Monday, 21 April 2025

भगवान कितने उदार हैं ---

 भगवान कितने उदार हैं !!!

मेरी अंतर्चेतना में बार-बार कोई मुझसे कहता है --- तुम्हारे में चाहे लाख कमियाँ रही हों, लाखों बार तुम असफल रहे हो, लेकिन जब तुम प्रत्यक्ष परमात्मा से संवाद स्थापित कर पा रहे हो, तो अपनी कमियों, विफलताओं को भूल जाओ, और परमात्मा के प्रति निरंतर सजग रहो। तुम सफल हो, तुम शांत हो, तुम परमप्रेममय, आनंदमय, और भगवान के हृदय में हो। . परमात्मा के अथाह महासागर की हम एक लहर नहीं, स्वयं वह महासागर हैं, जो यह लहर बन गई है। परमात्मा का प्रकाश फैलाने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है, और भविष्य में भी होगा। हम यह नश्वर देह नहीं हैं, परमात्मा की ही पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। .
एक व्यक्ति चाहे तो अपनी निष्ठा और संकल्प से पूरे विश्व के घटनाक्रम को बदल सकता है| जिन का मानस ही अभाव-ग्रस्त है, जो आत्मग्लानि आत्महीनता के बोध से भरे हुये हैं, जो हर बात में दूसरों में व स्वयं में दोष देखते हैं, ..... ऐसे लोग संसार में कुछ भी सकारात्मक कार्य नहीं कर सकते| ऐसे लोगों के साथ से तो एकांत में भगवान का साथ अधिक अच्छा है|

ॐ स्वस्ति। ॐ ॐ ॐ॥ 22 अप्रेल 2020

महावीर जयंती --- --- (२५ अप्रेल २०२१)

 महावीर जयंती --- --- (२५ अप्रेल २०२१)

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सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सुख सबको प्रिय है, और दुःख अप्रिय। इसलिए हम जैसा व्यवहार दूसरों से स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें। किसी भी प्राणी को मारना, काटना या प्रताड़ित करना अमानवीय क्रूरता है। हम जीयें और दूसरों को भी जीने दें -- यह महावीर की शिक्षाओं का सार है।
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२५ अप्रेल २०२१ ई. को श्रमण परंपरा (जैन मत) के २४ वें व अंतिम तीर्थंकर महावीर की जयंती है। तीर्थंकर का अर्थ है जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते है और संसार-सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति है जिसने पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की है।
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महावीर का जन्म वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज-वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। १२ वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। यह श्रमण परम्परा ही कालान्तर में जैन धर्म कहलाई। जैन का अर्थ होता है जितेन्द्रिय, यानि जिस ने मन आदि इन्द्रियों को जीत लिया है।
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श्रमण परम्परा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष है। ऋषभदेव का उल्लेख वेदों में भी है और भागवत में भी। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को उच्चतम नैतिक गुण बताया। उनके पंचशील के सिद्धांत -- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य हैं। योग-दर्शन में ये ही 'यम' कहलाते हैं। उन्होंने अनेकांतवाद व स्यादवाद जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद है। यह महावीर का 'जीओ और जीने दो' का सिद्धांत है।
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श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों ही अति प्राचीन काल से चली आ रही हैं। इनमें अंतर यह है कि श्रमण परम्परा नास्तिक है और ब्राह्मण परम्परा आस्तिक। जो श्रुति (वेदों) में आस्था रखता है व श्रुति (वेदों) को अंतिम प्रमाण मानता है, वह आस्तिक है; और जो श्रुतियों में आस्था नहीं रखता वह नास्तिक है। श्रमण परम्परा श्रुति (वेदों) को अपौरुषेय नहीं मानती अतः नास्तिक परम्परा है। लेकिन इन दोनों में एक समानता भी है। ये दोनों परम्पराएँ आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धांत को मानती हैं।
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ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेदवाक्य को ही ब्रह्म-वाक्य मानता है।
श्रमण परम्परा में श्रमण वह है जो निज श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता है और जिसके लिए जीवन में ईश्वर की नहीं बल्कि श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती।
श्रमण परम्परा का आधार -- श्रमण, समन, शमन -- इन तीन शब्दों पर है। 'श्रमण' शब्द 'श्रमः' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'परिश्रम करना'। श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है। यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। 'समन' का अर्थ है, समताभाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना। जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरे के लिए भी बुरी है। ‘शमन' का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना।
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है। इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है।
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अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार तीर्थंकर महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व हुआ था, लेकिन आधुनिक भारतीय गणनाओं के अनुसार बुद्ध का जन्म ईसा से १८०० वर्ष पूर्व हुआ था, और तीर्थंकर महावीर उनसे आयु में ३० वर्ष बड़े थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने भारतीयों को नीचा दिखाने के लिए द्वेष व दुर्भावनावश भारत का गलत इतिहास लिखा है।
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मैं स्वयं तो एक सनातन धर्मी ब्राह्मण हूँ, और सम्मान सभी का करता हूँ। यह लेख मैं "महावीर इंटरनेशनल" संस्था की स्थानीय शाखा के ऊर्जावान सदस्य साथियों का अभिनन्दन करते हुये लिख रहा हूँ, जो समाजसेवा के विभिन्न कार्यों में लगे हुए हैं।
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अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा तैयार की गई भारत की नई शिक्षा नीति को बनाने में सबसे बड़ा योगदान आचार्य विद्यासागर जी का है, जो दिगंबर जैन मत के एक बहुत बड़े आचार्य हैं। उन्होने ही शिक्षानीति कैसी होनी चाहिए, इसका मूलभूत प्रारूप बनाया था, जिस पर बाद में समिति ने हजारों लोगो से सलाह ली, और अंतिम रूप दिया।
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सभी को नमन !! ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२१

