आत्मा की उन्नति के बिना समाज और राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं है ....,
Thursday, 22 May 2025
आत्मा की उन्नति के बिना समाज और राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं है ....,
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हर मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा होती है सत्य को जानने की| सत्य है परमात्मा| जब हमें सत्य यानि परमात्मा का बोध नहीं होता और हम असत्य को अपना लेते हैं तब समाज और राष्ट्र का बहुत बड़ा अहित करते हैं| सत्य को जानने के लिए स्वाध्याय, उपासना, संस्कृति व स्वधर्म का ज्ञान आवश्यक है| माता-पिता, आचार्यों, बड़े-बूढ़ों, व समाज की सेवा भी सत्य के प्रेमी ही कर सकते हैं| समाज में माता-पिता का भी दायित्व होता है कि वे अपने बालकों को अच्छे से अच्छे संस्कार दें| देश की वास्तविक संपत्ति देश के सत्यनिष्ठ, कार्यकुशल व चरित्रवान नागरिक होते हैं| पर दुर्भाग्य से देश की शिक्षा व्यवस्था और कुछ सरकारी प्रावधान देश की अस्मिता को ही नष्ट कर रहे हैं| आशा है शासक वर्ग में सद्बुद्धि आएगी और दैवीय शक्तियाँ भारत की अस्मिता की रक्षा करेंगी| आशा अब दैवीय शक्तियों पर ही है|
ॐ तत्सत् !!
२२ मई २०२०
जापान जाने का अवसर मुझे अनेक बार मिला है ---
२२ वर्ष पूर्व तक जापान जाने का अवसर मुझे अनेक बार मिला है। उन दिनों जापान में सबसे बड़ा भारतीय समुदाय 'कोबे' नगर में हुआ करता था। कोबे में व्यापारी और नौकरी करने वाले बहुत भारतीय रहते थे। कल प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के स्वागत में भारतीयों की जितनी बड़ी भीड़ थी, उससे लगा कि टोकियो और उसके आसपास भी बहुत बड़ी संख्या में भारतीय अब रहने लगे हैं।
भारतीयों के लिए जापान विश्व का सबसे मंहगा देश है।
वहाँ के लोगों की देशभक्ति और कानून के प्रति आस्था बहुत सराहनीय है। वहाँ पुलिस अपने आप को बेकार पाती है क्योंकि अपराध नहीं के बराबर होते हैं। सबसे बड़ा अपराध तो ड्रग्स का सेवन है जिसके लिए कोई क्षमा नहीं है।
और भी कई बाते हैं जिनको लिखूँगा तो मुझ पर 'सांप्रदायिक' होने का ठप्पा लग जाएगा। आप समझ गए होंगे।
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पुनश्च :--- जापान का कोई शासक आज तक न तो किसी इस्लामी देश में गया है, और न ही किसी इस्लामी देश के शासक को अपने यहाँ बुलाया है। वहाँ इस्लामी शिक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध है। किसी भी इस्लामी देश के नागरिक को वहाँ का वीजा नहीं मिलता। पाकिस्तानियों को तो वे अपने यहाँ घुसने ही नहीं देते। जो पाकिस्तानी राजनयिक वहाँ रहते हैं, उन पर निगाह रखी जाती है।
२३ मई २०२२
अब तो भगवान से मिलना निश्चित है, वे अब और छिप नहीं सकते ---
अब तो भगवान से मिलना निश्चित है, वे अब और छिप नहीं सकते ---
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भगवान की बड़ी कृपा है कि वे स्वयं अपने स्वयं की उपासना कर रहे हैं। मेरी क्या औकात है उनका चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करने की? उनकी कृपा के बिना उनका नाम सोच भी नहीं सकता। अपनी परम कृपा कर वे मेरे कूटस्थ ऊर्ध्वमूल में शांभवी मुद्रा में बिराजमान हैं। केवल वे ही हैं, उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है।
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जब तक भारत में १० भी ऐसे व्यक्ति हैं जो भगवान के साथ एक हैं, भारत कभी नष्ट नहीं हो सकता। उपासना द्वारा जागृत एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता भारत को है। ब्रह्मशक्ति का प्राकट्य ही निश्चित रूप से धर्म की पुनर्स्थापना व वैश्वीकरण कर, चारों ओर छाये असत्य के अंधकार को नष्ट कर सकेगा। हमें आवश्यकता व्यावहारिक उपासना की है, बौद्धिक चर्चा की नहीं। अपना अधिकाधिक समय ध्यान द्वारा स्वयं में भगवान को व्यक्त करने में लगायें, तभी धर्म व राष्ट्र की रक्षा होगी। भगवान की चेतना स्वयं में निरंतर जागृत कर सभी में जागृत करें। यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! 

















