Tuesday, 4 November 2025

बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है ---

 बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है। वह समय को नष्ट करना है। हमारी श्रद्धा सात्विक है या राजसिक या तामसिक, इनके भी अलग-अलग फल है। श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय "श्रद्धात्रय विभाग योग" में इसका स्पष्ट निर्देश है। जिस साधना में श्रद्धा नहीं है वह भूल कर भी नहीं करनी चाहिए। उससे कुछ भी नहीं मिलेगा। परमात्मा (और जगन्माता) के जिस भी रूप में आपकी श्रद्धा है, उसी की साधना करनी चाहिए। गीता के अनुसार जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न तो इस लोक में, और न ही मृत्यु के पश्चात (उस लोक में) लाभदायक होता है।

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जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, उन द्विजों को गायत्री जप, प्राणायाम और सविता देव की भर्गः ज्योति का ध्यान नित्य नियमित पूर्ण श्रद्धा सहित करना चाहिए। तत्पश्चात वे किसी उद्देश्य विशेष के लिए इस के साथ साथ अन्य साधना भी कर सकते हैं।
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गीता के अनुसार परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम --"ॐ-तत्-सत्" है। ऊँ, तत् और सत् -- इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है। वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले श्रद्धालुओं की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा -- "ऊँ" --- इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। गीता के सत्रहवें अध्याय में इसका स्पष्ट निर्देश है। (गीता के आठवें अध्याय के अनुसार तो हर समय निरंतर हमें मूर्धा में ओंकार का जप करते रहना चाहिये)। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
११ अक्तूबर २०२५

जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें ---

 लगभग पच्चीस-तीस वर्षों पूर्व वेदान्त के शिखर पुरुष स्वामी रामतीर्थ के लेखों का संग्रह "In woods of God-realization" (आठ खंडों में) पढ़ा था। उस समय मेरी सम्पूर्ण चेतना में वेदान्त ही वेदान्त छा गया था। स्वामी रामतीर्थ के सारे प्रवचन १८वीं शताब्दी में बोली जाने वाली अङ्ग्रेज़ी भाषा में ही उपलब्ध हैं, जिनका संकलन उनके मित्र सरदार पूरण सिंह ने किया था। बाद में लखनऊ के स्वामी रामतीर्थ प्रतिष्ठान ने उनका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध करवाया था, जो सौलह छोटी पुस्तकों के रूप में उपलब्ध था। अपने स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को तो उन्होंने अमेरिका से बापस आते समय समुद्र में, और उत्तराखंड में स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया था। उनका जो भी साहित्य उपलब्ध है वह उनके मित्रों द्वारा संग्रहित है।

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दीपावली आने वाली है। दीपावली के दिन ही वे पंजाब में (अब पाकिस्तान का भाग) अवतृत हुए थे और दीपावली के दिन ही उन्होने उत्तराखंड में गंगा जी में जीवित समाधि ले ली थी।
अमेरिका जाने से पूर्व वे लाहौर विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे।
वे पहले और अंतिम ऐसे गैर मुसलमान थे जिन्हें Cairo (Egypt) की मुख्य मस्जिद में प्रवचन देने के लिये निमंत्रित किया गया था। वहाँ फारसी भाषा में उन्होंने वेदान्त पर अपना बहुत प्रसिद्ध भाषण दिया था जो पुस्तक रूप में भी छपा था। भारत में भी वह उपलब्ध था। अब पता नहीं।
जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें। धन्यवाद॥

भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

 भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

(प्रश्न १) कोई व्यक्ति जो अपने परिवार, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है?
(प्रश्न २) ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा?
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विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन, मुझे उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल चुका है जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ। ये अति गहन प्रश्न हैं लेकिन उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह बात है कि भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता।
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विवाह या किसी opposite sex का साथ हानिकारक नहीं होता है, लेकिन उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाये कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है, और इस से अपकार ही होता है। वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर ही उठना होगा। सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं। यह एक अवस्था है। यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो। इसमें सुकरात, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा।
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हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं। ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं। परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें। यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते।
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है। यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे। जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही। आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं।
पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये। उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये। स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में परमात्मा को देखिये। आप की साधना उनकी भी साधना है। आप का ध्यान उन का भी ध्यान है। आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये।
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के। उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं। और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिये। इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हैं। अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइये, उसे सीमित मत कीजिये।
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म संतान रूप में होगा। यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है। ईश्वर की प्रेरणा से ही मैं यह सब यह लिख पाया हूँ।
आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ। आप सब को प्रणाम। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ अक्टूबर २०२५