मेरी उलटी खोपड़ी में भगवान ने एक दीपक जला रखा है ---

 

मेरी उलटी खोपड़ी में भगवान ने एक दीपक जला रखा है ---
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मुझे अब कहीं कोई दीपक जलाने की आवश्यकता नहीं रही है। भगवान ने ही मेरी उल्टी खोपड़ी में एक दीपक जला रखा है, जो बिना किसी ईंधन और बत्ती के निरंतर जलता रहता है। वह जलता ही नहीं है, बल्कि उसमें से भगवान की वाणी भी प्रणव रूप में निरंतर निःसृत होती रहती है। उस दीपक के प्रकाश में मैं पूरी समष्टि के साथ एक हूँ। मेरे से अन्य कोई नहीं है। मेरी खोपड़ी एक उल्टे कुएं की तरह गगन में लटकी हुई है। जिस भी साधक को वह चिराग दिखाई देता है, वह धन्य है।
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उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग।
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
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पानी का कुआँ तो सीधा होता है पर यह उलटा कुआँ हमारी खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है। उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का नित्य निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति -- ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि -- अनाहत नादब्रह्म है| यही राम नाम की ध्वनी है|
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'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सदगुरुओं के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है| बाहर हम जो दीपक जलाते हैं वे इसी कूटस्थ ज्योति के प्रतीक मात्र हैं| बाहर के घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उसी कूटस्थ अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं| ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं| ब्रह्म के दो स्वरुप हैं| पहला है "शब्द ब्रह्म" और दूसरा है "ज्योतिर्मय ब्रह्म"| दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| आज्ञा चक्र में नियमित रूप से ध्यान लगाने से ही ज्योतिर्मय और शब्द ब्रह्म की अनुभूति होती है|
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प्रिय निजात्मगण, आप सब की भावनाओं को नमन और मेरे लेख पढने के लिए आप सब का अत्यंत आभार| आप सब सदा सुखी एवं सम्पन्न रहें| आप की कीर्ति और यश सदा अमर रहे| आप सब इसी जन्म में परमात्मा को उपलब्ध हों।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२३

भगवान हैं, यही भगवान के होने का प्रमाण है ---

 भगवान हैं, यही भगवान के होने का प्रमाण है ---

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भगवान "हैं"। यह "हैं" शब्द ही प्रमाण है भगवान के होने का। वे इसी समय, हर समय, यहीं पर, और सर्वत्र हैं। मेरी श्रद्धा और विश्वास कभी भी भगवान को मुझसे दूर नहीं होने देंगे। जिनमें श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उन्हें भगवान की अनुभूति कभी भी नहीं हो सकती।
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रामचरितमानस के मंगलाचरण में कहा गया है --
"भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥"
अर्थात् - श्रद्धा-विश्वास के रूप में भवानी-शंकर की वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धों को भी ईश्वर के दर्शन नहीं होते।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४:४०॥"
"योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥४:४१॥"
अर्थात् - "श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥"
"अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख॥"
"जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं॥"
He who is full of faith attains wisdom, and he too who can control his senses, having attained that wisdom, he shall ere long attain Supreme Peace.
But the ignorant man, who has no faith, and the skeptic are lost. Neither in this world nor elsewhere is there any happiness in store for him who always doubts.
But the man who has renounced his action for meditation, who has cleft his doubt in twain by the sword of wisdom, who remains always enthroned in his Self, is not bound by his acts.
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वास्तव में जो कुछ भी हम प्राप्त करना चाहते हैं या होना चाहते हैं, उसे हमारी श्रद्धा और विश्वास ही प्रदान करते हैं। परमात्मा की कृपा भी हमारे ऊपर तभी होती है जब हमारे में श्रद्धा और विश्वास होते हैं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२३

