Sunday, 8 June 2025

कामना की पूर्ति स्वयं के श्रद्धा-विश्वास से ही होती है ---

 कामना की पूर्ति स्वयं के श्रद्धा-विश्वास से ही होती है ---

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मेरा अनुभव यह है कि चाहे कोई भी किसी भी तरह की कामना हो, उसकी पूर्ति स्वयं की श्रद्धा और विश्वास से ही होती है, न कि पीर-फकीरों, दरगाहों, मजारों, समाधियों, और देवस्थानों पर जाकर दुआएँ और मनौतियाँ करने से। एक पूरी हुई कामना तुरंत अन्य अनेक कामनाओं को जन्म दे देती है, और हमारे दुःख का कारण बनती है। बाहरी अनुष्ठान तो एक बहाना मात्र हैं, वास्तविक शक्ति श्रद्धा और विश्वास में ही होती है। रामचरितमानस में स्पष्ट लिखा है --
"भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥"
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श्रद्धावाला व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त करता है, और वही अपने सदगुरु की कृपा को प्राप्त करने का पूर्ण अधिकारी होता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥4:३९॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०२४

"योगस्थ" का क्या अर्थ है? ---

 "योगस्थ" का क्या अर्थ है? ---

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थोड़ा सा जटिल मामला है। निष्ठापूर्वक सोचना पड़ेगा कि भगवान हमें योगस्थ होकर कर्म करने को क्यों कहते हैं? ---
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात - हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥
भगवान आगे फिर कहते हैं ---
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२:५०॥"
अर्थात - समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है॥
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एक बात तो स्वयंसिद्ध है कि -- योगसुत्रों में भगवान पातञ्जलि द्वारा बताए "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः" और गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए "समत्वं योग उच्यते" में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि चित्तवृत्तिनिरोध से समाधि की प्राप्ति होती है जो समत्व ही है।
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"योगस्थ" होना क्या है? --- सारा कर्ताभाव जहाँ तिरोहित हो जाए, भगवान स्वयं ही एकमात्र कर्ता जहाँ हो जाएँ, जहाँ कोई कामना व आसक्ति नहीं हो, भगवान स्वयं ही जहाँ हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हों, -- वही योगस्थ होना है, वही समत्व यानि समाधि में स्थिति है, और वही ज्ञान है।
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इस ज्ञान की प्राप्ति स्वयं की श्रद्धा, तत्परता और इंद्रिय-संयम से होती है, अन्य किसी उपाय से नहीं। आचार्य शंकर के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
अर्थात् - श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥
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सार की बात यह है कि गीता के अनुसार समत्व ही ज्ञान है। समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही योगस्थ और समाधिस्थ है।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
९ जून २०२२

जिनके हृदय में परमात्मा होते हैं ---

 जिनके हृदय में परमात्मा होते हैं, मुझे उनसे बात करने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उनको देखते ही उनके भाव समझ में आ जाते हैं। वे भी मेरे भावों को समझ जाते हैं।

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भगवान से मैं किसी भी तरह की कोई प्रार्थना करने में असमर्थ हूँ। वे तो भाव उठने से पहिले ही समझ जाते हैं कि मैं क्या सोचने वाला हूँ। अतः प्रार्थना करना व्यर्थ है। उनका स्थायी निवास तो मेरे हृदय में ही है। क्या पता, हो सकता है, मैं भी उनके हृदय में ही हूँ।
सारे रंग-रूप भगवान के हैं, पर वे इन सब से परे हैं। किसी से कोई राग-द्वेष न रखो।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ९ जून २०२२

