Monday, 17 April 2017

स्वयं शक्तिशाली बनो, अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो। भ्रमित करने वाले शब्दजाल में मत फँसो ---

स्वयं शक्तिशाली बनो, अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो। भ्रमित करने वाले शब्दजाल में मत फँसो ---
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हम कहीं वन में घूमने जायें, और सामने कोई हिंसक प्राणी आ जाये और मारने के लिये हम पर आक्रमण करे तो प्रार्थना करने से क्या वह हिंसक प्राणी हमें छोड़ देगा? यदि हम सक्षम हैं तो सिंह की भी हिम्मत नहीं होगी हमारे ऊपर आक्रमण करने की। वैसे ही दुर्जन लोग तो हमें दुःखी करेंगे ही क्योंकि यह उनका स्वभाव है। उनको दोष देने की अपेक्षा हम स्वयं सक्षम बनें। हम सक्षम और शक्तिशाली होंगें तो किसी का भी साहस नहीं होगा हमारा अहित करने का।
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किसी के साथ अन्याय मत करो और निरंतर परोपकार करो। आत्म-प्रशंसा से कुछ नहीं होने वाला। हमें अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो स्वयं की व अपने समाज और राष्ट्र की कमियों को दूर करना होगा। शास्त्र की रक्षा के लिए शस्त्र भी उठाना होगा, स्वयं को सक्षम बनाना होगा, और बालिकाओं को आत्म-रक्षा भी सिखाना होगा। अखाड़ों में जाकर व्यायाम करें और शस्त्र चलाना सीखें। हमें छेड़ने का किसी में साहस नहीं होगा। अपनी कमी के लिए औरों को दोष मत दो।
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कुछ भ्रमित करने वाले उपदेशों से बचो जिन्होनें समाज में भ्रम फैलाया है। हिन्दुओं को मूर्ख बनाने के लिए ये झूठ सिखाए गये हैं ---
"सर्व धर्म समभाव", "सब मार्ग एक ही लक्ष्य पर पहुंचाते हैं", और "सब धर्मों में एक ही बात है", आदि आदि।
उपरोक्त तीनों बातें हिन्दुओं को मूर्ख बनाने के लिए रची गयी हैं। ये किसी मार्क्सवादी सेकुलर के दिमाग की उपज हैं।
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सिर्फ संकल्प से समभाव नहीं आ सकता। यह तो योग साधना की एक बहुत ऊँची उपलब्धि है। इसी पर भगवान श्री कृष्ण ने कहा है -- समत्वं योग उच्यते।
"सर्वधर्म समभाव" -- पूरे संस्कृत या आध्यात्मिक साहित्य में कहीं भी यह वाक्य नहीं है। धर्म तो एक ही होता है। मत-मतान्तर, पंथ और मजहब -- इनको धर्म नहीं कह सकते।
यह आवश्यक नहीं है कि सभी मार्ग एक ही गंतव्य पर पहुँचते हैं। हो सकता है कोई मार्ग आपको भूल भुलैयों में ही घुमाता रहे और कहीं पहुंचे ही ना। किन्हीं भी दो मज़हबों में एक बात नहीं है, बिना उनका अध्ययन किये हम कह देते हैं कि उनमें एक ही बात है।
सभी को नमन। ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
१८ अप्रेल २०१३

भगवान महावीर और स्यादवाद ......