कृपा शंकर
२३ मई २०२३
सर्वप्रथम आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति करो, फिर उस चेतना में ही बाकी जीवन व्यतीत करो
सर्वप्रथम आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति करो, फिर उस चेतना में ही बाकी जीवन व्यतीत करो
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मनुष्य को अधिक से अधिक ३०-३५ वर्ष की आयु तक आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति कर लेनी चाहिए। फिर परमात्मा की चेतना में ही अवशिष्ट जीवन व्यतीत करना चाहिए। वे सब बहुत भाग्यशाली हैं, जो युवावस्था में ही आध्यात्म की ओर चल पड़ते हैं, व भगवत्-प्राप्ति कर लेते हैं। ३५ वर्ष की आयु के पश्चात परमात्मा को समर्पित होना असंभव सा है। पहले आत्म-साक्षात्कार करो, फिर समान विचारों के जीवन साथी के साथ घर-गृहस्थी बसाओ, नहीं तो विरक्त होकर अकेले ही रहो।
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मैं बहुत देरी से इस क्षेत्र में आया था। स्वयं के व्यक्तित्व में साहस का अभाव, घर व समाज में मार्ग-दर्शन का अभाव, हर कदम पर विरोध, घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ और अनेक तरह के बहाने थे, जिन्होंने ईश्वर की ओर पूरी तरह से उन्मुख नहीं होने दिया।
मेरा जन्म एक ऐसे समाज में हुआ जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही संघर्ष कर रहा था। वैसे वातावरण में जहाँ सब ओर से विरोध हो, विरक्त होकर परमात्मा को समर्पित होना असंभव था।
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बहुत कुछ प्राप्त किया लेकिन अब भी एक बहुत पतले धुएँ का सा आवरण मेरे और परमात्मा के बीच में है, जो दूर नहीं हो रहा है। वह इसी जन्म में दूर तो हो जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है। परमात्मा के और मेरे मध्य में बस एक ही कदम की दूरी है।
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हमारा सर्वप्रथम और सर्वोच्च लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति हो, फिर उस चेतना में बाकी जीवन जीना हो। मुझे कोई मुक्ति या मोक्ष नहीं चाहिए। यदि पुनर्जन्म हो तो जन्म से ही वैराग्य और परमात्मा से परमप्रेम हो। परमात्मा को तो आना ही पड़ेगा। वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मई २०२४
मनुष्य जीवन की एकमात्र समस्या और समाधान ..... .
मनुष्य जीवन की एकमात्र समस्या और समाधान .....
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मनुष्य जीवन की प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या है .... ईश्वर की प्राप्ति, और एकमात्र समाधान भी है .... ईश्वर की प्राप्ति| यह सृष्टि परमात्मा की रचना है जिसे चलाने में वह सक्षम है| उसे हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम स्वयं भी उसी की रचना हैं| हरेक कार्य विधिवत रूप से कुछ नियमों के अंतर्गत होता है, जिन्हें न जानना ही हमारी अज्ञानता है| किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड तो हमें भुगतना ही पड़ता है| हमारा यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता कि हमें नियमों का ज्ञान नहीं था| कहीं न कहीं किसी आध्यात्मिक नियम का उल्लंघन करने से कष्ट और पीड़ा का सामना करना ही पड़ता है| यहीं से सभी तथाकथित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं|
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वास्तव में ये सब समस्याएँ हमारी नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता परमात्मा की हैं| वही तो सब कुछ कर रहा है| जब हम कुछ करेंगे ही नहीं तो हम कैसे उत्तरदायी हो सकते हैं? हम ने तो कहा नहीं था कि हमें पृथक जीवन दो| जिसने यह जीवन दिया है और जो सब कुछ कर रहा है वही अपने कर्मफलों का भोगी है, हम नहीं| हम अहंकारवश स्वयं को कर्ता बना देते हैं बस यहीं से सब दु:ख, कष्ट और पीड़ाएँ आरम्भ होती हैं| कर्ता भी वह है और भोक्ता भी वह ही है|
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अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ| वह जब इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारा ध्रुव तारा ही नहीं, कर्णधार भी बन जाएगा तब हम भटकेंगे नहीं| प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी| बस उसे और सिर्फ उसे अपनी जीवन नौका का कर्णधार बना लो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१३
यह कठिन समय भी अब अति शीघ्र ही निकल जाएगा| ---
यह कठिन समय भी अब अति शीघ्र ही निकल जाएगा| पहिले की लिखी हुई अपनी सारी नकारात्मक पोस्ट अब डिलीट कर रहा हूँ| उन क्षणों में मेरी सोच ही गलत हो गई थी| कोई भी नकारात्मक लेख कभी भी नहीं लिखने चाहियें, और नकारात्मक लिखने वाले दूसरे लोगों को भी अमित्र और ब्लॉक कर देना चाहिए|
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चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, भगवान के भक्त का कुछ भी नहीं बिगड़ सकता, यह स्पष्ट आश्वासन भगवान ने स्वयं दे रखा है| सारे प्रारब्ध कर्मफल और बुरे से बुरे ग्रह-नक्षत्र भी हमारा कुछ भी नही नहीं बिगाड़ सकते, जब हमारे समर्पण में पूर्णता हो| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्||९:२७||