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं ---

 न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं ---

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मैं ध्यान तो कूटस्थ में परमशिव का करता हूँ, जिन की स्थिति सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे परम ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में है। उस समय मैं इस शरीर में नहीं रहता। जिज्ञासा तो रहती ही है यह जानने की कि कर्ता कौन है। लेकिन यहाँ तो पुराण-पुरुष भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण के सिवाय पूरी सृष्टि में कोई अन्य है ही नहीं। वे ही नारायण हैं, और वे ही परमशिव हैं। वे स्वयं ही स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। उनके सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। वे स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए हैं। मेरा तो कोई अस्तित्व है ही नहीं। भगवान कहते हैं --
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
अर्थात् - "उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥"
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श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥" (कठोपनिषद २/२/१५)
अर्थात् -"वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है। कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है।''
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ॐ खं ब्रह्म:॥ "ख" शब्द ब्रह्म यानी परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। आकाश तत्व को भी "ख" कहते हैं। दुःख का अर्थ है -- परमात्मा से दूरी, और सुख का अर्थ है -- परमात्मा से समीपता। सुख सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है। मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है। सुख की अपेक्षा सदा दुःखदायी होती है। परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम ही आनंददायी है।
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भगवान के श्रीचरणों में ही सुख है। उनके श्री चरणों के दर्शन सहस्त्रारचक्र में एक ज्योति के रूप में होते हैं। ध्यान उस ज्योति का ही होता है। वह ज्योति ही हमें बड़े प्रेम से एक माँ की तरह इस देह से बाहर ले जाकर अनंतता का व उससे भी परे का बोध करा कर बापस इस देह में ले आती है।
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०२२

परमात्मा से हमारा क्या सम्बन्ध है ? ---

परमात्मा से हमारा क्या सम्बन्ध है ? ---

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यह प्रश्न ही गलत है| यह तो वैसे ही है जैसे कोई यह पूछे कि महासागर में पानी के बुलबुले का महासागर से क्या सम्बन्ध है| हम भगवान से कोई सुविधाजनक या भावानुकूल सम्बन्ध जोड़ना चाहें तो यह हमारा दुराग्रह ही होगा| ऐसा दुराग्रह नहीं होना चाहिए|

इस देह में जन्म लिया उससे पूर्व भी भगवान ही हमारे साथ थे| इस देह में जन्म लेने के पश्चात् भगवान ने ही माँ-बाप के रूप में अपना प्रेम दिया| वे ही भाई-बहिन और अन्य सम्बन्धी व मित्रों के रूप में आये| शत्रु-मित्र सब वे ही थे| इस देह को भी वे ही जीवंत रखे हुए हैं| इसके ह्रदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, कानों से वे ही सुन रहे हैं, और पैरों से भी वे ही चल रहे हैं| जो दिखाई दे रहा है वह तो उनकी माया है| सब कुछ तो वे ही हैं| स्वयं की पृथकता का बोध भी एक भ्रम ही है|

अतः सारे सम्बन्ध तो उन्हीं के हैं| हमारा तो एकमात्र सम्बन्ध उन्हीं से है| उनके अतिरिक्त अन्य सारे सम्बन्ध भ्रम मात्र हैं| परमात्मा को पाने की लालसा भी एक भ्रम मात्र ही है| हम उनसे बिछुड़े ही कब थे?
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ जून २०१६

असत्य, अन्धकार और अज्ञान की शक्तियों का वर्चस्व ---

 असत्य, अन्धकार और अज्ञान की शक्तियों का वर्चस्व पिछले डेढ़-दो हजार वर्षों से चल रहा है| उनके अस्तित्व को चुनौतियां भी मिलती रही हैं और अब वे धीरे धीरे पराभूत भी हो रही हैं| मुझे मेरी इस आस्था में कण मात्र भी संदेह नहीं है कि उनका पराभव निश्चित रूप से होगा| यह सृष्टि .... प्रकाश और अन्धकार का खेल है जहाँ दोनों की आवश्यकता है| इस लीला से परे जाना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य है|

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असत्य और अंधकार उस प्रकाश से दूर होंगे जो हम अपने अंतस में जलायेंगे| ये दोनों ही एक दोष हैं| दोष हमेशा ही कमजोर हुआ करते हैं| रोग कमजोर होता है इसलिये तो औषधि उसे दूर करती है| वह प्रकाश जागृत होगा प्रभु के प्रेम से| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०१४

