Sunday, 8 June 2025

"योगस्थ" का क्या अर्थ है? ---

 "योगस्थ" का क्या अर्थ है? ---

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थोड़ा सा जटिल मामला है। निष्ठापूर्वक सोचना पड़ेगा कि भगवान हमें योगस्थ होकर कर्म करने को क्यों कहते हैं? ---
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात - हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥
भगवान आगे फिर कहते हैं ---
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥२:५०॥"
अर्थात - समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है॥
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एक बात तो स्वयंसिद्ध है कि -- योगसुत्रों में भगवान पातञ्जलि द्वारा बताए "योगः चित्तवृत्तिनिरोधः" और गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए "समत्वं योग उच्यते" में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि चित्तवृत्तिनिरोध से समाधि की प्राप्ति होती है जो समत्व ही है।
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"योगस्थ" होना क्या है? --- सारा कर्ताभाव जहाँ तिरोहित हो जाए, भगवान स्वयं ही एकमात्र कर्ता जहाँ हो जाएँ, जहाँ कोई कामना व आसक्ति नहीं हो, भगवान स्वयं ही जहाँ हमारे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हों, -- वही योगस्थ होना है, वही समत्व यानि समाधि में स्थिति है, और वही ज्ञान है।
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इस ज्ञान की प्राप्ति स्वयं की श्रद्धा, तत्परता और इंद्रिय-संयम से होती है, अन्य किसी उपाय से नहीं। आचार्य शंकर के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
अर्थात् - श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥
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सार की बात यह है कि गीता के अनुसार समत्व ही ज्ञान है। समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही योगस्थ और समाधिस्थ है।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
९ जून २०२२

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