भगवान महावीर और स्यादवाद ......
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महावीर जयंती पर भगवान महावीर के अनुयायियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन|
मेरा जहाँ तक अल्प और सीमित ज्ञान है, महावीर की शिक्षाओं का सार और उद्देश्य है ..... "वीतरागता", यानि एक ऐसी अवस्था की प्राप्ति जो राग-द्वेष और अहंकार से परे हो|
उनकी सबसे बड़ी देन है ..... "स्यादवाद" यानि "अनेकान्तवाद"| स्यादवाद दर्शन इतना स्पष्ट, सरल और सर्वग्राह्य है कि उस पर कोई विवाद नहीं हो सकता| उनके अनुसार सत्य को वो ही जान सकता है जिसने 'कैवल्य' की स्थिति प्राप्त कर ली हो|
उनके अनुयायी "कैवल्य" को कैसे परिभाषित करते हैं, इसका मुझे ज्ञान नहीं है| यह मैं अवश्य जानना चाहूँगा|
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उनके दर्शन के बारे में मैंने विभिन्न स्त्रोतों से जो अध्ययन किया है उसका सार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .......
स्यादवाद दर्शन :---
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किसी भी वस्तु के अनन्त गुण होते हैं। मुक्त या कैवल्य प्राप्त साधक को ही अनन्त गुणों का ज्ञान संभव है। साधारण मनुष्यों का ज्ञान आंशिक और सापेक्ष होता है। वस्तु का यह आंशिक ज्ञान ही नय कहलाता है। नय किसी भी वस्तु को समझने के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। ये नय सत्य के आंशिक रूप कहे जाते हैं। आंशिक और सापेक्ष ज्ञान से सापेक्ष सत्य की प्राप्ति ही संभव है, निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं। सापेक्ष सत्य की प्राप्ति के कारण ही किसी भी वस्तु के संबंध में साधारण व्यक्ति का निर्णय सभी दृष्टियों से सत्य नहीं हो सकता। लोगों के बीच मतभेद रहने का कारण यह है कि वे अपने विचारों को नितान्त सत्य मानने लगते हैं और दूसरे के विचारों की उपेक्षा करते हैं। विचारों को तार्किक रूप से अभिव्यक्त करने और ज्ञान की सापेक्षता का महत्व दर्शाने के लिए ही स्यादवाद या सप्तभंगी नय का सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
सापेक्षिक ज्ञान का बोध कराने के लिए प्रत्येक नय के आरंभ में स्यात् शव्द के प्रयोग का निर्देश किया गया है। इसका उदाहरण एक हाथी और छः नेत्रहीन व्यक्तियों के माध्यम से दिया है। सभी नेत्रहीन ज्ञान की उपलब्धता और उस तक पहुँच की सीमा का बोध कराते हैं। यदि कोई हाथी को सीमित अनुभव के आधार पर कहे कि हाथी खम्भे, रस्सी, दीवार, अजगर या पंखे जैसा है तो वह उसके आंशिक ज्ञान और सापेक्ष सत्य को ही व्यक्त करता है। यदि इसी अनुभव में 'स्यात्' शब्द जोड़ दिया जाय तो मत दोषरहित माना जाता है। अर्थात, यदि कहा जाय कि 'स्यात् हाथी खम्भे या रस्सी के समान है' तो मत तार्किक रूप से सही माना जायगा। उर्दू का शब्द "शायद" "स्यात" का ही अपभ्रंस है|
सप्तभंगी नय :---
(1) स्यात्-अस्ति ............................ (शायद है) |
(2) स्यात्-नास्ति .......................... (शायद नहीं है) |
(3) स्यात् अस्ति च नास्ति च ............(शायद है भी और नहीं भी है) |
(4) स्यात् अव्यक्तम् .................... ..(शायद अव्यक्त है) |
(5) स्यात् अस्ति च अव्यक्तम् च ...... (शायद है भी और अव्यक्त भी है) |
(6) स्यात् नास्ति च अव्यक्तम् च ......(शायद नहीं भी है और अव्यक्त भी है) |
(7) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम् च...(शायद है भी और नहीं भी और अव्यक्त भी है) |
यह विषय मूल रूप से समझने में अति सरल है| कोई भी इसे समझ सकता है|
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वैदिक और श्रमण परंपरा में अंतर .....
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वैदिक परंपरा और श्रमण परम्परा में मूलभूत अंतर यह है कि वैदिक परम्परा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण मानती है, जहाँ श्रमण परंपरा वेदों को अपौरुषेय और प्रमाण नहीं मानती| वैदिक परम्परा आस्तिक है और श्रमण परम्परा नास्तिक है| जैन दर्शन नास्तिक दर्शन है| इस विषय पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए| दोनों में सबसे बड़ी समानता जो है वह है ..... "वीतरागता", जो कोई छोटी मोटी बात नहीं बल्कि बहुत महान उपलब्धि है|
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तीर्थंकर महावीर के उपदेशों की जिन विद्वानों ने विवेचनाएँ की है (क्षमायाचना सहित निवेदन करना चाहता हूँ कि) उन्होंने उसे अत्यंत जटिल और संकीर्ण बना दिया है, अन्यथा यह अत्यंत सरल और पारदर्शी है|
उन्होंने ईश्वर की कहीं आवश्यकता नहीं समझी और सीधे ही वीतरागता की बात की| वीतरागता का अर्थ है ऐसी अवस्था जो राग द्वेष और अहंकार से परे हो| मेरे विचार से यही "कैवल्य" अवस्था है|
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>>> उनके उपदेशों का सार यह है कि पहले वीतराग बनो तभी सत्य को समझ पाओगे| <<<
श्रमण परम्परा का आरम्भ ऋषभदेव से होता है जिनका उल्लेख ऋग्वेद और भागवत में भी है|
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मेरे लिखने में कोई अशुद्धि या दोष रहा हो तो विद्वजनों से क्षमा चाहता हूँ|
धन्यवाद| पुनश्चः मंगल कामनाएँ और अभिनन्दन|
कृपाशंकर
April18,2016

