Tuesday, 8 April 2025

स्वास्थ्य और स्वार्थ ---

 

स्वास्थ्य और स्वार्थ ---
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हम सब स्वस्थ (स्व+स्थ) यानि परमात्मा में स्थित हों, व स्वार्थी (स्व+अर्थ) यानि परमात्मा से ही मतलब रखने वाले हों। स्वयं को यह भौतिक देह मानना सारे पापों का मूल है। मेरा "स्व" परमात्मा में है, इस भौतिक शरीर में नहीं। इस भौतिक शरीर की तृप्ति के लिए ही मनुष्य सारे पाप करता है। जब कि यह भौतिक शरीर हमारा सबसे बड़ा धोखेबाज़ मित्र है। सिर्फ लोकयात्रा के लिए एक वाहन के रूप में ही यह आवश्यक है।
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ज्योतिर्मय ब्रह्म की छटा ज्योतिषांज्योति के रूप में कूटस्थ में निरंतर पूरी सृष्टि को आलोकित कर रही है। उसके सूर्यमण्डल में स्वयं भगवान पुरुषोत्तम बिराजमान हैं। वे ही परमशिव हैं। हम उनके साथ एक हों, वे ही हमारे माध्यम से निरंतर व्यक्त हो रहे हैं।
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मैं यह कोई उपदेश नहीं दे रहा हूँ, न ही कोई नया लेख लिख रहा हूँ। यह तो परमात्मा का प्रेम है जो अपने आप ही छलक रहा है। मेरे अंतर में परमात्मा के अलावा अन्य कुछ है ही नहीं। उनका प्रेम कूट कूट कर इतना अधिक भरा हुआ है, कि छलके बिना नहीं रह सकता। मेरा अस्तित्व ही परमात्मा का अस्तित्व है। प्रार्थना तो उनसे की जाती है जो कहीं दूर हों। यहाँ तो कोई दूरी है ही नहीं। मैं और मेरे प्रभु एक हैं। अतः किन से प्रार्थना करूँ? कोई अन्य है ही नहीं।
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कई लोग मेरे हितैषी बनकर मुझे संदेश भेजते हैं कि मुझे एक सच्चे सद्गुरु की आवश्यकता है। उनसे मेरा निवेदन है कि मुझे कोई नया सद्गुरु नहीं चाहिए। कई जन्मों से जो मेरे सद्गुरु थे, सूक्ष्म जगत में वे मेरे साथ परमात्मा में एक हैं। उनमें और मुझमें कोई भेद नहीं है। मुझे जो भी मार्गदर्शन मिला है वह सूक्ष्म जगत की महान आत्माओं से मिला है। भौतिक देह में जो मिले, वे मेरे स्वयं के अनुरोध पर ही मिले हैं। मुझे पूर्ण संतुष्टि है। जीवन की उच्चतम उपलब्धि कई बार अनायास स्वतः ही मिल जाती है। आप सब महान आत्माओं को नमन !!
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०२२

जानने योग्य सिर्फ भगवान ही हैं जिन्हें जान कर व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है --- .

  जानने योग्य सिर्फ भगवान ही हैं जिन्हें जान कर व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है ---

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गीता में भगवान कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च |
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्‌ ||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ||
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"पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः|
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ||९:१७||"
अर्थात् इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ||
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"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌ |
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ||१३:१२||"
निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है||
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"ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते|
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||१३:१३||"
हे अर्जुन! जो जानने योग्य है अब मैं उसके विषय में बतलाऊँगा जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है||
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ज्ञेय सिर्फ परमात्मा ही है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०१९

परमात्मा की इस सृष्टि का अंधकार और प्रकाश ही सुख व दुःख के रूप में हमारे जीवन में व्यक्त हो रहा है ---

 परमात्मा की इस सृष्टि का अंधकार और प्रकाश ही सुख व दुःख के रूप में हमारे जीवन में व्यक्त हो रहा है ---

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परमात्मा का प्रकाश ही सुख है, और उसका अभावरूपी अंधकार ही दुःख है। जैसे भोर में सूर्योदय का होना सुनिश्चित है, वैसे ही हम सब के जीवन में परमात्मा के प्रकाश का प्रस्फुटित होना भी सुनिश्चित है। असत्य का अंधकार शाश्वत नहीं है। हम सदा अंधकार में नहीं रह सकते। परमात्मा से दूरी का परिणाम दुःख है, और परमात्मा से समीपता सुख है। दुःख और सुख -- हमारे स्वयं के कर्मों के फल हैं। प्रारब्ध में जो लिखा है वह तो मिल कर ही रहेगा। उसकी पीड़ा परमात्मा की उपासना से कम की जा सकती है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं की जा सकती। फिर भी सुख-दुःख रूपी माया से परे जाने की निरंतर साधना करते रहना चाहिए। अन्य कोई उपाय नहीं है। गीता में भगवान कहते हैं --
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥७:१४॥"
अर्थात् -- यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं॥
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यह देवसम्बन्धिनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया बड़ी दुस्तर है। इसलिये किन्तु-परंतु आदि सब तरह के धर्मों को त्याग कर, अपनी ही आत्मा में "सर्वात्मभाव" से शरण ग्रहण करनी होगी। यही इस माया से पार जाने यानि संसारबन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है। इसके लिए कठोपनिषद के अनुसार बताए हुए सद्गुरु से मार्गदर्शन लेना होगा। सद्गुरु की प्राप्ति भी तभी होगी जब स्वयं में शिष्यत्व का भाव जगेगा। तब तक भगवान से ही प्रार्थना और उपासना करें। निश्चित रूप से भगवान की कृपा होगी।
जैसा भी मेरी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया, वैसा ही लिख दिया। अच्छा-बुरा सब कुछ श्रीकृष्ण समर्पण!!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०२३