"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः| संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि||९:२८||
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः| ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९||"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति| कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति||९:३१||"
"मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः| स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्||९:३२||"
"किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा| अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्||९:३३||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
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अब बात भगवान की ही सुनेंगे, न कि परनिंदकों की|
भगवान श्रीराम ने स्पष्ट आश्वासन दे रखा है .....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम|| वाल्मीकि रामायण ६:१८:३३||"
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"एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः| दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय|| (महाभारत, शान्तिपर्व ४७/९२)"
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भगवान हैं अतः हम निर्भय हैं| उनके होते हुए हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ शिव !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२०
परमात्मा की विस्मृति कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में अब और नहीं हो सकती, चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, और मृत्यु मेरे सामने खड़ी हो।
परमात्मा की विस्मृति कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में अब और नहीं हो सकती, चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, और मृत्यु मेरे सामने खड़ी हो। उनको मैं कभी नहीं भूल सकता, जो मुझे एक निमित्त मात्र बना कर मेरा यह जीवन जी रहे हैं। यह जीवन उन्हीं का है, वे ही इसे जी रहे हैं, मैं नहीं। मैं सदा निर्भय, निश्चिंत और शांत हूँ।
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥९:२७॥"
"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
"मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥९:३२॥"
"किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥९:३३॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
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"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥६:१८:३३॥" (वाल्मीकि रामायण)
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"एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय॥४७:९२॥" (महाभारत शान्तिपर्व)
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भगवान हैं, इसी समय हैं, यहीं पर है, हर समय व हर स्थान पर वे मेरे साथ हैं। मैं भी हर समय उनके ही कूटस्थ हृदय में हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
कृपा शंकर
२२ मई २०२१
हम किसकी उपासना करें ? --- .
हम किसकी उपासना करें ? ---
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इस विषय को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के १२वें अध्याय 'भक्ति-योग' में जितनी अच्छी तरह से समझाया है, उतना स्पष्ट अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा। सिर्फ समझने की आवश्यकता है। हम इसे इसलिये नहीं समझ नहीं पाते क्योंकि हमारे मन में भक्ति नहीं, व्यापार है। भगवान हमारे लिए एक साधन हैं; जिनके माध्यम से हम हमारे साध्य -- रुपया-पैसा, धन-संपत्ति, यश और इंद्रिय-सुखों को प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान को हमने उपयोगिता का एक साधन बना लिया है, इसलिए भगवान का नाम हम दूसरों को ठगने के लिये लेते हैं। वास्तव में हम स्वयं को ही ठग रहे हैं। हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती इसका एकमात्र कारण "सत्यनिष्ठा का अभाव" है। अन्य कोई कारण नहीं है।
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हमारा लक्ष्य यानि साध्य तो भगवान स्वयं ही हों। भगवान कहते हैं ---
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् -- "मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥"
"परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥"
"इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥"
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इस से पहिले भगवान ११वें अध्याय के ५५वें श्लोक में भगवान कह चुके हैं ---
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥११:५५॥"
अर्थात् -- "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है॥"
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गुरु के उपदेश व आदेशानुसार योगमार्ग के साधक कूटस्थ में भगवान का ध्यान पूर्ण भक्ति से करते हैं। निराकार तो कुछ भी नहीं है। जिसकी भी सृष्टि हुई है, वह साकार है। उपासना साकार की ही हो सकती है। पूरी तरह समझकर अध्याय १२ (भक्तियोग) का खूब स्वाध्याय और ध्यान करें। मन में छाया असत्य का सारा अंधकार दूर होने लगेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२१
