न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं ---
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मैं ध्यान तो कूटस्थ में परमशिव का करता हूँ, जिन की स्थिति सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे परम ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में है। उस समय मैं इस शरीर में नहीं रहता। जिज्ञासा तो रहती ही है यह जानने की कि कर्ता कौन है। लेकिन यहाँ तो पुराण-पुरुष भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण के सिवाय पूरी सृष्टि में कोई अन्य है ही नहीं। वे ही नारायण हैं, और वे ही परमशिव हैं। वे स्वयं ही स्वयं का ध्यान कर रहे हैं। उनके सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। वे स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए हैं। मेरा तो कोई अस्तित्व है ही नहीं। भगवान कहते हैं --
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
अर्थात् - "उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥"
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श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥" (कठोपनिषद २/२/१५)
अर्थात् -"वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है। कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है।''
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ॐ खं ब्रह्म:॥ "ख" शब्द ब्रह्म यानी परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। आकाश तत्व को भी "ख" कहते हैं। दुःख का अर्थ है -- परमात्मा से दूरी, और सुख का अर्थ है -- परमात्मा से समीपता। सुख सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है। मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है। सुख की अपेक्षा सदा दुःखदायी होती है। परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम ही आनंददायी है।
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भगवान के श्रीचरणों में ही सुख है। उनके श्री चरणों के दर्शन सहस्त्रारचक्र में एक ज्योति के रूप में होते हैं। ध्यान उस ज्योति का ही होता है। वह ज्योति ही हमें बड़े प्रेम से एक माँ की तरह इस देह से बाहर ले जाकर अनंतता का व उससे भी परे का बोध करा कर बापस इस देह में ले आती है।
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०२२
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