Tuesday, 4 February 2025

सम्पूर्ण मातृशक्ति को नमन ---

 सम्पूर्ण मातृशक्ति को नमन ......

जिस समय मैं ये शब्द लिख रहा हूँ, हमारे मोहल्ले की चालीस-पचास माताएँ हरि-संकीर्तन करते हुए प्रभात फेरी निकालती हुई हमारे घर के सामने से जा रही हैं| यह उनका नित्य का नियम है| बिलकुल सही समय साढ़े पाँच बजे पास के ही एक मंदिर से वे आरम्भ करती है और साढ़े छः बजे बापस आकर समापन कर देती हैं| कभी कभी इनकी संख्या सौ से भी ऊपर चली जाती है| बिलकुल सही समय प्रातः के साढ़े पाँच बजे इनकी वाणी सुनकर मन पवित्र हो जाता है| और तो मैं कर ही क्या सकता हूँ? सम्पूर्ण मातृशक्ति को नमन करता हूँ जिन्हीने सनातन धर्म यानि भगवान की भक्ति को जीवित रखा है| ॐ ॐ ॐ ||
५ फरवरी २०१७

कैवल्य

"कैवल्य" शब्द के अर्थ पर कई बार चिंतन किया है। वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर निज स्वरूप में स्थित हो जाने को कैवल्य कहते हैं। "केवल उसी का होना", उसके साथ किसी अन्य का न होना कैवल्य है।
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भारत में कई मठों व आश्रमों का नाम "कैवल्य धाम" है। बांग्लादेश के चटगांव (अंग्रेजी में Chittagong) नगर में भी एक ऊंची पहाड़ी पर "कैवल्य धाम" नाम का एक मठ है। मैं वहाँ की एक यात्रा का अपना अनुभव आपके साथ बाँट रहा हूँ। सन १९८३ में मुझे किसी काम से बांग्लादेश के चटगांव नगर में जाना पड़ा था। आजादी से पूर्व यह क्षेत्र जब भारत का भाग था, तब क्रांतिकारियों का गढ़ और हिन्दू बहुल क्षेत्र था। पर वहाँ जाकर मुझे बड़ी निराशा हुई। जैसी मुझे अपेक्षा थी, वैसा वहाँ कुछ भी नहीं था। कहीं पर भी कोई हिन्दू मंदिर तो दूर की बात है, किसी हिन्दू मंदिर के अवशेष भी नहीं मिले। एक पहाडी पर फ़ैयाज़ लेक नाम की एक झील थी जो बड़ी सुन्दर थी। लोगों से मैंने पूछा कि कोई हिन्दू मंदिर भी यहाँ पर है क्या? लोगों ने बताया कि एक पहाड़ी पर "कैवल्य धाम" नाम का एक हिन्दू मठ है जिसे मुझे अवश्य देखना चाहिए। मैं उस पहाड़ी पर स्थित "कैवल्य धाम" नाम के मठ में गया। वह स्थान तो बहुत बड़ा था, जिस की दीवारों पर नयी नयी सफेदी हुई थी। वहाँ चार-पांच आदमी बैठे थे जो बड़े मायूस से थे। वे न तो मेरी हिंदी या अंग्रेजी समझ सके और न मैं उनकी बांग्ला समझ सका। उन्होंने अपनी भाषा में कहा तो बहुत कुछ, पर मैं कुछ भी नहीं समझ पाया। नीचे लोग तिरस्कार पूर्वक उस स्थान को "केबलाई डैम" बोल रहे थे।
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विश्व में "कैवल्य धाम" नाम के कई आश्रम हैं जो हिन्दू साधुओं द्वारा बनवाये हुए हैं। कभी कैवल्य पद की प्राप्ति होगी तभी बता पाऊंगा कि कैवल्य क्या है। आप सब के आशीर्वाद से कैवल्य अवस्था को भी उपलब्ध हो ही जाऊंगा। सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

