Wednesday, 11 June 2025

भारत के संविधान की विसंगतियाँ ---

 भारत के संविधान की विसंगतियाँ ---

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(१) भारत का संविधान हिन्दू द्रोही क्यों है? हिन्दुओं को समानता का अधिकार क्यों नहीं देता? समान नागरिक संहिता क्यों नहीं है? हिन्दू क़ानून अलग से क्यों हैं? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा क्यों है? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को भारत का संविधान कैसे परिभाषित करता है? जो तथाकथित अल्पसंख्यक हैं, उनको तो अपने धर्म को पढ़ाने की छूट है पर हिन्दुओं को क्यों नहीं? हिन्दुओं के मंदिरों पर सरकार का अधिकार क्यों है? क्या एक भी मस्जिद या चर्च पर सरकार का अधिकार है? हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट क्यों? मंदिरों का धन धर्म-प्रचार के लिए है, न कि सरकारी लूट के लिए|
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(२) भारत का संविधान जातिवाद को क्यों बढ़ावा देता है? संविधान ने चार-पांच स्थायी जातियाँ बना दी हैं जैसे SC, ST, OBC, SBC आदि आदि आदि| हर सरकारी पन्ने पर जाति का उल्लेख क्यों होता है? अगर सरकारी दस्तावेजों में जाति का उल्लेख प्रतिबंधित हो जाता तो जातिवाद अब तक समाप्त हो जाता| जाति के आधार पर आरक्षण क्यों है?
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(३) क्या आपने संविधान की धारा 147 (आर्टिकल 147) का अध्ययन किया है? कृपा कर के उसका सार बता दीजिये| मैंने तो मेरा पूरा दिमाग खपा दिया, पर कुछ भी समझ में नहीं आया| मेरे एक मित्र ने जो बड़े विद्वान् हैं, और एक सेवानिवृत वरिष्ठ IAS अधिकारी भी हैं, ने भी अपना पूरा दिमाग लगा दिया पर कुछ भी समझ में नहीं आया| क्या संविधान की इस धारा के अंतर्गत हम अभी भी अंग्रेजों के गुलाम हैं? क्या भारत सरकार ब्रिटिश पार्लियामेन्ट और ब्रिटेन की रानी द्वारा दिए गए आदेश को मानने के लिये बाध्य है? क्या ब्रिटेन की रानी आज भी कानुनी तौर पर भारत की रानी है? क्यों वो अपनी मर्जी से और बिना पासपोर्ट के भारत आ सकती है? हम अभी भी कॉमनवेल्थ में क्यों है? क्या संविधान का आर्टिकल 147 कहता है कि यदि ब्रिटिश पार्लियामेंट कोई रेसोल्युशन पास कर दे तो वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय के लिए मान्य होगा? यदि ब्रिटेन का पार्लियामेंट भारत की सत्ता वापस अपने हाथ लेने का कानून पास कर दे तो क्या वह पूर्णतया कानूनी होगा और भारत सरकार को कानूनी तौर पर इसे मानना ही होगा?
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(४) भारत का संविधान क्या इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट १९३५ की नकल ही तो नहीं है? भारत का संविधान यदि भारत का धर्म-ग्रन्थ है तो उसकी भाषा इतनी घोर क्लिष्ट क्यों है जिसे बहुत अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ सकते? सारे राजनेता कहते हैं कि भारत का संविधान डा.बाबा साहेब भीमराव रामजी अम्बेडकर ने लिखा है| उन लोगों ने या तो डा.आंबेडकर का साहित्य नहीं पढ़ा है, या संविधान नहीं पढ़ा है, या दोनों ही नहीं पढ़े हैं| डा.आंबेडकर के साहित्य की भाषा बहुत सरल और स्पष्ट है| संविधान उनकी भाषा लगता ही नहीं है| उन्होंने इसे compile किया था या लिखा था? ऐसी बहुत सारी धाराएं हैं और उनके बहुत सारे क्लॉज़ हैं जो कोई समझ ही नहीं सकता|
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मेरे विचार से भारत के संविधान की दुबारा समीक्षा होनी चाहिए| क्या इसे भारत की लोकसभा और राज्यसभा ने पास किया था? भारत के कितने सांसद इस संविधान को समझते हैं? और भी बहुत सारे प्रश्न होंगे| अभी तो इतने ही बहुत हैं|
साभार धन्यवाद ! सप्रेम सादर नमन और राम राम !
12 जून 2018

परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था होती है ---

 परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था होती है ---

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मैंने अपने जीवन में अब तक जो कुछ भी साधना, स्वाध्याय व सत्संग से सीखा है, उसका सार है कि -- "परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था है|" मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य इस परमशिवावस्था को उपलब्ध होना है| इस से पृथक जो कुछ भी है वह भटकाव है, जिस से हम बचें| हम जीव नहीं, परमशिव हैं| जिसे हम "ईश्वर को प्राप्त करना या होना" कहते हैं ..... वह परमशिवावस्था ही है| शिवत्व का ध्यान करते करते एक अवर्णनीय स्थिति आती है जहाँ हमारी चेतना विस्तृत होकर समष्टि के साथ एक हो जाती है, हम जड़-चेतन सर्वस्व के साथ एक हो जाते हैं, और पाते हैं कि हमारे से अन्य तो कोई है ही नहीं| हम स्वयं को ज्योतिषांज्योति प्रकाशमय पाते हैं, जहाँ कोई अज्ञान और अंधकार नहीं है, जिसके बारे में श्रुति भगवती कहती है ....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
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गीता में जिस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने की बात भगवान श्रीकृष्ण ने कही है, वह भी यही है|
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति|
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||"
वही भगवान का परमधाम है जहाँ पहुँच कर फिर कोई बापस नहीं आता|
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः|
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||"
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इससे अतिरिक्त अन्य जो कुछ भी है वह भटकाव है| सारे शैव व शाक्त आगमों व योगदर्शन का भी यही उपदेश है| बड़ी विचित्र लीला है जिसे बुद्धि से समझना असंभव है --- "शिव शक्ति की उपासना करते हैं और शक्ति शिव की|"
यह साधकों को संकेत है कि "परमशिवावस्था ही आत्मा की परावस्था है|"
ये सारे रहस्य भगवान स्वयं समझा देते हैं जब हमारे हृदय में उनके लिए परमप्रेम और अभीप्सा जागृत होती है| उन्हें अन्य कोई समझा भी नहीं सकता| तब तक ये रहस्य, रहस्य ही रहेंगे| इति|| शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं है| दोनों एक हैं, उनकी अभिव्यक्ति ही पृथक-पृथक हैं|
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योग साधना का उद्देश्य है महाशक्ति कुंडलिनी का परमशिव से मिलन|
सारे शैव साधक शक्ति की साधना करते हैं, और शाक्त साधक शिव की|
महात्माओं से सुना है कि --
शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि, षड़ाक्षरी बीज द्वारा श्रीविद्या की साधना करते थे|
परम सिद्ध अगस्त्य ऋषि, हयग्रीव से प्राप्त पञ्चदशाक्षरी बीज द्वारा श्री विद्या की साधना करते थे|
आचार्य शंकर, श्रीविद्या की साधना करते थे|
गुरु गौरक्षनाथ, माँ छिन्नमस्ता के साधक थे|
हमारा लक्ष्य है शिवत्व की प्राप्ति, इसमें कोई संशय न रखें|
जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः || . जो शाश्वत, अनंत, और अमृतमय है, वही मैं हूँ; यह भौतिक देह नहीं।
ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१२ जून २०२०

सज्जनों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश --- राजा का राजधर्म है, जिससे च्युत उसे नहीं होना चाहिए ----

 सज्जनों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश --- राजा का राजधर्म है, जिससे च्युत उसे नहीं होना चाहिए ----