हमारे सभी दुःखों का कारण :----

 हमारे सभी दुःखों का कारण :----

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"खं" शब्द ब्रह्म यानी परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है| आकाश तत्व को भी "ख" कहते हैं| दुःख का अर्थ है .... परमात्मा से दूरी, और सुख का अर्थ है परमात्मा से समीपता| सुख सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| सुख की अपेक्षा सदा दुःखदायी है| परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम -- आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है| प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति --- "उनके" श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
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जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तरा-सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है| जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो गया है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक सिद्ध योगी की चेतना वैसे भी आज्ञा चक्र से ऊपर ही रहती है| लक्ष्य यही हो कि चैतन्य की स्थायी स्थिति सहस्त्रार व उससे उपर ही हो|
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परमात्मा से दूरी ही हमारे सभी दुःखों का कारण है| सुख सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| परमप्रेम, अभीप्सा और श्रीहरिः कृपा के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०१४

ॐ “भूतभृते नमः" ------

"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
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यह विष्णु सहस्त्रनाम का प्रथम मंत्र है जो इतना गहन है कि कोई भी विद्वान महात्मा चाहे तो लगातार कई घंटों तक इस पर प्रवचन दे सकता है। यहाँ भगवान को भूतभृत भी कहा गया है, जिस का अर्थ है समस्त प्राणियों का भरण-पोषण करने वाले। जिस तरह एक माँ एक शिशु को जन्म देकर उसका भरण-पोषण करती है, वैसे भी भगवान भी हम सब का भरण-पोषण करते हैं।
गीता में भगवान कहते हैं --
"उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१५:१७॥"
अर्थात् - परन्तु उत्तम पुरुष अन्य ही है, जो परमात्मा कहलाता है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण (भरण-पोषण) करने वाला अव्यय ईश्वर है॥
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आचार्य रामानुज का एक शिष्य “भूतभृते नम” मंत्र से भगवान रंगनाथ की आराधना करता था। भगवान वेश बदल कर स्वयं उसे अपना प्रसाद उसके घर जाकर दे आया करते थे।
८ जून २०२४

मैं फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर आत्मप्रेरणा से जो कुछ भी लिखता हूँ वह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है।

मैं फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर आत्मप्रेरणा से जो कुछ भी लिखता हूँ वह मेरा स्वयं के साथ एक सत्संग है। निरंतर वह मुझे परमात्मा की चेतना में रखता है। मैं स्वयं की संतुष्टि के लिए ही लिखता हूँ। किसी भी तरह का आर्थिक / लौकिक लाभ इसके बदले में नहीं लेता। जो मेरे लेखों को पढ़ते हैं, मैं उनका आभारी हूँ, वे मुझे प्रोत्साहित कर रहे हैं। धन्यवाद !!

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प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो |
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो ||
एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं देखत, कंचन करत खरो ||
एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी नाम परो ||
एक माया एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अबकी बेर मोही पार उतारो, नहि पन जात तरो || (कवि : सूरदास)

मैं युद्ध की बातें कर रहा हूँ, लेकिन मेरी चेतना निरंतर भगवान श्री कृष्ण में है।

 मैं युद्ध की बातें कर रहा हूँ, लेकिन मेरी चेतना निरंतर भगवान श्री कृष्ण में है। गीता में भगवान कहते हैं --

"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥ ८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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अन्तकाल की भावना ही पुनर्जन्म का एकमात्र कारण है। भगवान इसीलिए कहते हैं --
"तूँ हर समय मेरा स्मरण कर, और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेव में जिस के मन-बुद्धि अर्पित हैं, ऐसा तूँ मुझ में अर्पित किये हुए मन-बुद्धि वाला होकर मुझ को ही अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा, इसमें संशय नहीं है।
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हमारा सब से बड़ा शत्रु हमारे अज्ञान का अंधकार है, जिसने हमें परमात्मा से पृथक कर रखा है। हमारे जीवन का हर क्षण उस अज्ञान तिमिर के विरुद्ध युद्ध है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण हमारे सारथी हैं। हमारा कार्य निरंतर परमात्मा के प्रकाश की निज जीवन में वृद्धि करते रहना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
८ जून २०२३