५ फरवरी २०१८ 

अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है ---

 अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है ---

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मैं न तो कोई साधक हूँ, और न कोई भक्त। साधना/उपासना करने का मेरा भाव एक मिथ्या भ्रम है। मैं कुछ भी नहीं हूँ। यहाँ तो स्वयं भगवान वासुदेव शांभवी-मुद्रा में बैठे हुए अपने परमशिव (परम कल्याणकारक) रूप का ध्यान स्वयं कर रहे हैं। वे ही एकमात्र कर्ता हैं। मैं तो एक साक्षी या निमित्त मात्र हूँ, कोई साधक नहीं।
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सूक्ष्म जगत में सहस्त्रारचक्र से ऊपर अब कोई आवरण नहीं है। उससे ऊर्ध्व में ज्योतिर्मय अनंताकाश है, जिससे भी परे ऊर्ध्व में एक परम ज्योतिर्मय श्वेत महासागर है जिसका रंग खीर के रंग का सा है। लगता है यही क्षीरसागर है, जिसे जानने या जिससे पार जाने का एकमात्र उपाय -- स्वयं के अस्तित्व, यानि पृथकता के बोध को परमात्मा में पूर्णतः विलीन करना है। अन्य कोई उपाय नहीं है।
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कुछ भी जानने या पाने की इच्छा अब नहीं है। एकमात्र अभीप्सा समर्पित होने यानि स्वयं की पृथकता के बोध को परमात्मा में अर्पित करना है।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥"
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भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२"४॥"
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२:६॥"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२:७॥"
अर्थात् -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥
इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं॥
हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
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भगवान को कौन प्रिय है? इसका उत्तर उन्होंने गीता के १२वें अध्याय में दे दिया है। उसका स्वाध्याय कर के हम तदानुरूप ही बनें।
हे प्रभु, आपने बड़ी देर कर दी है। बहुत अधिक विलंब कर दिया है। आपको इतना अधिक विलंब नहीं करना चाहिये था। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित करता हूँ। कोई कामना नहीं है। जैसी आपकी इच्छा॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०२५

उपासना/समर्पण ---

 उपासना/समर्पण ---

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एकमात्र अस्तित्व भगवान का है। प्रेमवश उनको समर्पित होने के पश्चात जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। पूरी सृष्टि में मेरे से अन्य कोई नहीं है। मैं ही सारी सृष्टि में सभी रूपों में व्याप्त हूँ। वे जो वासुदेव (सर्वत्र समान रूप से व्याप्त) हैं, वे ही परमशिव (परम कल्याणकारक) हैं, और वे ही विष्णु (विश्वं विष्णु:) हैं। उन से अन्य कुछ भी नहीं है। जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। मैं यह शरीर नहीं, सर्वव्यापी सच्चिदानंद परमशिव हूँ।
ॐ ॐ ॐ !!
वर्तमान क्षण, आने वाले सारे क्षण, और यह सारा अवशिष्ट जीवन भगवान को समर्पित है। वे स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। यह भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर, इन के साथ जुड़ा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), सारी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ व उनकी तन्मात्राएँ, पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व -- भगवान को समर्पित है। वे ही पुरुषोत्तम हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही श्रीहरिः हैं। सारे नाम-रूप और सारी महिमा उन्हीं की है। इस देह से सांसें भी वे ही ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, और इस हृदय में भी वे ही धडक रहे हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" गीता)
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श्रीमद्भगवद्गीता का सम्पूर्ण सार उपासना की दृष्टि से निम्न मंत्रों में छिपा है --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५:१८॥"
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५:१९॥"
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श्रुति भगवती यह बात बार-बार अनेक अनेक स्थानों पर कहती है --
"प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥"
भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
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सारी महिमा परमात्मा की है। 'परमशिव' -- गहन ध्यान में होने वाली अनुभूति है जो बुद्धि का विषय नहीं है। अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है। भक्ति का जन्म पहले होता है। फिर सारा ज्ञान अपने आप ही प्रकट होकर भक्ति के पीछे पीछे चलता है। इसी तरह परा-भक्ति के साथ साथ जब सत्यनिष्ठा हो, तब भगवान का ध्यान अपने आप ही होने लगता है। जब भगवान का ध्यान होने लगता है, तब सारे यम-नियम -- भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं। भक्त को यम-नियमों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है। यम-नियम ही भगवान के भक्त से जुड़कर धन्य हो जाते हैं।
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अब तक पता नहीं कितने जन्मों में मैंने कितनों से प्यार किया, और कितनों ने मुझ से प्यार किया? कितने ही मेरे माँ-बाप, स्त्री, पुत्र-पुत्रियाँ, मित्र, और सगे-संबंधी थे। वे सब अब कहाँ हैं? इस जन्म के भी लगभग सभी मित्र काल-कवलित हो गए हैं। कोई एक या दो मित्र ही जीवित बचे हैं। अब कोई कामना नहीं है। भगवान की जो मर्जी आए सो वे करें। वे मुझसे दूर नहीं रह सकते, इसलिए अपने हृदय में स्थान दे दिया है। यह उनकी परम कृपा है।
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किसको नमन करूँ? सर्वत्र तो मैं ही मैं हूँ। जहाँ मैं हूँ, वहीं भगवान हैं। जहाँ भगवान हैं, वहाँ सब कुछ है॥ ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ फरवरी २०२३

