम -- सबसे बड़ा सद्गुण है जो सभी सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता है| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें| उन्हीं में सुख, शांति, समृद्धि, सुरक्षा, संतुष्टि, और तृप्ति है|

ॐ स्वस्ति !

कृपा शंकर
१३ अप्रेल २०२१

क्या परमात्मा में, सद्गुरू में और स्वयं में कोई भेद है?

 क्या परमात्मा में, सद्गुरू में और स्वयं में कोई भेद है?

भेद आरंभ में ही रहता है, कालांतर में कोई भेद नहीं रहता| गुरु और चेला दोनों परमात्मा में एक हो जाते हैं| फिर परमात्मा से भी कोई भेद नहीं रहता| सभी आपस में एक हो जाते हैं| स्वयं को, गुरु को और परमात्मा को सीमित नहीं कर सकते|
आवश्यकता है सत्यनिष्ठा और लगन की, और कुछ भी नहीं चाहिए| हमारे में लाख कमियाँ हों हिमालय जितनी बड़ी-बड़ी, पर परमात्मा के कृपासिन्धु में वे छोटे-मोटे कंकड़-पत्थर से बड़ी नहीं हैं|
सत्यनिष्ठा, परमप्रेम, अभीप्सा, और समर्पण से ही हमें ऊर्जा मिलती है|
२८ जून २०२०

वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---

 वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---

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ग्रेगोरियन पंचांगानुसार १९ मई १९७३ को एक गठबंधन में बंधकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था| आज परमेष्ठी गुरु रूप परम शिव परमात्मा की परम कृपा से पूरे ४४ वर्ष हो गए हैं| आप सब परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्तियाँ यानी परमात्मा के साकार रूप हैं| आप सब में व्यक्त परमात्मा को नमन करता हुआ आपके आशीर्वाद की प्रार्थना करता हूँ|
सांसारिक जीवन के बहुत सारे उतार-चढ़ाव और परस्पर विरोधी व अनुकूल विचारधाराओं के संघर्ष, तालमेल एवं समझौतों को ही वैवाहिक जीवन कह सकते हैं| दूसरे शब्दों में कभी शांति, कभी गोलीबारी, कभी युद्धविराम और फिर शांति .... यही वैवाहिक जीवन है|
पाश्चात्य दृष्टिकोण से यह एक आश्चर्य और उपलब्धि है कि कोई विवाह इतने लम्बे समय तक निभ जाए| भारतीय दृष्टिकोण से तो अब से बहुत पहिले ही वानप्रस्थ आश्रम का आरम्भ हो जाना चाहिए था जो नहीं हो पाया|
एक आदर्श आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी है पर उसके आसपास पहुँचना भी अति कठिन है| सारे आदर्श आदर्श ही रह जाते हैं| जिस तरह पृथ्वी चन्द्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है वैसा ही एक गृहस्थ का आदर्श है| वर्णाश्रम धर्म तो वर्तमान में एक आदर्श और अतीत का विषय ही होकर रह गया है| कई बाते हैं जो हृदय की हृदय में ही रह जाती हैं, कभी उन्हें अभिव्यक्ति नहीं मिलती|
यह सृष्टि और उसका संचालन जगन्माता का कार्य है| जैसी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो|
हे प्रभु, हे जगन्माता, हमारा समर्पण पूर्ण हो, किसी प्रकार की कोई कामना, मोह और अहंकार का अवशेष ना रहे| हमारा अच्छा-बुरा जो भी है वह संपूर्ण आपको समर्पित है| हमारा समर्पण स्वीकार करो|
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
दवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना ग्वँग् रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ग्वँग् सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तुजीवसे॥
तान् पूर्वया निविदाहूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ग्वँग् सोममश्विना शृणुतंधिष्ण्या युवम्॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमसे हूसहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं फश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरै रङ्गैस्तुष्टुवा ग्वँग् सस्तनू भिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता म पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥ सुशान्तिर्भवतु॥
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ || १९ मई २०१७