गुरु वंदना जो नित्य हमें करनी चाहिए ---

 गुरु वंदना जो नित्य हमें करनी चाहिए ---

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"ॐ गं गणपतये नमः॥ श्रीगुरवे नमः॥ श्रीपरमगुरवे नमः॥ श्रीपरात्परगुरवे नमः॥
श्रीपरमेष्ठिगुरवे नमः॥ श्रीपरमात्मने नमः॥"
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥"
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"ॐ ऐं ह्रीं श्रीं गुरवे नमः॥"
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इस से आगे अपनी अपनी गुरु-परंपरा के अनुसार करे। पूजा श्रीगुरु की "चरण पादुका" की होती है, गुरु के देह की नहीं।
उपरोक्त लिखी गुरु-वंदना तो न्यूनतम और अनिवार्य है, जिसका विस्तार भी किया जा सकता है।
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ॐ तत्सत् ॥
२२ अप्रेल २०२४

हमारी भक्ति -- श्रद्धा और विश्वास के साथ-साथ अनन्य और अव्यभिचारिणी हो ---

हमारी भक्ति -- श्रद्धा और विश्वास के साथ-साथ अनन्य और अव्यभिचारिणी हो
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भगवान से भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मांगना व्यभिचार है। कुछ पाने के उद्देश्य से की गई भक्ति व्यभिचारिणी है। हमारी भक्ति में व्यभिचार न होकर बिना शर्त पूर्ण समर्पण हो। ॐ ॐ ॐ !!
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वास्तव में जो कुछ भी हम प्राप्त करना चाहते हैं या होना चाहते हैं, उसे हमारी श्रद्धा और विश्वास ही प्रदान करते हैं। परमात्मा की कृपा भी हमारे ऊपर तभी होती है जब हमारे में श्रद्धा और विश्वास होते हैं। जिनमें श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उन्हें भगवान की अनुभूति कभी भी नहीं हो सकती।
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रामचरितमानस के मंगलाचरण में कहा गया है --
"भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
अर्थात् - श्रद्धा-विश्वास के रूप में भवानी-शंकर की वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धों को भी ईश्वर के दर्शन नहीं होते।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४:४०॥"
"योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥४:४१॥"

अर्थात् - "श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥"
"अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख॥"
"जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है, ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं, ऐसे आत्मवान् पुरुष को, हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२४ .
पुनश्च: --- आजकल मेरी रुचि एक ही विषय में सीमित हो गयी है, वह है "परमात्मा से परमप्रेम।" अन्य सब और से रुचि हट रही है। अतः किसी की भी अपेक्षाओं पर मैं खरा नहीं उतर सकता। परमात्मा की निजी अवधारणा भी मेरी स्पष्ट है जो किसी के साथ साझा नहीं कर सकता। अब तक जो सीखा है वह पर्याप्त है। मेरा मार्ग ज्योतिर्मय और स्पष्ट है, कोई संशय नहीं है। गुरु और परमात्मा भी मेरे साथ एक हैं। आप सब के साथ मैं एक हूँ। कृपया मुझ से कोई अपेक्षा न रखे। मेरा समर्पण परमात्मा के प्रति ही है। आप सब को नमन !!

उलटी खोपड़ी में जल रहे दीपक का निरंतर सदा ध्यान करो ---

 उलटी खोपड़ी में जल रहे दीपक का निरंतर सदा ध्यान करो ---

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हम सब की उलटी खोपड़ी में भगवान ने एक दीपक जला रखा है। उस दीपक के प्रकाश का ही ध्यान करो जो बिना किसी ईंधन और बत्ती के निरंतर जलता रहता है। वह जलता ही नहीं है, बल्कि उसमें से भगवान की वाणी भी निरंतर निःसृत होती रहती है। जिस किसी भी मुमुक्षु को वह दीपक दिखाई देता है, वह धन्य है।
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पानी का कुआँ तो सीधा होता है पर यह उलटा कुआँ हमारी खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है। उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का नित्य निवास है। उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति -- ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि -- अनाहत नादब्रह्म है। यही राम नाम की ध्वनी है। उस दीपक के प्रकाश और ध्वनि की चेतना में निरंतर रहें। आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे, सारा अंधकार दूर हो जायेगा।
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आप सब की कीर्ति और यश सदा अमर रहे। आप सब सदा सुखी एवं सम्पन्न रहें। आप सब इसी जन्म में परमात्मा को उपलब्ध हों।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२२ अप्रेल २०२४