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है ---

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है। इसके निवारण के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दो उपाय बतलाए हैं -- अभ्यास और वैराग्य। विवेक विचार से उत्पन्न हुआ स्वभाविक वैराग्य हमें परमात्मा की ओर ले जाता है, और निराशा व दुःख से उत्पन्न हुआ वैराग्य हमें बापस संसार में ले आता है। अतः अभ्यास करते रहें। दुःख से उत्पन्न हुए वैराग्य की ओर ध्यान न दें। अपना मन केवल भगवान में ही लगायें। आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे। निःस्पृह होना भी वैराग्य है।

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वैराग्य उत्पन्न हो तो किसी भी तरह का दिखावा न करें और न बिना सोच विचार के कोई निर्णय लें। भावुकता एक धोखा है, भावुकता से बचें। अपने पास क्या साधन हैं, और हम उनका क्या सदुपयोग कर सकते हैं इस पर विचार अवश्य करें। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१४ अक्तूबर २०२५

"हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम !!" ---

 "हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम !!" ---

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उथल-पुथल भरे इस वर्तमान समय की सबसे बड़ी व्यक्तिगत समस्या भगवान के प्रति परम प्रेम को बनाये रखना है। सारा वातावरण ही विपरीत है, लेकिन इसमें हिम्मत नहीं हारनी है। कुछ दिन एकांत में ही रहना पड़े तो भी स्वीकार है।
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हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति यानि परमात्मा का साक्षात्कार करना है। ध्यान-मुद्रा में ध्यान के आसन पर बैठकर दृष्टिपथ भ्रूमध्य में स्थिर कर के प्रत्येक आती हुई सांस के साथ अपनी ज्योतिर्मय चेतना का विस्तार सम्पूर्ण सृष्टि के अनंत विस्तार में करते रहें। सारी सृष्टि आप में, और आप सारी सृष्टि में है। वास्तव में आप नहीं, स्वयं भगवान श्रीहरिः ही यह साधना कर रहे हैं। आप को तो उनमें पूर्णतः समर्पित होना है। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। अपने भौतिक शरीर को भूल जाइये। ध्यान केवल सर्वव्यापी भगवान श्रीहरिः का ही हो। आप यह भौतिक शरीर नहीं, भगवान श्रीहरिः के साथ एक हैं, जो यह सारी सृष्टि बन गये हैं। पूर्ण या अर्ध खेचरी मुद्रा में बैठकर श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में बताई हुई विधि से मूर्धा में प्रणव का जप करते रहें। जिस दिन भगवान की परम कृपा से श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग समझ में आ जायेगा (यह निज बुद्धि से कभी भी समझ में नहीं आयेगा) उस दिन यह मान लेना कि आप सही मार्ग पर अग्रसर हैं। तब जैसे पृथ्वी चंद्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है, वैसे ही आप भी सभी को साथ लेकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर होंगे। आप यह भौतिक शरीर नहीं, स्वयं परमात्मा की अनंत चेतना हैं। मंगलमय शुभ कामनाएँ। आपका जीवन कृतार्थ और कृतकृत्य हो। हरिः ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१५ अक्तूबर २०२५

मेरी साधना ---

 साधना --- मेरा लक्ष्य केवल आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति है। जो भी कार्य मेरे माध्यम से हो रहा है, वह केवल परमात्मा ही कर रहे हैं। मेरा हरेक विचार व हरेक भाव केवल उन्हीं का है। ध्यान-साधना से अनुभूतिजन्य प्राप्त ज्ञान ही मेरा वास्तविक ज्ञान है, अन्य सब परमात्मा से प्राप्त मार्गदर्शन है। मेरी भक्ति (परमप्रेम और अनुराग) केवल परमात्मा के लिये है। जो भी साधना मेरे माध्यम से होती है, उसके कर्ता स्वयं परमात्मा हैं। जब मैं एकांत में होता हूँ तब मुझे केवल उन्हीं का प्रकाश दिखायी देता है, और उन्हीं की पवित्र ध्वनि सुनायी देती है। यही मेरी साधना है और यही मेरा जीवन है।