देश के शासक को दुष्टों के प्रति समर्पण शील दृष्टिकोण छोड़ना ही होगा। देश के बहुसंख्यकों की हत्या पर मौन होकर देखते रहना केंद्र शासन का पाप है। मोदी सरकार दण्डनीति का प्रयोग करे। पता नहीं केंद्र सरकार भयभीत क्यों है।
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वेदान्त दर्शन -- साधु-सन्यासियों, विरक्तों व आध्यात्मिक-साधकों के लिए है, न कि देश के शासक के लिए। राजा जनक का युग दूसरा था। यदि देश का शासक, -- आततायियों व अधर्मियों में भी परमात्मा को देखना, उनके साथ प्यार-मोहब्बत करना, व उनके साथ और विश्वास को जीतने का प्रयास करते हैं, तो यह अधर्म की वृद्धि करने वाला आत्म-घातक कार्य है। ऐसे शासक को राजनीति छोड़कर सन्यासी बन जाना चाहिए। अधर्मियों व आततायियों से प्यार, धर्मद्रोह है जो धर्म से च्युत कर के धर्म का नाश करने वाला है।
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सनातन धर्म में शासक के लिए राजनीति क्या व कैसी हो, इसे विभिन्न ग्रन्थों में स्पष्ट बताया गया है। आततायियों व अधर्मियों को यथोचित दंड देना राज्य का कर्तव्य व दायीत्व है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे आदर्श हैं। महाभारत के युद्ध में अर्जुन तो सब कुछ छोड़कर सन्यासी बन जाना चाहता था, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उसे उसके धर्म-मार्ग यानि दुष्टों के संहार हेतु युद्ध में प्रवृत्त किया। जो शासक अधर्मियों का भी साथ और विश्वास जीतने का कार्य करेगा, वह कभी भी सत्यनिष्ठों व धर्मनिष्ठों का साथ व विश्वास जीतने की चिंता नहीं करेगा।
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अतः सज्जनों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश --- राजा का राजधर्म है, जिससे च्युत उसे नहीं होना चाहिए। ॐ स्वस्ति !!
१२ जून २०२१

आत्मज्ञान परमधर्म है, यही ब्रह्मज्ञान है ---

 आत्मज्ञान परमधर्म है, यही ब्रह्मज्ञान है --

* जब तक शान्ति और प्रेम की गहनतम अनुभूति न हो तब तक ध्यान के आसन से भूल कर भी मत उठिये। दिव्य प्रेम और शान्ति की अनुभूति -- साधना के प्रसाद हैं। उनका आनंद लिए बिना उठ जाना ऐसे ही है जैसे आपने एक दूध की बाल्टी भरी और उसको ठोकर मार कर चल दिए। कर्ताभाव से मुक्त रहें।
* यदि परस्त्री/परपुरुष और पराये धन की कामना, या दूसरों के अहित, या अधर्म की बातें मन में आती हैं तो भगवती महाकाली की साधना करनी चाहिए। इसके लिए मुझसे नहीं, अपनी गुरु-परंपरा के आचार्यों से मार्गदर्शन प्राप्त करें। कुसंग, अभक्ष्य-भक्षण, परनिंदा, और व्यभिचार तो छोडना ही पड़ेगा।
*ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जून २०२२