परमात्मा को समर्पण किस विधि से करें ? ---

 परमात्मा को समर्पण किस विधि से करें ? ---

श्रुति भगवती कहती है ... प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते |
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || --मुण्डक,2/2/4,
अर्थात प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए |
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हे प्रभु, मैं स्वयं को बिना किसी शर्त के आप को सौंप रहा हूँ| तीर से जब बाण छूटता है तब उसका एक ही लक्ष्य होता है| वैसे ही मेरा एकमात्र लक्ष्य आप हैं, अन्य कुछ भी नहीं|
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आप भी मुझ अकिंचन पर अपनी परम कृपा कर के मुझे सदा याद रखें| आपकी यह प्रतिज्ञा है ... "मैं अपने भक्त का मृत्युकाल के समय यदि वे मेरा स्मरण न कर सकें तो मैं स्वयं उनका स्मरण करता हूँ और उन्हे परम गति प्राप्त करा देता हूँ|"
"अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम् |"
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हे प्रभु, मुझे अब और कुछ भी नहीं कहना है| आप सब जानते हो|
मैं आपका पूर्ण पुत्र हूँ, आपके साथ एक हूँ| ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :--- जब साधक को अपनी चेतना में प्रणव ध्वनि जिसे अनाहत नाद भी कहते हैं, सुननी आरम्भ हो जाए, और ईश्वर लाभ के अतिरिक्त अन्य कोई कामना भी नहीं रहे तो अन्य बीज मन्त्रों के जाप की आवश्यकता नहीं है| फिर साधक इस ध्वनि को ही सुनता रहे और ॐ ॐ ॐ ॐ .... का ही मानसिक जाप करता रहे| इस ध्वनी को सम्पूर्ण सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दे और अपने स्वयं के अस्तित्व को भी उसी में समर्पित कर दे|
एक बार आँख खोलकर अपनी देह को देखो और यह भाव दृढ़ करो कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि मैं सम्पूर्ण अस्तित्व और उससे भी परे जो है वह सब मैं ही हूँ| अपने आप को उस पूर्णता में समर्पित कर दें| परमात्मा का परम प्रेम यह ओंकार की ध्वनि ही है और वह परम प्रेम जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है वह परम प्रेम मैं ही हूँ| ॐ ॐ ॐ || ८ मार्च २०१७

मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---

 मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---

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हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का धर्म एक ही होता है , और वह है -- परमात्मा को पूर्ण समर्पण। इसके लिये निरंतर परमात्मा का स्मरण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, और उन्हीं में रमण करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त आत्मा का कोई धर्म नहीं होता। यही सनातन धर्म है। इससे अतिरिक्त बाकी सब धर्म के नाम पर अधर्म है। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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इस स्वधर्म का पालन इस संसार के महाभय से सदा हमारी रक्षा करेगा। भगवान का गीता में वचन है ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है| इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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इस स्वधर्म में मरना ही श्रेयस्कर है| भगवान कहते हैं ---
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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रात्री को सोने से पूर्व परमात्मा का ध्यान कर के सोयें, और प्रातःकाल उठते ही पुनश्च उनका ध्यान करें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। साकार और निराकार -- सारे रूप उन्हीं के हैं। प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को परासुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रारचक्र के मध्य) में रखें। इसे अपनी साधना बनाएँ। जो उन्नत साधक हैं वे अपनी चेतना को ब्रह्मरंध्र से भी बाहर परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव में रखें। अनंतता का बोध और और उसमें स्थिति होने पर आगे का मार्गदर्शन भगवान स्वयं करेंगे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२३

अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है ---

अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। और कुछ भी देखना बाकी नहीं है। जो सार की बात है उसे स्वीकार कर, असार को त्याग देना ही उचित है।

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बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वव्यापी परमात्मा स्वयं बिराजमान हैं। उनकी ओर दृष्टि स्थिर हो गई है। और कुछ भी देखने की इच्छा नहीं है। यह देह, यह अन्तःकरण, ये कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राएँ सब साथ छोड़ रही हैं। अब आत्मा का स्वधर्म ही मेरा स्वधर्म है। आत्मा का स्वधर्म है परमात्मा को समर्पण। भगवान की आज्ञा है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो। अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त करोगे।
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् -- तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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जब भगवान स्वयं इतनी बड़ी बात कह रहे हैं तो उनकी बात सुनें या संसार की? यहाँ इस संसार में अहंकार, लोभ और छल-कपट ही भरा पड़ा है। एकमात्र रक्षक स्वयं भगवान हैं। अब इस समय तो करुणा और प्रेमवश उन्होने मुझे अपने हृदय में स्थान दे रखा है। अगर यह छोड़ दिया तो और कोई ठिकाना भी नहीं है। जब अपना डेरा भगवान के हृदय में डाल ही दिया है, तो और कुछ देखने की इच्छा भी नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० जून २०२४