. जिस भी क्षण अपनी गहनतम चेतना में परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति हो, साधना के लिये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। साधना का एकमात्र उद्देश्य पूर्ण समर्पण के द्वारा परमात्मा के प्रति परम-अनुराग यानि परम-प्रेम को व्यक्त करना है, अन्य कुछ भी नहीं। इस समय मेरी अंतःचेतना में केवल परमात्मा हैं, उनके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं पता। मुझे अपने जीवन में बहुत कम लोग ऐसे मिले हैं, जिन्हें परमात्मा से परमप्रेम है, अन्य सब तो परमात्मा के साथ व्यापार ही कर रहे हैं। अब तो मुझे सभी में परमात्मा के दर्शन होते हैं, अतः कोई अंतर नहीं पड़ता।

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यह मेरे इस जीवन का संध्याकाल है, अतः मेरे पास किसी के लिए भी समय बिल्कुल नहीं है। सारा अवशिष्ट जीवन और समय परमात्मा को पूर्णतः समर्पित है। हरिः ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०२५

एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ---

 एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ---

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एक समय में हमें परमात्मा के एक ही आयाम की साधना करनी चाहिए, नहीं तो हमारी साधना एक गोरखधंधा बन जाती है। अंततः लौटकर बापस हमें एक पर ही आना पड़ेगा। ओशो के साहित्य में कहीं पढ़ा है कि हिन्दी भाषा का एक शब्द "गोरखधंधा" इसलिए पड़ा क्योंकि गुरु गोरखनाथ एक के बाद एक सिद्धियों के पीछे पड़े रहे और सृष्टि की सारी सिद्धियाँ उन्होने प्राप्त कर लीं। जब कुछ प्राप्त करने को बचा ही नहीं तब अपने शिवभाव में स्थित होकर उन्होंने सब सिद्धियाँ गंगाजी में विसर्जित कर दीं, और स्वयं शिव हो गये। तंत्र और योग में हमें जो भी ज्ञान उपलब्ध है वह सब उनके या उनकी परंपरा के सिद्ध योगियों से प्राप्त है।
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गुरु गोरखनाथ का जन्म आचार्य शंकर से भी बहुत पहले हुआ था। आचार्य शंकर का जन्म ईसा मसीह से ५०९ वर्ष पूर्व हुआ था। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिये आचार्य शंकर का जन्म आठवीं सदी में और गोरखनाथ का जन्म ग्यारहवीं सदी में बताया है। मुझे एक बहुत बड़े महात्मा ने बताया है कि आचार्य शंकर के समक्ष गुरु गोरखनाथ स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने आचार्य शंकर को श्रीविद्या (श्रीललितामहात्रिपुरसुंदरी) की दीक्षा दी। मैं अपनी अंतर्प्रज्ञा से भी यह बात सत्य मानता हूँ।
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मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैं जो बड़े अच्छे और रहस्यमय साधक हैं, कई बार मैं उनसे आध्यात्मिक विषयों पर परामर्श भी करता हूँ। शिक्षा से वे एक इंजीनियर हैं, लेकिन उनकी बहुत गहरी दखल तंत्र-मंत्र में है, योग में भी है, और आयुर्वेद में भी। कई दुर्लभ औषधियों की उन्होने खोज की है और कुछ अप्रचलित चिकित्सा पद्धतियों की भी। तंत्र-मंत्र के अनेक प्रयोग उन्होंने स्वयं पर ही सफलतापूर्वक किये हैं। योग-साधना में भी बहुत गहराई है उनमें। मैं उनसे भी एक ही बात कहता हूँ कि एक ही दिशा में डटे रहो, लेकिन उनका स्वभाव कुछ अलग ही है।
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मुझे गर्व है कि पूरे भारत में मेरे बहुत अच्छे आध्यात्मिक मित्र हैं। मुझे उन पर गर्व है।
२२ अक्तूबर २०२५

आध्यात्मिक साधना परमात्मा से "कुछ प्राप्ति" के लिए नहीं, परमात्मा को अपने सर्वस्व के पूर्ण समर्पण, और परमात्मा के साथ एक होने हेतु होती है --- .

