Monday, 14 April 2025

जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?

प्रश्न : जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?

उत्तर :----
इस विषय का चिंतन सिर्फ भारतवर्ष में ही हुआ है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| जहाँ तक मेरा सवाल है मैं तो परमात्मा के साथ एक हूँ, मुझे तो जो मेरे हृदय में, मेरी चेतना में हैं, उनसे पृथक अन्य कोई नहीं चाहिए|
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कुछ शाश्वत जिज्ञासाएँ और प्रश्न हैं उनमें से सबसे बड़ी जिज्ञासा रही है कि क्या परमात्मा है और हमें उसकी आवश्यकता क्यों है? विश्व में ईसाईयत और इस्लाम ने अपनी अपनी ईश्वर की अवधारणाएँ विकसित कीं और बहुत ही निर्मम और हिंसक तरीके से अपनी मान्यताओं को विश्व में स्थापित किया| पर ये दोनों विचारधाराएँ आपस में सदा युद्धरत रहीं| इनका मत था कि सभी इनकी मान्यताओं को या तो मानें अन्यथा मरने के लिए तैयार रहें| इस्लाम, ईसाई और यहूदी .... इन तीनों मतों का जन्म मध्यपूर्व में हुआ और तीनों इब्राहिमी (Abrahamic religion) मत हैं पर तीनों में कोई समानता नहीं है| इतिहास में ये आपस में सदा युद्धरत रहे हैं| इनमें कभी यह चिंतन नहीं किया गया कि परमात्मा की आवश्यकता क्यों है|
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रूस में नास्तिक साम्यवादी विचारधारा विकसित हुई जो बलात् सब पर थोपी गयी, जहाँ ईश्वर को मानने का अर्थ था अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना| यह भी बहुत अधिक हिंसक व्यवस्था थी| अब वह व्यवस्था अपनी स्वाभाविक मौत मर चुकी है, सिर्फ भारत में ही इसके कुछ अनुयायी बचे हैं| विश्व में सिर्फ उत्तरी कोरिया ही एक ऐसा देश है जहाँ ईश्वर को मानने की सजा मौत है| वहाँ का निरंकुश शासक ही स्वघोषित सब कुछ है|
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भारत में जो नास्तिक मत प्रचलित हुए उनके पास एक अति गहन दर्शन था| उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता को कभी स्वीकार नहीं किया| इन नास्तिक मतों में प्रमुख हैं ... बौद्ध और जैन मत| इन मतों का विश्व में खूब प्रचार हुआ| ये कभी हिंसक नहीं रहे| बौद्ध मत में 'निर्वाण', और जैन मत में 'वीतरागता' लक्ष्य रही|
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अपना प्रश्न यह है कि हमें ईश्वर की आवश्यकता क्यों है? आवश्यकता है भी या नहीं? मनुष्य संसार में सुख, शांति और समृद्धि ढूँढता है, पर उसे सदा निराशा मिलती है| अंततः हार कर वह विचार करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, यह सृष्टि क्यों है, सृष्टिकर्ता कौन है आदि आदि| यहीं से ईश्वर को जानने की जिज्ञासा का जन्म होता है| इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ही व्यक्ति ईश्वर की आवश्यकता को अनुभूत करता है|
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ईश्वर की आवश्यकता हमें इसलिए है कि हम ईश्वर में से आये हैं और जब तक अपने मूल में बापस नहीं लौट जाते तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, तब तक हमें कोई सुख शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती| यह सृष्टि बनी ही ऐसे है| इसका नियम भी यही है| कोई चाहे या न चाहे प्रत्येक जीव को बापस अपने मूल में लौटना ही पड़ता है| जो इसे समझते हैं वे बिना कष्ट पाए चले जाते है और जो नहीं समझते उन्हें कष्ट पाकर लौटना ही पड़ता है| प्रत्येक जीव को शिव बनना ही पड़ता है यही सृष्टि का नियम है| जिस परम चेतना से हमारा प्रादुर्भाव हुआ है उस चेतना में अपने अहंभाव को नष्ट कर हमें विलीन होना ही पड़ेगा| ईश्वर "सच्चिदानन्द" है जिसे उपलब्ध होने के लिए ही हमारा अस्तित्व हुआ है यही ईश्वर की सबसे बड़ी आवश्यकता है| प्रत्येक जीव का शिव बनना उसकी नियति है|
