हमारा कार्य निरंतर भगवान की चेतना में रहना है, बाकी सब कामों की जिम्मेदारी भगवान की है ---
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यह सृष्टि हमारी नहीं, भगवान की रचना है, जिसे चलाना उनकी प्रकृति का काम है। भगवान की प्रकृति द्वारा हरेक कार्य विधिवत रूप से अपने नियमों के अंतर्गत होता है, जिन्हें न जानना हमारी अज्ञानता है। किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड तो हमें भुगतना ही पड़ता है। हमारा यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता कि हमें नियमों का ज्ञान नहीं था। कहीं न कहीं किसी आध्यात्मिक नियम का उल्लंघन करने से कष्ट और पीड़ा का सामना करना ही पड़ता है। यहीं से सभी तथाकथित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। भगवान को हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है।
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वास्तव में ये समस्याएँ हमारी नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता भगवान की हैं। वे ही तो सब कुछ कर रहे हैं। जब हम कुछ करेंगे ही नहीं तो हम कैसे उत्तरदायी हो सकते हैं? हम अहंकारवश स्वयं को कर्ता बना देते हैं बस यहीं से सब दु:ख, कष्ट और पीडाएं आरम्भ होती हैं। वास्तव में कर्ता भी वे हैं, और भोक्ता भी वे ही हैं। हम तो निमित्त मात्र हैं।
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मनुष्य की एकमात्र समस्या है -- भगवान को उपलब्ध/समर्पित होना। अन्य कोई समस्या नहीं है। हम भगवान को कैसे उपलब्ध हों? यही तो सनातन धर्म हमें सिखाता है। हमारे सब दु:खों, कष्टों और पीडाओं का एकमात्र कारण है -- भगवान से पृथकता। अन्य कोई कारण नहीं है।
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अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ केंद्र पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ। वे इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारे ध्रुव ही नहीं, हमारी नौका के कर्णधार भी हैं। उनको अपना हाथ थमा देंगे तो हम भटकेंगे नहीं। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी।
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रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है| यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है|
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||
(यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं|)
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
(जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है|)
अतः इस भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है|
यह सन्मुख मरुत वाला साधन क्या है? इस पर मैं बहुत बार लिख चुका हूँ। सन्मुख मरुत -- भगवान के अनुग्रह से हमारे सम्मुख दो नासिका छिद्रों से चल रही हमारी साँसें हैं। हमारी हर साँस पर भगवान का स्मरण अजपा-जप, हंसःयोग, हंसवतिऋक द्वारा हो।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात - (सर्वात्म भाव से) जो मुझे सर्वत्र, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (गीता)
अर्थात - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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अपने दिवस का आरंभ और समापन भगवान के गहनतम ध्यान से करें। हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखें। रात्री को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान आधे घंटे से एक घंटे तक कर के सोएं; और प्रातः उठते ही भगवान का कम से कम एक या दो घंटे तक ध्यान करें।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२३
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