पाकिस्तान का फिलिस्तीन से प्रेम का नाटक एक ढोंग है ---
पाकिस्तान का फिलिस्तीन से प्रेम का नाटक एक ढोंग है ---
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पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उल-हक़ ने पकिस्तानी फौज के साथ १६ सितंबर १९७० को जब वे ब्रिगेडियर के रूप में जोर्डन में नियुक्त थे, जोर्डन के राजा किंग हुसैन के आदेश से दस-हजार से पच्चीस हजार के बीच फिलिस्तीनी मुसलमानों की हत्या की थी। इसके लिए किंग हुसैन ने उन्हें जोर्डन का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भी दिया था।
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फिलिस्तीनी नेता यासर अराफ़ात अपने समय का सबसे बड़ा ढोंगी और दुष्ट था जिसने उस समय कसम खाई थी कि वह कभी पाकिस्तान नहीं जाएगा। लेकिन इस घटना के बाद तीन बार पाकिस्तान गया। तत्कालीन भारत सरकार से नेहरू शांति पुरस्कार, और करोड़ों रुपए, व मुफ्त में एक बोइंग हवाई जहाज ठग कर भी, कश्मीर के मामले में सदा पाकिस्तान का साथ दिया। भारत पर उस समय एक असत्य का अंधकार छाया हुआ था, जो ऐसे दुष्टों का साथ दिया। भारत ने फिलिस्तीन के विद्यार्थियों को भारत में निःशुल्क अध्ययन, निवास और भोजन की व्यवस्था भी कर रखी थी।
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वर्तमान में स्थिति यह है कि अरब देश फिलिस्तीनियों को कोई भाव नहीं देते। उनको अपने से दूर खड़ा कर के ही बात करते हैं। उन को सब तरह की आर्थिक सहायता भी बंद कर दी है। लगभग सारे अरब देश - ईरान के विरुद्ध और इज़राइल से समीप हैं।
२२ मई २०२१
हमारा चिंतन, हर विचार, सम्पूर्ण अस्तित्व अपने आप में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ---
हमारा चिंतन, हर विचार, सम्पूर्ण अस्तित्व अपने आप में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ---
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हमारा कार्य निरंतर परमात्मा की चेतना में रहना है, सारा कार्य तो परमात्मा स्वयं कर रहे हैं। अपने चारों ओर के वातावरण को अनुकूल बनाने का प्रयास स्वयं को ही करना पड़ेगा, फिर परमात्मा की कृपा ही अनुकूलता के रूप में आती है।
श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम कहते हैं --
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो| सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो||
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ|
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ||"
अर्थात् "यह मनुष्य का शरीर भवसागर से तरने के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं| जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है||"
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च|
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||"
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मनुष्य की एकमात्र समस्या है -- परमात्मा को उपलब्ध/समर्पित होना। अन्य कोई समस्या नहीं है। हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों? यही तो सनातन धर्म हमें सिखाता है। हमारे सब दु:खों, कष्टों और पीडाओं का एकमात्र कारण है -- परमात्मा से पृथकता। अन्य कोई कारण नहीं है। अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ केंद्र पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ। वे इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारे ध्रुव ही नहीं, हमारी नौका के कर्णधार भी हैं। उनको अपना हाथ थमा देंगे तो हम भटकेंगे नहीं। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी।
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पुनश्च: --- अनन्य भाव से कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। निरंतर पुरुषोत्तम की चेतना में रहें। निज जीवन में पुरुषोत्तम को व्यक्त करें। यही ब्राह्मी-स्थिति है, यही कूटस्थ-चैतन्य है। निरंतर इसका चिंतन हमें वीतराग और स्थितप्रज्ञ बना देगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२५
सिर्फ प्रवचनों को सुनने, या उपदेशों को पढ़ने मात्र से किसी को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती ---
सिर्फ प्रवचनों को सुनने, या उपदेशों को पढ़ने मात्र से किसी को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती ---
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"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥"
"नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
अर्थात् -- "यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।"
''जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र (समाहित) नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह 'आत्मा' प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।"