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ईश्वर पर और उसकी आवश्यकता पर जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है| खूब गहन चिंतन मनन करने, और साधना द्वारा साक्षात्कार करने के उपरांत ईश्वर के अस्तित्व और उसकी आवश्यकता को सनातन परम्परा में स्वीकार किया गया है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते | सर्वत्रागम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्" ||१२:३||
"सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्रा, समबुद्धयः | ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः" ||१२:४||
अर्थात् जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिंत्य की, कूटस्थ की, अचल ध्रुव की खोज करते हैं , सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं|
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हमारे जीवन में एक पीड़ादायक अभाव हर समय सदा ही रहता है| वह अभाव सिर्फ ईश्वर की भक्ति से ही दूर होता है| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था उस समय १९६७, १९६८ में मैं दो वर्ष रूस में रहा| रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान था| मेरी आयु १९-२० वर्ष की थी पर हर समय कुछ नया जानने और सीखने की प्रबल जिज्ञासा रहती थी| वहाँ ईश्वर का नाम लेने, धार्मिक कर्मकांड, किसी भी तरह के धार्मिक साहित्य और गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था| नास्तिकता ही राजधर्म थी| वहाँ की व्यवस्था की सोच यह थी कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता (जैसे रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जाए और व्यक्ति समर्पित होकर पूर्ण रूप से राज्य व्यवस्था के लिए कार्य करे| सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था वहाँ एकदम समाप्त हो गयी थी| उस घोर नास्तिक व्यवस्था में लोगो की वेदना और तड़प को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया है| लोग अपने आतंरिक अभाव की पूर्ती शराब और सेक्स से ही करने का प्रयास करते थे| किसी भी उत्सव पर या सप्ताहांत में जिधर देखो उधर चारों ओर नशे में चूर युवक युवतियों की भीड़ बिना किसी वर्जना के दिखाई देती थी| उन्ही दिनों तीन महीने लातविया की राजधानी रीगा में भी रहने का अवसर मिला| वहाँ के लोगों की तड़प तो रूसियों से भी अधिक थी| अब तो यह सोचकर काँप उठता हूँ कि बिना ईश्वर के कैसा अर्थहीन जीवन होता है| १९८० में २० दिन के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| वहाँ के सभी अधिकारियों को रूसी भाषा आती थी अतः संवाद में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई| वहां की घोर नास्तिक व्यवस्था में मनुष्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाली मशीन के अलावा और कुछ भी नहीं था| ऐसी नास्तिक व्यवस्था की कल्पना करते हुए भी डर लगता है| १९७६ में रोमानिया गया था कुछ दिनों के लिए| वहां भी सभी नास्तिक साम्यवादी देशों जैसा ही बुरा हाल था| क्या स्त्री क्या पुरुष सब की एक ही सोच थी कि खूब सिगरेट, शराब और सेक्स का सेवन करो और राज्य की व्यवस्था के अनुकूल रहो| १९८८ के अंत में जब साम्यवाद का पतन हुआ तब मैं संयोगवश युक्रेन के ओडेसा नगर में था| उस समय वहाँ के कुछ दृश्य भूल नहीं सकता जब अनेक युवक युवतियां राज्य की नास्तिक व्यवस्था को पूर्ण चुनौती देते हुए सार्वजनिक पार्कों में कीर्तन करते थे| पुलिस उन्हें जेल में डालती तो वहां भी वे कीर्तन करने लगते| वहाँ की नास्तिक सरकार उन लोगों से डरने लगी थी| वहाँ मैनें यह प्रत्यक्ष देखा कि जीवन में ईश्वर की क्यों आवश्यकता है| जीवन में बहुत नास्तिक लोगों को देखा है उनका जीवन सदा असंतुष्ट और दुःखी ही रहता है| इससे अधिक और लिखना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| सभी को धन्यवाद और सादर नमन !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१३