"महाभय" का वह समय बहुत शीघ्र ही आने वाला है जिसके बारे में बचपन से ही सुनते आए हैं ----

 

"महाभय" का वह समय बहुत शीघ्र ही आने वाला है जिसके बारे में बचपन से ही सुनते आए हैं --
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(१) एक बात तो निश्चित है कि पश्चिमी प्रशांत महासागर में चीन का अमेरिका से महायुद्ध होना तय है। अमेरिका का साथ यदि कोई देश निर्णायक रूप से दे सकता है तो वह देश भारत है। भारत यदि उसी समय चीन पर आक्रमण कर के तिब्बत को अपने अधिकार में कर ले तो चीन का पराजित होकर सात टुकड़ों में बंटना निश्चित है।
इस समय अमेरिका (जो सबसे अधिक अविश्वसनीय देश है), भारत से मित्रता कर के भारत को इसीलिए शक्तिशाली बनाना चाहता है। दो-तीन दिन पूर्व अचानक ही अमेरिका के रक्षा मंत्री भारत आए थे। अब भारत के रक्षामंत्री अमेरिका जा रहे हैं। इसके बाद भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका जाएँगे। भारत युद्ध में कूदेगा तो चीन के विरुद्ध भारत का साथ विएतनाम, ऑस्ट्रेलिया, जापान, फिलिपाइन्स, ताजिकिस्तान और किर्गीस्तान देंगे।
नेपाल तटस्थ रहेगा। रूस भी तटस्थ रहेगा, लेकिन भारत के विरुद्ध कुछ भी नहीं करेगा।
(a) भारत कैलाश-मानसरोवर को अपने में मिलाकर बाकी बचे तिब्बत और क्विङ्ग्हाई प्रांत को मिलाकर एक स्वतंत्र देश बना देगा।
(b) दूसरा भाग जो चीन से पृथक होगा, वह सिंजियांग प्रांत है। यह पूर्वी तुर्की कहलाता था। कभी भी चीन का भाग नहीं था।
(c) तीसरा भाग जो चीन से पृथक होगा वह मंचूरिया होगा, जिसे चीन ने तीन प्रान्तों में बाँट रखा है -- लियानोनिंग, जिलियान व हेलोंगजियांग।
(d) चौथा भाग जो चीन से पृथक होगा वह इन्नर मंगोलिया होगा जो चीन की दीवार के उत्तर में है।
(पास में ही एक छोटा सा प्रांत और है जिसका नाम निंगसिया है, उसके बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।)
(e) पांचवा भाग जो चीन से पृथक होगा वह गुयाङ्गदोंग प्रांत व हैनान द्वीप।
(f) छठा भाग जो चीन से अलग होगा वह होङ्ग्कोंग व मकाऊ होंगे।
(g) सातवाँ भाग ताइवान होगा जो इस समय भी चीन से पृथक है।
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भारत की सीमा चीन से कहीं पर भी नहीं लगेगी। चीन द्वारा कब्जाए गए सारे भारतीय क्षेत्रों को भारत छुड़ा लेगा। आउटर मंगोलिया इस समय एक बलहीन देश है लेकिन भारत को नैतिक समर्थन देगा। दोनों मंगोलिया एक हो जाएँगे। चीन से पृथक होने वाले सभी देश भारत के मित्र होंगे। भारत की विजय सुनिश्चित है। भारत विजयी होगा।
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(२) इज़राइल और ईरान के मध्य में युद्ध तय है। ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कहा नहीं जा सकता। इसका भारत पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ेगा। युद्ध आरम्म्भ होते ही ईरान होरमुज जलडमरूमध्य को बंद कर देगा जिससे भारत की हानि होगी। फारस की खाड़ी से भारत का सारा व्यापार होरमुज के मार्ग से ही होता है।
यहाँ भी अमेरिका ईरान के विरुद्ध इज़राइल के साथ साथ लड़ाई में भाग लेगा।
भारत के लिए बाब-अल-मंडाब जलडमरूमध्य निर्बाध रूप से खुला रहना चाहिए। अन्यथा भारत की बहुत अधिक हानि हो सकती है। इस युद्ध में यमन खुल कर ईरान के साथ लड़ेगा। बाब-अल-मंडाब में यमन की दखल हो सकती है।
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विश्व का बहुत अधिक विनाश व जनसंहार होगा। सत्यनिष्ठापूर्वक जो लोग स्वधर्म (आत्मा के धर्म) में रत रहेंगे, भगवान उनकी रक्षा करेंगे। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ जून २०२३
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पुनश्च: --- पाकिस्तान पूरी तरह नष्ट होकर अंततः एक दिन बापस भारत में ही मिल जाएगा। वहाँ पर छाए असत्य का अंधकार भी एक दिन अवश्य दूर होगा।
भारत शाश्वत है, अजर और अमर है। भारत की संस्कृति पर जितना आक्रमण हुआ है उसके दस लाखवें भाग जितना आक्रमण भी किसी अन्य संस्कृति पर होता तो वह नष्ट हो जाती। भारत इस सृष्टि का भविष्य है। जो भारत को मिटाना चाहते हैं, वे सब मिट जाएँगे। भारत अमर है।