आध्यात्मिक साधना परमात्मा से "कुछ प्राप्ति" के लिए नहीं, परमात्मा को अपने सर्वस्व के पूर्ण समर्पण, और परमात्मा के साथ एक होने हेतु होती है ---

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हमें "पूर्णता" का ही चिंतन, मनन और ध्यान करना चाहिये। कुछ पाने की आकांक्षा हमारा अज्ञान है। केवल परमात्मा में ही मोक्ष, मुक्ति और स्वतन्त्रता है। एक क्षण के लिए भी परमात्मा को न भूलें, निरंतर उनका अनुस्मरण (Recollection) करते रहें। गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
(तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च। मयि अर्पित मन बुद्धि: माम् एव एष्यसि असंशय॥)
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहर्न्मानुस्मरण।
यः प्रयति त्यजन्देहं स याति परमं गतिम्॥८:१३॥"
(ॐ इत्येकक्षरं ब्रह्म व्याहारं मम अनुस्मरण। यः प्रयाति त्यजं देहं स याति परमं गतिम्॥)
अर्थात् -- जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
और कुछ भी अन्य इस समय लिखने योग्य नहीं है। भगवान का अनुस्मरण (Recollection) हर समय करते रहें। यही पूर्णता का द्वार है। पूर्णता केवल परमात्मा में हैं, केवल परमात्मा ही पूर्ण हैं। जैसे मिठाई खाने से मुँह मीठा होता है वैसे ही परमात्मा का स्मरण करने से जीवन आनंदित रहता है। जीवन उद्देश्यहीन न हो। एकमात्र उद्देश्य है जीवन में परमात्मा का अवतरण। अन्य सब बातें व्यर्थ और समय की बर्बादी है। जिस की आज्ञा से यह सारी सृष्टि चल रही है, उसके साथ एक होकर ही हम असत्य और अंधकार की शक्तियों को पराभूत कर सकते हैं। बीच में कोई कामना नहीं आनी चाहिए।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
२३ अक्तूबर २०२५

परमात्मा को अपनी पूर्ण निष्ठा से वचन दें कि हम उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं ---

 परमात्मा को अपनी पूर्ण निष्ठा से वचन दें कि हम उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं ---

हमारे जीवन का लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार है। यदि सच में हम उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं तो नित्य एक डायरी में लिखें कि हमने आज के दिन कितनी देर तक परमात्मा का ध्यान, जप और भजन आदि किया। हमारा आज का ध्यान बीते हुए कल से अधिक गहन और दीर्घ होना चाहिए।
यह एक प्रतिबद्धता है जो हमारे और परमात्मा के मध्य में है। यह हमारे श्रद्धा और विश्वास की परीक्षा है। हर महीने जांच करें कि हमने कितनी प्रगति की है। यदि हम नित्य नियमित साधना नहीं करते हैं तो आज से और इसी क्षण से आरंभ कर दीजिए। यदि हम नित्य साधना करते है तो उसकी गहनता और गुणवत्ता को बढ़ाने का प्रयास करते रहें। एक बात याद रखें कि हम भगवान को धोखा नहीं दे सकते, क्योंकि वे हमारे भीतर ही बिराजमान हैं।
मेरे इस लेख में कोई कमी कभी दिखायी देगी तो मैं उसका संशोधन करता रहूँगा। आप सभी महान आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०२५

पूर्वाञ्चल के लोग छठ पूजा अवश्य मनाते हैं ---

छठ पूजा -- पहिले केवल पूर्वाञ्चल (बिहार, झारखंड, और पूर्वी उत्तर-प्रदेश) के लोगों के साथ ही पहिचानी जाती थी, अब पूरे भारत में इसे लोग जानते हैं। इसका कारण है कि पूर्वाञ्चल के लोग पूरे भारत में कार्यरत हैं। वे अपनी सांस्कृतिक पहिचान के प्रति पूर्ण सजग हैं। वे कहीं भी हों, छठ महापर्व को अवश्य मनाते हैं।