भारत का संविधान क्या मौलिक है ?

भारत का संविधान क्या मौलिक है ?
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भारत के राजनेता कहते हैं कि भारत का संविधान बाबा साहेब अंबेडकर ने लिखा है| पर उन्होंने लिखा क्या है? यह समझना अति कठिन है| सारा संविधान तो ब्रिटिश संसद द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट-1935 और 1947 का ही संपादित रूप है, और दो चार बातें इधर उधर से जोड़ दी गयी हैं| बाबा साहेब अम्बेडकर तो उस एक समिति के अध्यक्ष थे जिसने संविधान का वर्तमान रूप बनाया| वे इस संविधान से सहमत भी नहीं थे इसलिए उन्होंने नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया और अगले चुनावों में स्वयं नेहरु ने उनके विरुद्ध प्रचार किया| भारत की राजनीती में झूठ बहुत अधिक है|
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सन १९७० के दशक तक में छपे हुए संविधान के संस्करणों में धारा-147 छपी हुई है| इसकी भाषा इतनी अधिक कुटिल और जटिल है कि बहुत अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी इसे ठीक से नहीं समझ सकते| इसका सार मुझे तो यही समझ में आया कि ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 व 1947 सर्वोपरी हैं और भारत की सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य है| इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजों ने हमें सता हस्तांतरित की है, स्वतंत्र नहीं किया है| पता नहीं अब तक क्यों इस धारा को निरस्त नहीं किया गया| लगता है किसी ने इसकी जटिल भाषा देखकर इसे समझने का प्रयास ही नहीं किया है| यह धारा यह सिद्ध करती है कि भारत का संविधान ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 व 1947 की संशोधित प्रति मात्र है|
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भारत कॉमनवेल्थ में क्यों है ? ब्रिटेन तो अब इतना गरीब हो गया है कि अँगरेज़ महिलाएँ जापान जाकर घरेलु नौकरानियों का कार्य कर रही हैं| कॉमनवेल्थ में रहने का अर्थ है कि ब्रिटेन की महारानी हमारी राज्य प्रमुख है| हम क्यों इस कॉमनवेल्थ नाम का गुलामी का धब्बा ढो रहे हैं?

जो हम पाना चाहते हैं, जिसे हम ढूंढ रहे हैं, वह तो हम स्वयं ही हैं ...