वासनात्मक चिंतन से -- जीवन में न चाहते हुए भी हमारा व्यवहार राक्षसी हो जाता है ---

वासनात्मक चिंतन से -- जीवन में न चाहते हुए भी हमारा व्यवहार राक्षसी हो जाता है। हम असुर/पिशाच बन जाते हैं, और गहरे से गहरे गड्ढों में गिरते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति न आने पाये, इसका एक ही उपाय है -- निरंतर परमात्मा का चिंतन, और परमात्मा को समर्पण। अन्य कोई उपाय नहीं है।

मैंने एक-दो बड़े बड़े ज्ञानी पुरुषों को भी जीवन में राक्षस होते हुए देखा है। हमारे विचार ही हमें गिराते हैं और विचार ही हमारा उत्थान करते हैं। जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। ॐ तत्सत् !! कृपा शंकर २० अगस्त २०२४

मैं तो एक सेवक मात्र हूँ, जिसका कार्य अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना है, और कुछ भी नहीं ---

मैं तो एक सेवक मात्र हूँ, जिसका कार्य अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करना है, और कुछ भी नहीं। मेरा कोई कर्तव्य नहीं है। मुझे कुछ भी नहीं आता। जो मेरे स्वामी करवाएँगे वही मुझसे होगा। जो कुछ भी करना है वह मेरे स्वामी ही करेंगे. मैं तो उनका एक उपकरण हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। मेरे स्वामी स्वयं परमात्मा हैं। मैं उनके साथ एक और उन्हीं का परमप्रेम हूँ। मैं पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से परे हूँ। . धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, और शुभ-अशुभ, --- इन सब द्वैतों से परे -- भगवान को समर्पित हो जाना -- ही सबसे बड़ा सार्थक निष्काम कर्मयोग है। किसी भी तरह की आकांक्षा या अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

ॐ ॐ ॐ !!

२२ सितंबर २०२१

परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है ---

परमात्मा की एक झलक जब भी मिल जाये तब अन्य सब गौण है। वे ही एकमात्र सत्य हैं, वे ही लक्ष्य हैं, वे ही मार्ग हैं, वे ही सिद्धान्त हैं, और सब कुछ वे ही हैं। उनसे परे इधर-उधर देखना भटकाव है। परमात्मा के लिए हमें पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा। कालचक्र घूम चुका है। बुरे दिन व्यतीत हो रहे हैं। राष्ट्रद्रोही आसुरी शक्तियों का नाश निश्चित है। भगवान उनके लिए अब काल हैं --

"कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः|
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः||११:३२||"
"तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्‌|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‌||११:३३||" (गीता)
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ॐ तत्सत् !!
२१ मई २०२४

भगवान की मेरी अवधारणा क्या है? ---


भगवान की मेरी अवधारणा क्या है?

परम प्रेम और समष्टि के ज्योतिर्मय विस्तार, और उस से भी परे की निरंतर अनुभूति ही मेरे लिए परमात्मा है| उसी में आनंद और तृप्ति है| अब तो कूटस्थ के परम ज्योतिर्मय आलोक में मुझे एक पुराण-पुरुष के दर्शन होते हैं| उन्हीं का ध्यान होता है| वे ही भगवान वासुदेव है, और वे ही परमशिव और नारायण हैं| इस से अधिक मुझे कुछ नहीं पता| धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, और शुभ-अशुभ, --- इन सब द्वैतों से परे ... भगवान को समर्पित हो जाना --- ही सबसे बड़ा सार्थक निष्काम कर्म है| किसी भी तरह की आकांक्षा या अपेक्षा नहीं होनी चाहिए| ॐ ॐ ॐ !! २४ नवंबर २०२०  

एक आध्यात्मिक साधक कभी -- धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, और सुख-दुःख की परवाह नहीं करता ---