पुराण-पुरुष को नमन

पुराण-पुरुष को नमन,
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श्रीराम जयराम जय जय राम॥ सर्वव्यापी सर्वस्व भगवान श्रीराम की वंदना मैं बुद्धिहीन अल्पमति, करता हूँ। "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" -- उनके प्रकाश से ही मुझे सब कुछ दिखाई दे रहा है। सारी सृष्टि उनके प्रकाश का ही घनीभूत रूप है। प्रकाश रूप में मैं उन्हीं का ध्यान करता हूँ। वे ही यह मैं बन गए हैं।
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श्रीमद्भगवद्गीता के ११वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की वंदना उन्हें "पुराण-पुरुष" संबोधित कर के की है --
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ||११:३८||
अर्थात् -- आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के परम आश्रय हैं| आप ही सबको जानने वाले, जानने योग्य और परम धाम हैं| हे अनन्त रूप आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है|
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आचार्य शंकर ने भी अपने ग्रंथ "विवेक चूड़ामणि" के १३१ वें मंत्र में पुराण-पुरुष की वंदना की है --
"एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्ड-सुखानुभूति |
सदा एकरूपः प्रतिबोधमात्र येनइषिताः वाक्असवः चरन्ति ||"
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वे पुराण पुरुष अन्तर्रात्मा निरंतर अखंड सुखानुभूति के रूप में व्यक्त हो रहे हैं।
मेरा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है। मुझे किस ओर बहना है उसका अभ्यास वैराग्य के साथ करना पड़ेगा। यही एकमात्र कमी मुझ में है, अन्यथा परमात्मा तो मिले ही हुये हैं। वैराग्य के लिए जो साहस चाहिए उसका मुझमें अभाव है। वह वैराग्य जागृत हो जाये तो फिर और कुछ भी नहीं चाहिये।
मैं भगवान श्रीराम का ध्यान करता हूँ। वे मेरी सब कमियों को दूर करें।
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मेरे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, प्रमाद, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न होते हैं।
रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है।
सतोगुण प्रबल होने पर परमात्मा से परमप्रेम (भक्ति) जागृत होता है।
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त्रिगुणातीत होने के लिए उपासना का अभ्यास और वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है। वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है।
वैराग्य हो तो शुकदेव जैसा, और स्थितप्रज्ञता हो तो जड़भरत जैसी। जैसी मेरी बुद्धि है, वैसी ही बात कर रहा हूँ। किसी के समझ में न आये तो यह उसकी समस्या है।
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भगवत्-प्राप्ति हो या न हो, यह भगवान की समस्या है, मेरी नहीं। उनकी इच्छा हो तो आयें, और इच्छा न हो तो न आयें। वे भी मेरे बिना नहीं रह सकते। तभी तो मुझे अपने हृदय में स्थान दे रखा है। मैं उन को पुनश्च नमन करता हूँ --
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम्।
दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम्॥"
"वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात् , पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्।
पूर्णेंदु सुन्दर मुखादरविंदनेत्रात् , कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने॥"
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"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
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"कस्तूरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु: करे कंकणम्।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावली,
गोपस्त्री परिवेष्टितो विजयते, गोपाल चूड़ामणि:॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जून २०२४

भारत माता के सुपुत्र महानतम क्रांतिकारियों में अग्रणी पं.रामप्रसाद बिस्मिल को श्रद्धांजलि ---

 भारत माता के सुपुत्र महानतम क्रांतिकारियों में अग्रणी पं.रामप्रसाद बिस्मिल को श्रद्धांजलि ..