जो हम पाना चाहते हैं, जिसे हम ढूंढ रहे हैं, वह तो हम स्वयं ही हैं ....
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>>> हम जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर लघुता को अपनाते हैं तो निश्चित रूप से विफल होते हैं| दूसरों का जीवन हम क्यों जीते हैं? दूसरों के शब्दों के सहारे हम क्यों जीते हैं? पुस्तकों और दूसरों के शब्दों में वह कभी नहीं मिलता जो हम ढूँढ रहे हैं, क्योंकि अपने ह्रदय की पुस्तक में वह सब लिखा है|
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>>> कुछ बनने की कामना से हम कुछ नहीं बन सकेंगे, क्योंकि जो हम बनना चाहते हैं, वह तो पहले से ही हैं| कुछ पाने की खोज में भटकते रहेंगे, कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि ...... जो हम पाना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं|
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>>> जीव और शिव, आत्मा और परमात्मा, भक्त और भगवान ------ इन सब के बीच की कड़ी है ..... परमप्रेम और समर्पण| जब हम स्वयं ही वह परमप्रेम बन जाते हैं तो फिर बीच में कोई भेद नहीं रहता| यही है रहस्यों का रहस्य | उठो इस नींद से, और पाओ कि हम स्वयं ही अपने परम प्रिय हैं| हम खंड नहीं, अखंड हैं| हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्णता हैं| हम स्वयं ही मूर्तिमंत परम प्रेम हैं|
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>>> जिसने हमें अब तक भ्रम में डाल रखा था वे हैं हमारे ही चित्त की तरल चंचल वृत्तियाँ जिन्हें हम कभी शांत नहीं कर सके| अतः अब बापस हम उन्हें परमात्मा को समर्पित कर रहे हैं| ये चित्त की चंचलता पता नहीं कब से भटका रही है| शांत होने का नाम ही नहीं ले रही है|
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>>> हे प्रभू, इन्हें बापस स्वीकार कीजिये क्योंकि इन्हें शांत करना अब हमारे वश की बात नहीं है| देना ही है तो अपना स्थायी परम प्रेम दीजिये, इसके अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए|
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>>> अज्ञान के अनंत अन्धकार से घिरे इस दुर्गम अशांत महासागर के पथ पर सिर्फ एक ही मार्गदर्शक ध्रुव तारा है, और वह है आपका प्रेम| वह ही हमारी एकमात्र संपदा है जो कभी कम ना हो|
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>>> न तो हमें श्रुतियों और स्मृतियों आदि शास्त्रों का कोई ज्ञान है और न ही उन्हें समझने की क्षमता| इस देह रूपी वाहन में भी अब कोई क्षमता नहीं बची है| हमारी इन सब लाखों कमियों, दोषों, और अक्षमताओं को बापस आपको अर्पित कर रहे हैं| सारे गुण-दोष, क्षमताएँ-अक्षमताएँ, पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे संचित व प्रारब्ध सब कर्मों के फल और सम्पूर्ण पृथक अस्तित्व, सब कुछ बापस आपको अर्पित है, इसे स्वीकार करें| आप के अतिरिक्त अब हमें और कुछ भी नहीं चाहिए|
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>>> आपकी अनंतता हमारी अनंतता है, आपका प्रेम हमारा प्रेम है, और आपका अस्तित्व हमारा अस्तित्व है| आप और हम एक हैं| आपका यह परम प्रेम सबको बाँटना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
April 17, 2016

माननीय नरेन्द्र मोदी की वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) में एक बहुत बड़ी उपलब्धी..

अप्रैल १७, २०१५.
 