एक आध्यात्मिक साधक कभी -- धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, और सुख-दुःख की परवाह नहीं करता। उसकी रुचि इन सब में नहीं होती। जैसे चुंबक की सूई सदा उत्तर दिशा में ही रहती है, वैसे ही प्रियतम परमात्मा के सिवाय उसे अन्य कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता। वास्तव में परमात्मा के सिवाय अन्य सब व्यर्थ है।
भगवान के चरण कमलों में आश्रय चाहोगे तो वे अपने हृदय में ही आश्रय दे देंगे।
ॐ तत्सत् !!
०७ जुलाई २०२२

परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

 परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

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जब हम स्वयं परमात्मा के समक्ष होते हैं, तब सारे उपदेश, आदेश, सिद्धान्त, मत-पंथ, संप्रदाय, मांग, कामना, आकांक्षा, अपेक्षा, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य आदि सब तिरोहित हो जाते हैं। हमारा समर्पण पूर्ण प्रेम और सत्यनिष्ठा से हो, अन्य कुछ भी नहीं। आध्यात्म में "भटकाव" बड़ा कष्टदायी है। भगवान सर्वत्र सदैव निरंतर हमारे समक्ष हैं, और क्या चाहिए? सदा उनकी चेतना में निरंतर बने रहो।
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शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती। भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र और सर्वदा हमारे साथ एक हैं। वे हमारे प्राण और अस्तित्व हैं। वे कभी हमसे पृथक नहीं हो सकते। कहीं कोई भेद नहीं है। हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। परमात्मा का ध्यान कीजिये, वे स्वयं को हमारे में व्यक्त करेंगे। यही सर्वश्रेष्ठ सेवा है, जो हम इस समय कर सकते हैं।
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निराश होने की आवश्यकता नहीं है। तमोगुण की प्रधानता से हम निराश हो जाते हैं। तमोगुण ही असत्य और अंधकार की शक्ति है। जिस समय जिस गुण की प्रधानता हमारे में होती है, उस समय वैसे ही हमारे विचार बन जाते हैं। तमोगुण के कारण हमें अपने चारों ओर का वातावरण बहुत अधिक अंधकारमय लगता है। लेकिन सत्य कुछ और ही है। यह जन्म हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मिला है। इसे नष्ट करना परमात्मा के प्रति अपराध है। आत्मज्ञान ही परम धर्म है।
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ॐ सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांति शांति शांति !!
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

जन्माष्टमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

जन्माष्टमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ --- >

भगवान के प्रति हमारा समर्पण पूर्ण हो। स्वयं के प्रयासों से हम भगवान को जान भी नहीं सकते, और पा भी नहीं सकते; लेकिन समर्पित होकर उनके साथ एक हो सकते हैं। जैसे जल की एक बूँद, महासागर को न तो जान सकती है, और न ही पा सकती है; लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक हो जाती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर बन जाती है। ऐसे ही स्वयं को भगवान में समर्पित कर हम उनके साथ एक हो जाते हैं।
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सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में है, और मैं सम्पूर्ण सृष्टि में हूँ। मेरे सिवाय कोई अन्य नहीं है। यह अनन्य भाव ही कैवल्यावस्था और अनन्य-भक्ति है। इस अनन्य भक्ति-भाव से पूर्णतः समर्पित होकर भगवान का ध्यान किया जाता है। हम भगवान से कुछ ले नहीं रहे, बल्कि उनको अपना सर्वस्व दे ही रहे हैं। अपने अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) को उन्हें समर्पित कर उनके सिवाय अन्य कुछ भी न सोचें।
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यह जन्म हमें भगवान की प्राप्ति के लिए ही मिला है, इसे व्यर्थ करना भगवान के प्रति अपराध है। भगवान की चेतना में हम पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से परे हो जाते हैं। सत्यनिष्ठा और परमप्रेम से समर्पित हो जाएँ। माया की शक्ति बड़ी प्रबल है, उसे निज प्रयास से पार पाना असंभव है। बिना भगवान की कृपा के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। भगवान की भक्ति (परमप्रेम) ही पार लगा सकती है। शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती, सिर्फ एक अभीप्सा होती है। निरंतर उनका स्मरण करो। उनकी कृपा से हमारे सब दुःख, कष्ट दूर होंगे। अपनी श्रद्धा पर दृढ़ रहो॥
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"विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥"
आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
कृपा शंकर
६ सितंबर २०२३