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मैं जो आध्यात्मिक लेख लिखता हूँ, उनसे पता नहीं किसी को लाभ होता है या नहीं। आपके सामने मिठाई पड़ी है तो आनंद उसे खाने में हैं, न कि उसके विवरण में। आध्यात्मिक लेखों या पुस्तकों को सिर्फ पढ़ने मात्र से कोई लाभ नहीं है। उनके उपदेशों के अनुसार आचरण करना पड़ता है। पुस्तकों से पढ़कर कोई वायुयान का पायलट, या जलयान का कप्तान नहीं बन सकता। तैरने के बारे में पढ़ने मात्र से कोई तैरना नहीं सीख सकता। श्रुति भगवती को, गीता को, या अन्य धर्मशास्त्रों को पढ़ने मात्र से भगवान नहीं मिल सकते, उन के उपदेशों का चिंतन, मनन, निदिध्यासन करते हुए उनके अनुसार आचरण / ध्यान / उपासना करनी पड़ती है।
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जैसे वातावरण में जो रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। अतः अब से मैं लिखने के स्थान पर पूरी सृष्टि के साथ एक होकर परमात्मा के ध्यान में ही अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहता हूँ। यदि मैं एक घंटे पढ़ूँगा तो आठ घंटे भगवान का ध्यान करूँगा। ध्यान साधना/उपासना का समय बढ़ाते बढ़ाते अगले कुछ दिनों में ही नित्य कम से कम आठ घंटे तक करने का संकल्प है। मेरे पास अधिक समय उपलब्ध नहीं है। जीवन बहुत अल्प है जिसका कोई भरोसा नहीं है। मुझे भी ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, और उचित वातावरण चाहिए। आप सब से भी अनुरोध है कि मेरा साथ न छोड़ें। मुझ से जुड़ कर परमात्मा में स्थित रहें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२३
हमारा कार्य निरंतर भगवान की चेतना में रहना है, बाकी सब कामों की जिम्मेदारी भगवान की है ---
हमारा कार्य निरंतर भगवान की चेतना में रहना है, बाकी सब कामों की जिम्मेदारी भगवान की है ---
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यह सृष्टि हमारी नहीं, भगवान की रचना है, जिसे चलाना उनकी प्रकृति का काम है। भगवान की प्रकृति द्वारा हरेक कार्य विधिवत रूप से अपने नियमों के अंतर्गत होता है, जिन्हें न जानना हमारी अज्ञानता है। किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड तो हमें भुगतना ही पड़ता है। हमारा यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता कि हमें नियमों का ज्ञान नहीं था। कहीं न कहीं किसी आध्यात्मिक नियम का उल्लंघन करने से कष्ट और पीड़ा का सामना करना ही पड़ता है। यहीं से सभी तथाकथित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। भगवान को हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है।
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वास्तव में ये समस्याएँ हमारी नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता भगवान की हैं। वे ही तो सब कुछ कर रहे हैं। जब हम कुछ करेंगे ही नहीं तो हम कैसे उत्तरदायी हो सकते हैं? हम अहंकारवश स्वयं को कर्ता बना देते हैं बस यहीं से सब दु:ख, कष्ट और पीडाएं आरम्भ होती हैं। वास्तव में कर्ता भी वे हैं, और भोक्ता भी वे ही हैं। हम तो निमित्त मात्र हैं।
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मनुष्य की एकमात्र समस्या है -- भगवान को उपलब्ध/समर्पित होना। अन्य कोई समस्या नहीं है। हम भगवान को कैसे उपलब्ध हों? यही तो सनातन धर्म हमें सिखाता है। हमारे सब दु:खों, कष्टों और पीडाओं का एकमात्र कारण है -- भगवान से पृथकता। अन्य कोई कारण नहीं है।
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अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ केंद्र पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ। वे इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारे ध्रुव ही नहीं, हमारी नौका के कर्णधार भी हैं। उनको अपना हाथ थमा देंगे तो हम भटकेंगे नहीं। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी।
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रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है| यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है|
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||
(यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं|)
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
(जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है|)
अतः इस भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है|
यह सन्मुख मरुत वाला साधन क्या है? इस पर मैं बहुत बार लिख चुका हूँ। सन्मुख मरुत -- भगवान के अनुग्रह से हमारे सम्मुख दो नासिका छिद्रों से चल रही हमारी साँसें हैं। हमारी हर साँस पर भगवान का स्मरण अजपा-जप, हंसःयोग, हंसवतिऋक द्वारा हो।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात - (सर्वात्म भाव से) जो मुझे सर्वत्र, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (गीता)
अर्थात - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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अपने दिवस का आरंभ और समापन भगवान के गहनतम ध्यान से करें। हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखें। रात्री को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान आधे घंटे से एक घंटे तक कर के सोएं; और प्रातः उठते ही भगवान का कम से कम एक या दो घंटे तक ध्यान करें।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२३
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