.
"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक
तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।" (कामायनी)
.
वर्तमान सभ्यता विनाश की ओर बहुत शीघ्रता से जा रही है। पूरे भारत में हिन्दू समाज की गति क्षीण हो गई है। हमारी प्रगति नहीं, बल्कि अवनति हो रही है। समाज व राजनीति में अच्छे विचारक और वक्ता नहीं रहे हैं। लोगों की रुचि साहित्य, आध्यात्म और ज्ञानवर्धन में बिलकुल भी नहीं रही है, या बहुत अधिक सीमित हो गई है।
.
विद्यार्थियों को ट्यूशन और कोचिंग से ही अवकाश नहीं मिलता। महिलाओं में भी मेलजोल, सामाजिक एकता और पारस्परिक प्रेमभाव लगभग समाप्त हो गया है। आज के युवा की अच्छे साहित्य में रूचि नहीं है। धर्म, समाज और राष्ट्र की चेतना लुप्त हो रही है। कोई अच्छे मार्गदर्शक भी नहीं दिखाई दे रहे हैं। बहुत अधिक अपराध बढ़ रहे हैं, और लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं।
.
कैसे हम अपनी संतानों को चरित्रवान बनायेंगे? कैसे हम राष्ट्रीय चरित्र का विकास करेंगे? इस की चिंता करने वाले भी बहुत कम लोग हैं। अच्छी अच्छी साहित्यिक और ज्ञानवर्धक पत्रिकाएँ निकलनी बंद हो गई हैं। समाचारपत्रों का आकार भी पहले से आधा हो गया है, और उनमें अच्छे-अच्छे लेख आने बंद हो गए हैं। बड़े अच्छे-अच्छे पुस्तकालय हुआ करते थे, जो अब बंद हो गए हैं। उन पर असामाजिक तत्वों ने अधिकार कर लिया है। समाज व देश की परिस्थितियों और स्वार्थी दिशाहीन नेतृत्व को देखकर बड़ी निराशा होती है।
.
उपसंहार ---
इन सब कमियों का कारण, मैं कहीं बाहर नहीं, अपने भीतर ही पाता हूँ। मैं स्वयं ही स्वयं से दूर चला गया हूँ, इसीलिए इस सृष्टि में सब कमियाँ हैं। मेरे में पूर्णता होगी तो समाज और राष्ट्र फिर से गति पकड़ेंगे, व उन्नति की ओर अग्रसर होंगे। इस और से मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ। मेरा निजी पतन ही बाहरी जगत का पतन है। मैं स्वयं की कमियों को आध्यात्मिक स्तर पर दूर करूँगा, तभी बाहरी जगत की कमियाँ दूर होंगी। मेरी स्वयं की आध्यात्मिक गति तीब्र होगी, तभी समाज और राष्ट्र की भी होंगी। दोष मेरा ही है, किसी अन्य का नहीं। इसे मुझे ही स्वयं से दूर करना होगा।
उपनिषदों में जिस भूमा-तत्व की चर्चा की गई है, वही मुझे संतुष्ट कर सकता है, उससे कम कुछ भी नहीं। "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति॥" यह संसार मेरा ही प्रतिबिंब है। जो कुछ भी बाहर परिलक्षित हो रहा है, वह केवल मैं स्वयं हूँ, कोई अन्य नहीं।
.
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ जून २०२३