हम इस संसार की मानसिक दासता से मुक्त हों ---

हम इस संसार की मानसिक दासता से मुक्त हों ---
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संसार की मानसिक दासता -- एक बड़ी दुःखद स्थिति है, जिसका एकमात्र कारण हमारा राग-द्वेष और अहंकार रूपी मोहकलिल (मोह रूपी कीचड़) है। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता है। वीतराग व्यक्ति किसी का दास नहीं हो सकता, क्योंकि वह मोहात्मक अविवेक कालिमा का उल्लंघन कर चुका है। वीतराग व्यक्ति ही निःस्पृह और स्थितप्रज्ञ हो सकता है। गीता में भगवान हमें स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं। इसके लिए स्वाध्याय और साधना करनी पड़ेगी। शास्त्रों के सिर्फ स्वाध्याय (अध्ययन), और प्रवचन सुनने मात्र से परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। साधना (उपासना) अपरिहार्य है।
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भगवान कहते हैं --
"यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२:५२॥"
"श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२:५३॥"
अर्थात् - जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं॥ ॥२:५२॥
जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे॥ ॥२:५३॥
When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear. ॥२:५२॥
When the intellect, bewildered by the multiplicity of holy scripts, stands unperturbed in blissful contemplation of the Infinite, then hast thou attained Spirituality. ॥२:५३॥
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अर्जुन पूछते हैं --
"स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२:५४॥"
अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है? स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥२:५४॥
Arjuna asked: My Lord! How can we recognize the saint who has attained Pure Intellect, reached this state of Bliss, and whose mind is steady? how does he talk, how does he live, and how does he act? ॥२:५४॥
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भगवान कहते है --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२:५९॥"
अर्थात् -- श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥ ॥२:५५॥
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है। जिसके मन से राग भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥ ॥२:५६॥
सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है॥ ॥२:५७॥
जिस तरह कछुआ अपने अङ्गों को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्मयोगी इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। ॥२:५८॥
निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है। (२:५९)
Lord Shri Krishna replied: When a man has given up the desires of his heart and is satisfied with the Self alone, be sure that he has reached the highest state. ॥२:५५॥
The sage, whose mind is unruffled in suffering, whose desire is not roused by enjoyment, who is without attachment, anger, or fear - take him to be one who stands at that lofty level. ॥२:५६॥
He who wherever he goes is attached to no person and to no place by ties of flesh; who accepts good and evil alike, neither welcoming the one nor shrinking from the other - take him to be one who is merged in the Infinite. ॥२:५७॥
He who can withdraw his senses from the attraction of their objects, as the tortoise draws his limbs within its shell - take it that such a one has attained Perfection. ॥२:५८॥
The objects of sense turn from him who is abstemious. Even the relish for them is lost in him who has seen the Truth. ॥२:५९॥
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आजकल भगवान का खूब अनुग्रह मुझ पर है। प्रातः उठते ही वे मुझे पकड़ लेते हैं, और दिन भर छोड़ते नहीं हैं। अपनी स्मृति में भी हर समय रखते हैं। उनके हृदय में झांक कर देखता हूँ, तो स्वयं को ही वहाँ पाता हूँ। यह उनकी विशेष कृपा है। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व उन को समर्पित है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर

१५ अप्रेल २०२३ 

पशु बली ---

 पशु बली ---

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बहुत पहिले की बात है। श्रावण के पवित्र महीने में सोमवार के पवित्र दिन एक बार पशुपतिनाथ की आराधना करने (काठमाण्डू, नेपाल) गया था। जिस समय जैसी मनःस्थिति होती है, उस समय वैसी ही बात दिमाग में आती है। मंदिर के आसपास बहुत घूर घूर कर बहुत दूर दूर तक देखा, कहीं कोई पशु नहीं दिखाई दिया। यही सोच रहा था कि ये कैसे पशुपतिनाथ हैं? यहाँ तो कोई पशु है ही नहीं।
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दर्शनार्थियों की पंक्ति बहुत लंबी थी। दो घंटे पंक्ति में खड़े रहने के पश्चात मेरा भी नंबर आया। वहाँ पंचमुखी महादेव के भौतिक और मानसिक दर्शन कर के बहुत आनंद हुआ। मेरे प्रश्न का उत्तर भी पशुपतिनाथ से मिल गया। जिस पशु को मैं खोज रहा था, अनुभूति द्वारा पाया कि वह पशु तो मैं स्वयं हूँ। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार जैसे पाशों द्वारा आबद्ध है, वह पशु मेरे सिवाय कोई अन्य नहीं हो सकता। जीव को ही पशु कहते हैं जो जन्म-जन्मांतर से अनेकानेक प्रकार के पाशों से बंधा हुआ है।
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तत्पश्चात पास ही के शक्तिपीठ गुहयेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा करने गया। वहाँ तीर्थ-पुरोहित ने पूछा कि सात्विक या राजसिक कौन सी पूजा करोगे? मैंने तीर्थ-पुरोहित से सात्विक और राजसिक का भेद पूछा। उसने कहा कि राजसिक पूजा तो मांस-मदिरा से होगी और सात्विक पूजा दूध, पुष्प आदि से होगी। मैंने कहा कि पूजा तो सात्विक ही करूंगा। थोड़ी देर भगवती से प्रार्थना की कि अज्ञानमय आवरण से घिरे मेरे चित्त में प्रवेश कर सारे अंधकार को दूर करो।
मुझे तो यही समझ में आया कि जिन पाशों से बंधकर हम पशु बन गए हैं, आत्म-समर्पण द्वारा उस पशुत्व से मुक्त होना ही पशु-बलि है।
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इस अनुभव ने इतना थका दिया कि मैं चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया। अपने साथ मुजफ्फरपुर (बिहार) से एक मित्र को ले गया था। उन से अनुरोध किया कि मुझे उठाकर कैसे भी एक टेक्सी में बैठा दो और साथ में उस अतिथि-भवन तक ले चलो जहां हम ठहरे हुए थे। वहाँ एक दिन आराम किया तब जाकर मैं सामान्य हुआ। अन्य कहीं भी नहीं गया, और अन्य सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिये।
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भगवान परमशिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को करायें। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०२४