Thursday, 29 May 2025

हम भगवान के साथ एक हैं

  हम भगवान के साथ एक हैं

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भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, न तो कोई उनका प्रिय है और न अप्रिय। लेकिन जो उनको प्रेम से भजते हैं, भगवान उनमें हैं, और वे भी भगवान में हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् - मैं समस्त भूतों में सम हूँ, न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय, परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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वे सभी प्राणियों के प्रति समान हैं। उनका न तो कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय। वे अग्नि के समान हैं। जैसे अग्नि अपने से दूर रहने वाले प्राणियों के शीत का निवारण नहीं करता, पास आने वालों का ही करता है, वैसे ही वे भक्तों पर अनुग्रह करते हैं। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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भगवान कहते हैं --
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥"
अर्थात् - जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥
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जो सर्वात्मभाव में है वह भगवान के साथ एक है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२४

जो सर्वात्मभाव में है वह परमात्मा के साथ एक है ---

 जो सर्वात्मभाव में है वह परमात्मा के साथ एक है ---

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पता नहीं क्यों, मुझे आज का दिन बहुत अधिक शुभ लगता है​। आज का दिन बहुत अधिक शुभ है, क्योंकि आज प्रातः जब मैं सो कर उठा, तब एक अति अति दुर्लभ दिव्य चेतना में था जो सामान्य नहीं है। ऐसी अनुभूतियाँ बहुत दुर्लभ होती हैं, जो जीवन में कभी कभी ही होती है। इन अनुभूतियों का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि ये शब्दों से परे होती हैं। एक बात स्पष्ट है कि भगवान हमें भूलते नहीं हैं, हम ही उनको कभी कभी भूल जाते हैं। वे स्वयं ही फिर हमें याद कर लेते हैं।
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भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, न तो कोई उनका प्रिय है और न कोई अप्रिय। लेकिन जो उनको प्रेम से भजते हैं, भगवान उनमें हैं, और वे भी भगवान में हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९॥"
अर्थात् - मैं समस्त भूतों में सम हूँ, न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय, परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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भगवान सभी प्राणियों के प्रति समान हैं| उनका न तो कोई द्वेष्य है और न कोई प्रिय है| वे अग्नि के समान है .... जैसे अग्नि अपने से दूर रहने वाले प्राणियों के शीत का निवारण नहीं करता, पास आने वालों का ही करता है, वैसे ही वे भक्तों पर अनुग्रह करते हैं|
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भगवान ने कहा है .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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जो सर्वात्मभाव में है वह भगवान के साथ एक है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२४

मृत्यु शाश्वत सत्य नहीं, जीवन ही शाश्वत सत्य है। हे मृत्यु, तेरी विजय और तेरा दंश कहाँ है? तुम्हारा अस्तित्व मिथ्या है ---

 मृत्यु नहीं, जीवन ही शाश्वत सत्य है। हे मृत्यु, तेरी विजय और तेरा दंश कहाँ है? तुम्हारा अस्तित्व मिथ्या है।

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भौतिक व मानसिक चेतना में मुझे चारों ओर से मृत्यु ने घेर रखा है। यह मैं स्पष्ट देख रहा कि मृत्यु मेरे सिर पर मंडरा रही है, लेकिन मैं निर्भय हूँ, क्योंकि गुरुकृपा से मृत्यु से पार जाने का मार्ग भी दृष्टि गोचर हो रहा है, जिसके अंत में स्वयं भगवान श्रीहरिः बिराजमान हैं। उस मार्ग का पथिक होने के सिवाय अन्य कोई दूसरा विकल्प नहीं है। एक दिन ये भौतिक, सूक्ष्म, और कारण शरीर, व अपनी तन्मात्राओं सहित ये सारी इंद्रियाँ, और अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) नष्ट हो जाएँगे, लेकिन एक शाश्वत दिव्य चेतना सदा बनी रहेगी, जो में स्वयं हूँ। मृत्यु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
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भौतिक-शरीर तो एक आधार है। वास्तविक चेतना सूक्ष्म-शरीर में होती है। यह भौतिक संसार -- तमोगुण व रजोगुण से चल रहा है। सतोगुण तो उनमें एक संतुलन बनाये रखता है। इस संसार में जिनके हृदय में स्वयं नारायण यानि भगवान विष्णु का निवास है, वे ही श्रीमान हैं, क्योंकि नारायण ने अपने हृदय में श्री को रखा हुआ है।
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जिनके हृदय में नारायण का निवास है, श्री का अनुग्रह/कृपा उन्हीं पर होती है। अपने हृदय मंदिर में नारायण को सदा बिराजित रखें। इसी मंगलमय शुभ कामना के साथ आप सब के हृदय में नारायण को नमन !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२३