भगवान का अनुग्रह ---

एक ग्रह है जो सबसे बड़ा है। यदि वह अनुकूल हो तो अन्य सारे प्रतिकूल ग्रह उसके सामने विफल हैं। कितने भी मारकेश हों, कितनी भी भयावह परिस्थिति हो, हम हजारों तलवारों के बीच से खरोंच तक आये बिना सुरक्षित निकल सकते हैं, यदि उस ग्रह की कृपा हो। उस ग्रह का नाम है -- भगवान का "अनुग्रह"।

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"जितने तारे गगन में, उतने शत्रु होंय। कृपा होय रघुनाथ की, बाल न बाँका होय॥"
भगवान की हम पर परम कृपा हो, तो वे स्वयं हमारा योगक्षेम देखते हैं।
भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥"
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क्यों न हम भगवान का इतना चिंतन करें की वे स्वयं ही हमारी चिंता करना आरंभ कर दें? हम उनकी शरणागत हैं। उनका स्वयं का वचन है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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वाल्मीकि रामायण में उनका स्पष्ट आश्वासन है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।⁣
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् - जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०२५

मान-सम्मान पाने की कामना, माया का बड़ा भयंकर जाल है, जिसमें धोखा ही धोखा है ---

 

🌹 मान-सम्मान पाने की कामना, माया का बड़ा भयंकर जाल है, जिसमें धोखा ही धोखा है। "समत्व" ही गीता का मुख्य उपदेश है। समत्व की उपलब्धि ही ज्ञान है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है। अहंकार से प्रेरित इच्छाओं और ममत्व के कारण हमारा व्यक्तित्व विखंडित भी हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार हमारे समस्त दुःखों का कारण -- अहंकार, ममत्व, स्वार्थ और कामनायें हैं। इन का त्याग -- स्थितप्रज्ञता है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
🌹 मान-सम्मान पाने की कामना एक स्पृहा है जो हमारे मन को अशांत करती है। गीता में भगवान हमें निःस्पृह होने का उपदेश देते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥२:७१॥"
अर्थात् जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है॥
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🌹 मेरी आत्मा ही सब की आत्मा है - इस भाव का अनंत विस्तार ही - "अहं ब्रह्मास्मि" है। समत्व में स्थिति ही ब्रह्मपद है, जिसमें स्थितप्रज्ञ होकर हम न तो प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, और न ही निन्दा से खिन्न।
🌹इसके लिए हमें भगवान की उपासना करनी होगी। मात्र संकल्प से यह सिद्धि नहीं हो सकती। भगवान हम सब की रक्षा करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ फरवरी २०२३
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