पशु बली ---
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बहुत पहिले की बात है। श्रावण के पवित्र महीने में सोमवार के पवित्र दिन एक बार पशुपतिनाथ की आराधना करने (काठमाण्डू, नेपाल) गया था। जिस समय जैसी मनःस्थिति होती है, उस समय वैसी ही बात दिमाग में आती है। मंदिर के आसपास बहुत घूर घूर कर बहुत दूर दूर तक देखा, कहीं कोई पशु नहीं दिखाई दिया। यही सोच रहा था कि ये कैसे पशुपतिनाथ हैं? यहाँ तो कोई पशु है ही नहीं।
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दर्शनार्थियों की पंक्ति बहुत लंबी थी। दो घंटे पंक्ति में खड़े रहने के पश्चात मेरा भी नंबर आया। वहाँ पंचमुखी महादेव के भौतिक और मानसिक दर्शन कर के बहुत आनंद हुआ। मेरे प्रश्न का उत्तर भी पशुपतिनाथ से मिल गया। जिस पशु को मैं खोज रहा था, अनुभूति द्वारा पाया कि वह पशु तो मैं स्वयं हूँ। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार जैसे पाशों द्वारा आबद्ध है, वह पशु मेरे सिवाय कोई अन्य नहीं हो सकता। जीव को ही पशु कहते हैं जो जन्म-जन्मांतर से अनेकानेक प्रकार के पाशों से बंधा हुआ है।
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तत्पश्चात पास ही के शक्तिपीठ गुहयेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा करने गया। वहाँ तीर्थ-पुरोहित ने पूछा कि सात्विक या राजसिक कौन सी पूजा करोगे? मैंने तीर्थ-पुरोहित से सात्विक और राजसिक का भेद पूछा। उसने कहा कि राजसिक पूजा तो मांस-मदिरा से होगी और सात्विक पूजा दूध, पुष्प आदि से होगी। मैंने कहा कि पूजा तो सात्विक ही करूंगा। थोड़ी देर भगवती से प्रार्थना की कि अज्ञानमय आवरण से घिरे मेरे चित्त में प्रवेश कर सारे अंधकार को दूर करो।
मुझे तो यही समझ में आया कि जिन पाशों से बंधकर हम पशु बन गए हैं, आत्म-समर्पण द्वारा उस पशुत्व से मुक्त होना ही पशु-बलि है।
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इस अनुभव ने इतना थका दिया कि मैं चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया। अपने साथ मुजफ्फरपुर (बिहार) से एक मित्र को ले गया था। उन से अनुरोध किया कि मुझे उठाकर कैसे भी एक टेक्सी में बैठा दो और साथ में उस अतिथि-भवन तक ले चलो जहां हम ठहरे हुए थे। वहाँ एक दिन आराम किया तब जाकर मैं सामान्य हुआ। अन्य कहीं भी नहीं गया, और अन्य सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिये।
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भगवान परमशिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को करायें। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०२४
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