"धर्म-अधर्म", "पाप-पुण्य"; और "अकिंचन" व "सर्वस्व-अनन्य" भाव ----

 "धर्म-अधर्म", "पाप-पुण्य"; और "अकिंचन" व "सर्वस्व-अनन्य" भाव ---

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"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
विष्णु सहस्त्रनाम का उपरोक्त पहिला श्लोक ही पर्याप्त है, गहन ध्यान में जाने के लिए। मानसिक रूप से इसे पढ़ते ही मुझे ध्यान लग जाता है। इससे आगे चाहकर भी मैं नहीं बढ़ सकता। वे स्वयं ही यह समस्त सृष्टि बन गए हैं। उन की इच्छा कि हम सब उन्हें अपने निज जीवन में व्यक्त करें। वे धर्म और अधर्म से परे हैं। वे चाहते हैं कि हम भी पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से ऊपर उठें। मेरे लिए तो उनकी चेतना में निरंतर स्थिति ही धर्म है, और उनकी विस्मृति अधर्म है। आगे उनकी परम कृपा है।
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"अकिंचन" व "सर्वस्व-अनन्य" भाव ---
साधना का आरंभ सदा अकिंचन भाव से होता है जो गुरुकृपा से सर्वस्व अनन्य भाव में बदल जाता है। यह गुरुकृपा से समझ में आने वाला विषय है, अतः इस पर इस समय कोई चर्चा नहीं करनी चाहिये।
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अंतिम बात जो इस समय यहाँ करना चाहता हूँ, वह गीता में भगवान का निम्न आदेश है --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार इसका भावार्थ है कि -- "विवेक बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिये वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तूँ असंसारी, निष्कामी और निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी युग्म हैं, उनका नाम द्वन्द्व है; उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित, तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने का नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योग-क्षेम को प्रधान माननेवाले की कल्याण-मार्ग में प्रवृत्ति अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहनेवाला हो, तथा आत्मवान् हो, अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुये के लिये यह उपदेश है।"
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भगवान चाहते हैं कि हम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, व आत्मवान् बनें। यह विषय भी गुरुकृपा और हरिःकृपा से ही चरितार्थ हो सकता है।
एक साधक के लिए स्वर्ग एक प्रलोभन है, और नर्क एक भय। अतः स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म की चेतना से ऊपर उठना ही पड़ेगा। ईश्वर में निरंतर स्थिति ही धर्म है, और ईश्वर की विस्मृति ही अधर्म। निरंतर ईश्वर यानि परमात्मा में हम स्थित रहें। जहां तक मैं समझ सकता हूँ -- वीतराग और स्थितप्रज्ञ होना ही हमारा परमधर्म है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जून २०२५

संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्य वहां की नौकरशाही का है, राष्ट्रपतियों का नहीं ---

संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्य वहां की नौकरशाही का है, राष्ट्रपतियों का नहीं। वहाँ के राष्ट्रपति जनता को मूर्ख बनाकर आते हैं, लेकिन उनकी नहीं चलती, उन्हें वही काम करना पड़ता है जो वहाँ की नौकरशाही चाहती है। यह वैसा ही है जैसे भारत में सुप्रीम कोर्ट के जजों की चलती है, चुनी हुई सरकारों और सदन की नहीं।

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अभी ये ट्रम्प महोदय इस्लामिक आतंकवाद को नष्ट करने की घोषणा करते हुये आये थे, लेकिन एक माह पूर्व ही उन्होंने विश्व के सबसे बड़े इस्लामी आतंकी अहमद हुसैन अल-शरा (जन्म १९८२) से सऊदी-अरब में हाथ मिला लिया और उसे सीरिया के राष्ट्रपति के रूप में मान्यता दे दी। अल-क़ायदा के इस आतंकी अल-शरा के सिर पर अमेरिकी प्रशासन ने ही एक करोड़ अमेरिकी डॉलर के इनाम की घोषणा कर रखी थी। इस अल-शरा ने हजारों शिया मुसलमान पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या करवाई हुई है। अहमद अल-शरा जिस दिन सीरिया का राष्ट्रपति बना, उस दिन पूरा दमिश्क नगर हजारों शिया मुसलमान पुरुष, महिलाओं व बच्चों की लाशों से भरा हुआ था।
अमेरिका ने सऊदी अरब के साथ विश्व इतिहास का सबसे बड़ा हथियारों का सौदा किया। दूसरा सबसे बड़ा हथियारों का सौदा संयुक्त अरब गणराज्य के साथ किया।
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अमेरिका की सरकारें बदलती हैं, लेकिन नीतियाँ नहीं बदलतीं। अमेरिकी राष्ट्रपति आते हैं और चले जाते हैं। वहाँ नौकरशाही की शक्ति बहुत मजबूत है। वे लोग वहाँ के राष्ट्रपति को अपने अनुसार चलने के लिए मजबूर कर देते हैं। जब कोई राष्ट्रपति चुनाव जीतता है, तो लोग सोचते हैं कि अब नीतियां बदलेंगी। लेकिन वास्तव में सत्ता वे लोग चलाते हैं जो सरकारी व्यवस्था का स्थायी भाग होते हैं। उन्हें न तो हटाया जाता है, न ही जनता चुनती है। उन्हीं का बनाया ढांचा चलता रहता है।
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ट्रम्प ने कहा था कि वे रूस से रिश्ते सुधारेंगे, और यूक्रेन युद्ध बंद करवा देंगे। लेकिन सत्ता में आने के बाद भी उनके सलाहकार अपनी नीतियाँ चलाते रहे। अमेरिकी राष्ट्रपति के वादे सिर्फ प्रचार में अच्छे लगते हैं, असली सत्ता किसी और के पास होती है, जो पर्दे के पीछे बैठे हैं। यही "Deep State" है। अमेरिकी जनता समझती है कि वो वोट देकर नीति बदलेगी, लेकिन नीति वही रहती है, चेहरा बदलता रहता है।
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संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना ही इंग्लैंड के क्रूर दुर्दांत बदमाशों/अपराधियों ने की थी। ब्रिटेन, स्पेन और पुर्तगाल के दुर्दान्त अपराधी ही सजा काटने के लिए सजा के तौर पर अमेरिका भेजे गये। उन्हें हथियार दिये गए ताकि वे स्थानीय लोगों की हत्या कर के अपनी आजीविका चला सकें। मैं जार्ज वाशिंगटन को एक महान सेनापति समझता था, लेकिन वास्तविकता कुछ और है। उसने अंग्रेज़ कमांडर लॉर्ड कॉर्नवालिस को हराया, जिसे बाद में भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। इस लॉर्ड कॉर्नवालिस ने ही भारत में किसानों से भूमि छीनकर जमींदारी प्रथा आरंभ की। यूरोप के अपराधियों ने ही अमेरिका के ९ करोड़ मूल निवासियों की हत्या कर के आज का संयुक्त राज्य अमेरिका बसाया। अतः मूल रूप से यह अपराधियों द्वारा बसाया हुआ देश है।
कृपा शंकर
८ जून २०२५