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पूर्वाञ्चल की अब और उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि इस समय वहाँ पढ़ाई-लिखाई सबसे अधिक हो रही है, सबसे अधिक IAS और IPS का चयन, और IITs और IIMs में सबसे अधिक चयन पूर्वाञ्चली (विशेष रूप से बिहारी) नवयुवक/नवयुवतियों का हो रहा है। वहाँ के नवयुवक और नवयुवतियाँ खूब परिश्रम कर रहे हैं।
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वास्तव में अंग्रेजों के समय से ही बिहार को जान-बूझकर पिछड़ा हुआ रखा गया क्योंकि अंग्रेजों का सबसे अधिक विरोध वहाँ हुआ था। अंग्रेजों ने वहाँ जनरल जेम्स जॉर्जस्मिथ नील नाम के एक अति क्रूर और भयानक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी को नियुक्त किया था जिसका उद्देश्य ही वहाँ के लोगों की हत्या करना और गाँवों को जला कर नष्ट करना था। लेकिन सन १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतन्त्रता सेनानियों ने उसे लखनऊ व कानपुर में उलझा दिया और २५ सितंबर १८५७ को लखनऊ में उसे मार दिया। उसके व हेवलॉक और रोज जैसे क्रूर और भयानक जनरलों के सम्मान में अंग्रेजों ने अंडमान द्वीप समूह में कुछ द्वीपों के नाम रखे थे। उन नामों को वर्तमान केंद्र सरकार ने बदला है। इस नराधम नील और उसके साथी ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों ने बिहार के सैंकड़ों गांवों को जला दिया और लाखों भारतियों की हत्या करवायी थी।
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आज़ादी के बाद भी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बिहार को जानबूझ कर पिछड़ा हुआ रखा ताकि वहाँ से सस्ते मजदूर भारत के अन्य भागों को मिल सकें। यदि सेठ डालमिया जी (मूल रूप से चिड़ावा, जिला झुंझुनूं निवासी) आबाद रहते तो बिहार आज महाराष्ट्र जितना उन्नत होता। उन्हें नेहरू ने झूठे मामलों में फंसा कर बर्बाद कर दिया क्योंकि वे स्वामी करपात्री जी के शिष्य और एक कट्टर हिन्दू थे। उनके सारे उद्योग-धंधे बिहार में थे, और वे पूरे बिहार और उड़ीसा का पूर्ण औद्योगीकरण करने की क्षमता रखते थे।
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बात छठपूजा से चली थी, जिसका समापन भी छठपूजा पर चर्चा से ही कर रहा हूँ जिसका समापन आज प्रातः सूर्य को अर्घ्य देकर हो गया है। मेरे अनेक परिचित और मित्र भारत के पूर्वाञ्चल में हैं। सभी श्रद्धालुओं को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
२८ अक्तूबर २०२५