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ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो, प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कांतिमय हो|
अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में, संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो ||१||
तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो, तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो|
वह भक्ति दे कि बिस्मिल सुख में तुझे न भूले, वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो ||२||
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शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् १९५४ तदनुसार ११ जून १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में.पं.राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म हुआ| वह दिन बड़ा शुभ ओर पावन था| और सोमवार पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी) विक्रमी संवत् १९८४ तदनुसार १९ दिसम्बर १९२७ मात्र तीस वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गोरखपुर जेल में फाँसी दे दी|
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वे एक बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के धनी महान क्रन्तिकारी थे| 'बिस्मिल' उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है -- "आत्मिक रूप से आहत"| राम प्रसाद का आचरण इतना पवित्र था कि सब उन्हें पंडित जी कह कर संबोधित करते थे| संस्कृत, हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी --- इन चारों भाषाओँ पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था|
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सन १९१५ में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ने ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा की और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े| लोकमान्य तिलक से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली| ११ वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया| उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये किया| ११ पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं और ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त की गयीं| बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे|
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बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा लिखित "वंदे मातरम् " के नारे के साथ जैसे हज़ारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राण न्योछावर किये वैसे ही बिस्मिल की लिखी कविता --- 'सरफरोसी की तमन्ना' ........ को गाते गाते भी अनेक क्रन्तिकारी भी फाँसी के फंदे पर चढ़ गए|
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काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था| पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे| उन्होंने अभियुक्तों के लिये "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया| फिर क्या था, पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी -------
"मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाये हैं|
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;
कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"
उनके कहने का मतलब था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, बल्कि मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं| वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें| इसके साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली कि वे समुद्र की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन सी बड़ी बात है? भला इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो बिस्मिल के आगे ठहरता| मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी| वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये| फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह नहीं की|
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१६ दिसम्बर १९२७ को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का अंतिम अध्याय पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया| १८ दिसम्बर १९२७ को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की|
सोमवार १९ दिसम्बर १९२७ (पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी सम्वत् १९८४) को प्रात:काल ६ बजकर ३० मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी|
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फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा ---
"वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !"
और शान्ति से चलते हुए कहा ---
"मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे|
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे||"
फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा ------
"I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!"
उसके पश्चात यह शेर कहा --
"अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है |"
फिर ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना की और यह मन्त्र ---
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुवः यद् भद्रं तन्न आ सुवः"
पढ़कर अपने गले में अपने ही हाथों से फाँसी का फंदा डाल दिया|
रस्सी खींची गयी| रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये|
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बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी| जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया| शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया|
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"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें"
उन्हीं के इन शब्दों में भारत माँ के इन अमर सुपुत्र को श्रद्धांजलि|
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जय जननी जय भारत |
ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
११ जून २०१५

एक प्रतिष्ठित प्रख्यात विदुषी महिला ने कल मेरे से व्हाट्सएप्प पर संदेश देकर पूछा कि ..... "सरल भाषा में मानव धर्म क्या है जो सभी समझ सकें और सभी को स्वीकार्य हो?" .

 एक प्रतिष्ठित प्रख्यात विदुषी महिला ने कल मेरे से व्हाट्सएप्प पर संदेश देकर पूछा कि .....

"सरल भाषा में मानव धर्म क्या है जो सभी समझ सकें और सभी को स्वीकार्य हो?"
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मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार था .....
"धन्यवाद! धर्म की समझ हर व्यक्ति को अपने अपने गुणों के अनुसार अलग-अलग होती है| जिसमें सतोगुण प्रधान है उसकी समझ अलग, रजोगुण प्रधान वाले की अलग और तमोगुण प्रधान वाले की अलग होगी| उपनिषदों, महाभारत, रामायण, गीता, मनुस्मृति और विविध आगम ग्रन्थों में इस विषय को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है| भारत में जितनी चर्चा "धर्म" पर हुई है, उतनी विश्व के अन्य किसी भी देश या संस्कृति में नहीं हुई है|
आपने सरल भाषा में बताने को कहा है अतः सरलतम भाषा में यही कहूँगा कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य परमात्मा को पाना है| जो हमें परमात्मा से जोड़ता है, परमात्मा के परमप्रेम की अनुभूतियाँ कराता है वही "धर्म" है| जो परमात्मा से दूर करता है, जिससे हम परमात्मा को स्वयं के निज जीवन में व्यक्त नहीं कर पाते वह अधर्म है| मानव मात्र के लिए जो धर्म है मैं उसे दुबारा कहता हूँ ..... जो हमें परमात्मा से जोड़ता है, परमात्मा के परमप्रेम की अनुभूतियाँ कराता है वही "धर्म" है| जिससे हम परमात्मा को स्वयं में व्यक्त नहीं कर पाते वह "अधर्म" है| ॐ तत्सत् ||"
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इस उत्तर से उन्हें संतुष्टि तो नहीं हुई पर बनावटी बात कहना मेरे लिए अधर्म होता, इसलिए जो उत्तर मेरे हृदय से आया वही उत्तर मैंने दे दिया|
११ जून २०२०