ब्राह्मण समाज में जागृति और एकता कैसे हो? .

 ब्राह्मण समाज में जागृति और एकता कैसे हो?

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किसी भी पौधे की जड़ों में जल न देकर उसकी पत्तियों में ही जल दिया जाये तो वह पौधा कभी भी वृक्ष नहीं बनेगा। ब्राह्मण समाज की जड़ें धर्म में बहुत गहरी जमी हुई हैं, उन जड़ों की उपेक्षा कर के वर्तमान में ब्राह्मण समाज के लगभग सारे नेता पत्तियों में ही पानी दे रहे हैं।
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ब्राह्मण एकता के नाम पर आजकल -- ब्राह्मण अधिकारियों और राजनेताओं का सार्वजनिक सम्मान किया जाता है। इससे वे अधिकारी और नेता तो अपने अहंकार को तृप्त कर के चले जाते हैं, और समाज के नेताओं के अपने मतलब हेतु अधिकारियों व नेताओं से मधुर संबंध बन जाते हैं। लेकिन इस से समाज को कुछ नहीं मिलता है।
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कभी कभी अच्छे नंबर लाने वाले विद्यार्थियों को सम्मानित कर दिया जाता है। ठीक है प्रोत्साहन देना चाहिए, लेकिन उन विद्यार्थियों को भी समाज के प्रति कुछ कर्तव्य बोध होना चाहिए, अन्यथा समाज को कोई लाभ नहीं है।
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ब्राह्मण समाज की सबसे बड़ी समस्या है -- नवयुवक/नवयुवतियों में धर्मशिक्षा का अभाव। आज की पीढ़ी को अपने धर्म की शिक्षाओं का ज्ञान नहीं है। इसके लिए छुट्टियों में प्रशिक्षण वर्ग चलाये जाने चाहियें।
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(१) संस्कृत भाषा की शिक्षा बच्चों को दी जाये। बच्चों को संस्कृत का इतना ज्ञान तो हो कि वे "श्री सूक्त" और "पुरुष सूक्त" का शुद्ध उच्चारण सहित पाठ कर सकें, और इसका अर्थ भी समझा सकें।
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(२) सभी युवा किशोरों का सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार करवा कर, उन्हें वैदिक प्राणायाम, और गायत्री मंत्र की दीक्षा दी जाये। गायत्री जप का महत्व भी बताया जाये और विधि-विधान से संध्या कर्म भी सिखाया जाये।
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(३) भगवान से परमप्रेम (भक्ति) प्रत्येक ब्राह्मण को होना चाहिए। भगवान की भक्ति ही ब्राह्मण का मुख्य गुण है। युवकों, युवतियों व सभी जिज्ञासुओं को कोई न कोई साधना/उपासना अवश्य करनी चाहिए।
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स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) भगवती श्रीविद्या के उपासक थे। श्रीविद्या साधना पर ही उनका ग्रंथ "सौन्दर्य लहरी" बहुत प्रसिद्ध है। इस साधना का क्रम होता है। दस महाविद्याओं में से एक किसी की भी साधना से समाज की मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक, आध्यात्मिक -- सब तरह की दरिद्रता दूर होगी।
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जिनकी भगवान विष्णु के अवतारों में श्रद्धा है उन्हें, भगवान श्रीराम या श्रीकृष्ण की उपासना करनी चाहिए।
जिनकी श्रद्धा शिव में है उन्हें परमशिव का ध्यान करना चाहिए।
जिनकी श्रद्धा हनुमान जी में है, उन्हें हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए।
गीता का नित्य नियमित पाठ अर्थ समझते हुए करना चाहिए।
कुल मिलाकर बात यह है कि भगवान से परमप्रेम प्रत्येक ब्राह्मण को होना चाहिए। यही एक ब्राह्मण का सबसे बड़ा गुण है। ब्राह्मण समाज समय समय पर आपस में मिलता जुलता रहेगा तो प्रेम भी बना रहेगा।
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ब्राह्मणों ने अपना धर्म छोड़ दिया इसीलिए पूरे हिन्दू जाति की दुर्दशा हो रही है। ब्राह्मण अपने धर्म पर दृढ़ रहेंगे तो पूरे हिन्दू समाज का उत्थान होगा।
सभी को सप्रेम सादर नमन!!
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
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कृपा शंकर
८ जून २०२२