आध्यात्मिक साधना द्वारा हमारे ऊपर परमात्मा की पूर्ण कृपा कैसे हो ? --

 आध्यात्मिक साधना द्वारा हमारे ऊपर परमात्मा की पूर्ण कृपा कैसे हो ? ---

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भक्ति, योग व तंत्र की साधनाओं में मूलाधार चक्र का जागृत होना बड़ा आवश्यक है। उसके बिना कोई प्रगति नहीं होती। मूलाधार चक्र के पूरी तरह जागृत हुए बिना ध्यान-साधना में तो बिल्कुल भी सफलता नहीं मिलती। मूलाधार चक्र के अधिपति श्रीगणेश जी हैं। उन्हीं की अनुकंपा से सारे विघ्न दूर होते हैं। इस विषय पर मार्गदर्शन अपनी अपनी गुरु-परंपरा से ही प्राप्त हो सकता है।
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हम स्वभावतः उसी मत या संप्रदाय की ओर आकृष्ट होते हैं, जिस के संस्कार हमारे में पूर्वजन्मों से होते हैं। लेकिन सत्य तो यह है कि वही मत, सिद्धान्त, और मान्यता सर्वश्रेष्ठ है, जो हमें शीघ्रातिशीघ्र ईश्वर की प्राप्ति यानि आत्म-साक्षात्कार करा दे। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है। जो हमारे में परमात्मा के प्रति परमप्रेम जागृत कर हमें सच्चिदानंदमय बना दे, वही मत सर्वश्रेष्ठ है। जो हमें ईश्वर से दूर ले जाये वह सिद्धान्त गलत है।
. अपनी आध्यात्मिक साधना का आरंभ मूलाधारचक्र में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से गणेश जी के ध्यान से आरंभ करें --
"ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।"
उपरोक्त मंत्र का मूलाधारचक्र पर दिन में दो बार सायं और प्रातः १०८ बार जप इतना अधिक लाभदायक होगा, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
यदि श्रद्धा और विश्वास नहीं है, तो कोई साधना मत करें। बिना श्रद्धा और विश्वास से की गई कोई साधना सफल नहीं होती। साधनाकाल में अपनी चेतना को कूटस्थ में रखें।
पञ्चदेवोपासना का मैं पूर्ण समर्थक हूँ। हमारा मेरुदंड -- भगवान की वेदी है। वही हमारा मंदिर है। मेरुदंड के चक्रों में पंचदेवोपासना करें। फिर आज्ञाचक्र पर ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें।
यदि आप द्विज हैं, यानि आपका उपनयन संस्कार हो चुका है तो सायं प्रातः संध्या करें, और सविता देव की भर्गः ज्योति का कूटस्थ में खूब ध्यान करें। निरंतर कूटस्थ-चैतन्य / ब्राह्मी-चेतना / कैवल्य में स्थित रहने का प्रयास करें। श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ अच्छी तरह समझते हुए कम से कम पाँच मंत्रों का नित्य स्वाध्याय करें। आप पर परमात्मा की पूर्ण कृपा होगी।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ अक्तूबर २०२५

हमारा जीवन अशांत क्यों है? ---

  (प्रश्न) : हमारा जीवन अशांत क्यों है?

(उत्तर) : जीवन में अशांति कोई रोग नहीं, रोग का एक लक्षण है। कहीं न कहीं हम कोई भूल कर रहे हैं। स्वयं के सच्चिदानंद रूप, यानि आत्म-तत्व की विस्मृति ही हमारी अशांति का एकमात्र कारण है। अन्य कोई कारण नहीं है। हम अपने परमशिव सच्चिदानंद रूप का ही निरंतर ध्यान करेंगे, तो जीवन में कोई अशांति नहीं होगी।
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ध्यान के जिस आसन पर मैं बैठा हूँ, वह मेरा सिंहासन है। जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह सब और उससे भी परे जो कुछ भी है, वह मैं स्वयं हूँ। मेरा अस्तित्व ही मेरा साम्राज्य है, जिसका मैं चक्रवर्ती सम्राट हूँ। सम्पूर्ण सृष्टि ही मैं हूँ, अतः कोई कामना नहीं है। मेरे भूत, भविष्य व वर्तमान के सारे पाप-पुण्य, और मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व -- परमात्मा को समर्पित है। मेरा जीवन शांत है। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्तूबर २०२५

मेरी नौका के एकमात्र कर्णधार वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण हैं, वे स्वयं ही यह नौका हैं, और वे ही यह "मैं" बन गए हैं ---

 मैं इस समय किनारे पर बैठा हुआ, आने वाले समय के लिए पूरी तरह तैयार हूँ। स्वयं को छोड़कर किसी भी अन्य पर कोई भरोसा नहीं रहा है। मेरी नौका के एकमात्र कर्णधार वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण हैं, वे स्वयं ही यह नौका हैं, और वे ही यह "मैं" बन गए हैं। जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह भी वे ही हैं। अन्य सब मिथ्या है।

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"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
अर्थात् -- और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं॥
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात् -- जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥८:२२॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है॥
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणत: क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च।
जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
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"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह॥" (कामायनी)
(उस पुरुष की तरह मैं भी एक साक्षी की तरह इस संसार का अवलोकन कर चुका हूँ जो किसी प्रलय से कम नहीं है)
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हरि: ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३ नवंबर २०२५

७ नवंबर १९१७ से पेत्रोग्राद (अब सेंट पीटर्सबर्ग ) में आरंभ हुई बोल्शेविक क्रांति को ७ नवंबर २०२५ को १०८ वर्ष हो जायेंगे ---

