मैं कहाँ हूँ?
मुझे सदा भगवान के चरण-कमलों में ही लीन पाओगे। मेरा निवास निरंतर वहीं है। कभी कभी भटक जाता हूँ, लेकिन घूम फिर कर वहीं लौट आता हूँ। हम वहीं हैं, जहां हमारा मन है। मन को सदा परमात्मा में रखें व निरंतर उनकी चेतना में रहें। भगवान कहते हैं --
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग कर के और मन से ही इन्द्रिय-समूह को सभी ओर से हटाकर, धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा संसार से धीरे-धीरे उपराम हो जाय और परमात्मस्वरूप में मन-(बुद्धि-) को सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको एक परमात्मामें ही लगाये। जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता॥
.
उपरोक्त -- भगवान का आदेश है, जिसका पालन करना हमारा परमधर्म है। वायुपुराण में भगवान का आश्वासन है कि यदि किसी विशेष परिस्थिति में उनका भक्त उन्हें भूल जाये तो भगवान ही उसे याद कर लेते हैं।
हे प्रभु, मुझे सदा अपने चरण-कमलों में और अपने हृदय में रखो। मेरी कोई अन्य गति नहीं है। ॐ ॐ ॐ !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२५