मेंरे से बाहर कोई समस्या नहीं है, सारी समस्या मैं स्वयं हूँ .....

 मेंरे से बाहर कोई समस्या नहीं है, सारी समस्या मैं स्वयं हूँ .....

यह समस्या अति विकट है| हे कर्णधार, इस समस्या का हल तुम्ही हो |
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"दीनदयाल सुने जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है |
तेरो कहाये कै जाऊँ कहाँ, अब तेरे ही नाम की फ़ेंट कसी है ||
तेरो ही आसरो एक मलूक, नहीं प्रभु सो कोऊ दूजो जसी है |
ए हो मुरारी ! पुकारि कहूँ, मेरी नहीं, अब तेरी हँसी है ||"
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सभी समस्याएँ प्राणिक (Vital) और मानसिक (Mental) धरातल पर उत्पन्न होती हैं| उन्हें वहीं पर निपटाना होगा| पर वहाँ माया का साम्राज्य इतना प्रबल है जिसे भेदना हमारे लिए बिना हरिकृपा के असम्भव है|
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हमारी एकमात्र समस्या है ..... परमात्मा से पृथकता|
यह बिना शरणागति और समर्पण के दूर नहीं होगी| इस विषय पर बहुत अधिक लिख चुका हूँ, अब और लिखने की ऊर्जा नहीं है| परमात्मा का ध्यान और चिंतन भी सत्संग है| हमें चाहिए सिर्फ सत्संग, सत्संग और सत्संग|
यह निरंतर सत्संग मिल जाए तो सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हो जायेंगी|
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हे प्रभु, तुम्हारे चरणों में पूर्ण प्रीति बनी रहे इसके अतिरिक्त अब अन्य कोई इच्छा नहीं है| तुम्हें निवेदन तो कर दिया है पर यह अर्जी भी कभी ना कभी तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी| 'आशा' पिशाचिन नहीं पालना चाहता, अतः ना भी करें तो कोई बात नहीं|
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हे प्रभु, आप के भक्तों की आप से कोई पृथकता नहीं हो, आप के वे पूर्ण उपकरण हों, और आपसे पृथक वे अन्य कुछ भी ना हों|
जिस पर भी उन की दृष्टी पड़े वह परम प्रेममय हो निहाल हो जाये| वे जहाँ भी जाएँ वहीं आपके प्रेम की चेतना सब में जागृत हो जाये| आपकी उपस्थिति से जड़ वस्तु भी चैतन्य हो जाये|
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आप के भक्तों में किसी भी तरह का कोई आवेग ..... भूख, प्यास, विषाद, भ्रम, बुढ़ापा और मृत्यु ना हो| वे सब प्रकार की अवस्थाओं ---- जन्म, स्थिति, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय और विनाश से परे हों|
हम सब आपके साथ एक हों और आपके पूर्ण पुत्र हों| आपकी जय हो|
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>>>> हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती इसका मुख्य कारण है.... असत्यवादन| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं होती|
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>>>> सत्य और असत्य के अंतर को शास्त्रों में, और विभिन्न मनीषियों ने स्पष्टता से परिभाषित किया है| सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानी हो वह सत्य भी असत्य है|
>>>> जिस की हम निंदा करते हैं उसके अवगुण हमारे में भी आ जाते हैं|
जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना करें उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिलेगी|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ मई २०१६