 ७ नवंबर १९१७ से पेत्रोग्राद (अब सेंट पीटर्सबर्ग ) में आरंभ हुई बोल्शेविक क्रांति को ७ नवंबर २०२५ को १०८ वर्ष हो जायेंगे। यह विश्व की एक अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके पश्चात मार्क्सवादी (साम्यवादी) शासनों की स्थापना का क्रम आरंभ हुआ। ५८ वर्ष पूर्व 7 नवंबर १९६७ को इस क्रांति की ५०वीं वर्षगांठ पर मैं रूस में मनाए जा रहे उत्सवों का साक्षी था।

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एक समय था जब मैं मार्क्सवाद से बहुत अधिक प्रभावित था। लेकिन अब बात दूसरी है। मैं इसे सर्वहारा की क्रांति ही नहीं मानता। इस ने विश्व में असत्य का अंधकार ही अंधकार बहुत अधिक फैलाया। अब निष्पक्ष दृष्टि से सोचता हूँ तो यह वोल्गा नदी में खड़े क्रूजर युद्धपोत 'अवरोरा' से आरंभ हुआ तत्कालीन परिस्थितियों में एक सैनिक विद्रोह था, जिसे जर्मनी की सहायता से लेनिन ने रूस में आकर बोल्शेविक क्रांति का रूप दे दिया। रूस का तत्कालीन शासक ज़ार निकोलस रोमानोव एक अक्षम और बहुत कमजोर भोला-भाला शासक था। उसके समय भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। वह रूस की सेना के तोपखाने में एक कर्नल रह चुका था। शासक की योग्यता उसमें नहीं थी। अगर वह सक्षम होता तो बात दूसरी ही होती। उस समय रूस का पूरा शासक वर्ग ही भ्रष्ट था। मार्क्सवादी बोल्शेविक क्रांति के बारे में कुछ भी टिप्पणी करने से पूर्व तत्कालीन विकट परिस्थितियों को समझना आवश्यक है। मेरे विचार से वह एक त्रासदी थी, कोई क्रांति नहीं।
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जो भी हुआ, मनुष्यता को उस अनुभव से निकलना था। इसी लिए मनुष्य रचित ये सारे वाद आये। इससे अधिक मैं नहीं लिखना चाहता।
कृपा शंकर
४ नवंबर २०२५

हृदय में परमात्मा से प्रेम के बिना हम सब एक नाक कटी हुई सुन्दर नारी की तरह हैं --- .

 हृदय में परमात्मा से प्रेम के बिना हम सब एक नाक कटी हुई सुन्दर नारी की तरह हैं ---

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मैं अपने विचारों पर दृढ़ हूँ। जो मेरे विचारों से सहमत नहीं हैं, वे मेरे मित्र-संकुल का त्याग कर सकते हैं। यह मेरे ऊपर उनका एक बहुत बड़ा उपकार होगा। मैं सिर्फ उन्हीं का साथ चाहता हूँ, जिनके हृदय में कूट कूट कर परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम भरा पड़ा हो, जो ईश्वर को उपलब्ध होना चाहते हों, और जिनके हृदय में भारतवर्ष व सनातन धर्म के प्रति पूर्ण प्रेम हो।
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मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं। मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है। आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं। जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब व्यक्तिगत मोक्ष और कल्याण की कामना धर्म नहीं हो सकती।
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सब ओर से निराश होकर बड़ी कठिनाई से हम परमात्मा के सम्मुख आ पाये हैं। इसे शरणागति मानकर उन्हें हमारा समर्पण स्वीकार करना ही होगा। कुछ करने की ऊर्जा भी नहीं रही है। अब तो स्वयं परमात्मा को हमारे हृदय-मंदिर में पधार कर अपना स्थायी डेरा डालना होगा। सारी प्रार्थनाएँ हम भूल गये हैं। अब कोई साधना नहीं होती। हम तो उनके उपकरण मात्र हैं, जिसे वे ही संभाल सकते हैं। हमारे वश में कुछ भी नहीं है। हृदय में परमात्मा से प्रेम के बिना हम सब एक नाक कटी हुई सुन्दर नारी की तरह हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ नवंबर २०२५