हम जो भी साधना/उपासना करते हैं, उसमें कर्ताभाव नहीं होना चाहिए ---

हम जो भी साधना/उपासना करते हैं, उसमें कर्ताभाव नहीं होना चाहिए ---
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जहाँ तक कर्मयोग की बात है, सनातन-धर्म का बड़े से बड़ा उपदेश यह है कि हम अपने हरेक कर्म को, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा हो, कर्ताभाव से मुक्त होकर, भगवान को समर्पित होकर करें। ऐसी स्थिति में कोई भी पाप हमें छू नहीं सकता। भगवान कहते हैं --

"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् - जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
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भगवान ने इतनी बड़ी बात कह दी है, इतना बड़ा आश्वासन दे दिया है, फिर भी हम किन्तु-परंतु आदि में पड़े रहते हैं, यह हमारा दुर्भाग्य है।
हम जो भी साधना/उपासना/आराधना करते हैं, उसमें भी कर्ताभाव नहीं होना चाहिए। निमित्त मात्र होकर ही सारे कार्य हमारे माध्यम से संपादित होने चाहिएँ।
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इस विषय पर अनेक आत्म अनुभूतियाँ है, जिन्हें लिखने का मुझे धैर्य नहीं है। किसी अन्य के लिए उनका कोई उपयोग भी नहीं है। मेरा एकमात्र उद्देश्य आपके हृदय में भक्ति जागृत करनी है। अन्य कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ जून २०२२
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पुनश्च:-- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२:४७॥"
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो॥

यह अतृप्त प्यास, वेदना और तड़प -- कभी शांत न हो।

मुझे सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद -- भगवान के स्मरण, मनन, चिंतन और ध्यान की अनुभूतियों में ही मिलता है। जब कभी भगवान की अनुभूतियाँ नहीं होतीं, तब लगता है कि मैंने बहुत कुछ खो दिया है, और अनाथ हो गया हूँ। ऐसी स्थिति में जीने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। ईश्वर की निरंतर प्रत्यक्ष अनुभूति ही मेरा जीवन हो गई है।

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मेरे चारों ओर का वातावरण बहुत विपरीत है। लेकिन भगवान ने जहाँ भी मुझे रखा है, वहाँ पर मैं प्रसन्न हूँ। हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है। फिर भी हृदय में एक अतृप्त प्यास, वेदना और तड़प है। लगता है यही एक ऐसी शक्ति है मुझे परमात्मा की ओर निरंतर ले जा रही है। यह अतृप्त प्यास, वेदना और तड़प बनी रहे, कभी शांत न हो।

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जून २०२२