 माननीय नरेन्द्र मोदी की वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) में एक बहुत बड़ी उपलब्धी..
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भारत में बहुत कम लोगों को पता है कि जब पृथक खालिस्तान आन्दोलन चला था तब उसके लिए सबसे अधिक आर्थिक सहयोग वेंकूवर (ब्रिटिश कोलंबिया, कनाडा) से आता था|
मैं पहली बार प्रशांत महासागर के तट पर स्थित वेंकूवर नगर में सन १९८० में गया था, फिर सन १९८५ में दो बार और सन १९९०-९१ में चार बार गया| कुल सात बार वहाँ जा चुका हूँ| वहाँ अनेक मित्र थे| १९९० में मैंने अपना नया पासपोर्ट भी वेकुवर के भारतीय कोंसुलेट से बनवाया था| वहाँ नगर में खालिस्तान समर्थक समाचार पत्र खुले आम मिलते थे| पंजाब और गुजरात से गए प्रवासी वहाँ खूब हैं| सबसे अधिक पंजाबी प्रवासी हैं| वहाँ के एक गुरूद्वारे में तो बीचोंबीच एक दीवार खड़ी कर दी गयी थी क्योंकि उस गुरूद्वारे के आधे सदस्य खालिस्तान के पक्ष में थे और आधे खालिस्तान के विरोध में| वहाँ की इंडिया स्ट्रीट के पंजाबी मार्केट में तो लगता ही नहीं है कि आप कनाडा में हैं| वह बाज़ार पंजाब के किसी बाज़ार जैसा ही लगता है|
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वहाँ के कुछ खालिस्तानी, नरेन्द्र मोदी को एक ज्ञापन देना चाहते थे कि हम हिन्दू नहीं हैं| पर मोदी जी का साहस देखिये कि वे कनाडा के प्रधान मंत्री को साथ लेकर उस गुरूद्वारे में गए, वहाँ दोनों नेताओं ने मत्था टेका और भूमि पर बैठकर सत्संग भजन कीर्तन सुना और उसके पश्चात तालियों की गडगडाहट के मध्य उच्चतम न्यायालय के एक फैसले का उद्धरण देते हुए हिंदुत्व पर एक भाषण भी दे दिया| कहीं कोई विरोध नहीं हुआ| इसके लिए साहस चाहिए| फिर वे वहाँ के प्रसिद्द लक्ष्मीनारायण मंदिर भी गए और कनाडा के प्रधान मंत्री के साथ पूजा अर्चना की|
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ब्रिटिश कोलम्बिया में ही एक दो अन्य नगरों में भी गया हूँ| इससे पहिले सन १९८२ में अटलांटिक महासागर तट पर सेंट लॉरेंस नदी के मुहाने पर मोंट्रीयाल नगर भी गया था और वहाँ से कनाडा का नियाग्रा जलप्रपात भी दो बार देख कर आया| वहीं से अमेरिका में शिकागो, डेट्रॉइट, मिल्वाउकी और ड्यूलूथ भी गया था|
कनाडा में मेरे से मिलने अनेक ईसाई पादरी आते थे और मुझे प्रभावित कर अपने मत में सम्मिलित करना चाहते थे| मेरी उनसे बड़ी बहस होती थी और मैं उनको निरुत्तर कर दिया करता था| फिर भी कभी किसी पादरी को मैंने क्रोध करते या निराश होते नहीं देखा| उनको धैर्य रखने का बहुत अच्छा प्रशिक्षण मिला हुआ था| एक बार कनाडा के ही एक नगर की ही बात है| बहुत ठण्ड थी और बरसात हो रही थी| मैंने मेरे से मिलने आये एक पादरी से अनुरोध किया कि वे मुझे किसी हिन्दू मंदिर में ले चलें क्योंकि किसी मंदिर में जाने की इच्छा थी| वह पादरी मुझे उस खराब मौसम में भी दो घंटे अपनी कार चलाकर एक दूसरे शहर के एक बड़े हिन्दू मंदिर में ले गया, और हमने दर्शन करने के बाद वहाँ के रेस्टोरेंट में शाकाहारी खाना भी खाया| फिर वह बापस मुझे छोड़ कर भी गया| उसने अपना धैर्य नहीं खोया|
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वेंकूवर के स्टेनली पार्क में कई बूढ़े बूढ़े पंजाबी वृद्ध दम्पतियाँ मिलते थे जो अपनी ही व्यथा सुनाते थे|
कुल मिलाकर वहाँ के भारतीय प्रवासियों के कारण कनाडा एक अच्छा देश है जो अब भारत के साथ व्यापार में सहयोगिता बढ़ा रहा है|

भारत माता की जय| वन्दे मातरं | ॐ ॐ ॐ ||

प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में ही धर्म छिपा है .....

प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में ही धर्म छिपा है .....
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धर्म और अधर्म इन दो शब्दों के प्रचलित अर्थों पर जितनी चर्चाएँ हुई हैं, वाद विवाद, युद्ध और अति भयानक क्रूरतम अत्याचार और हिंसाएँ हुई हैं, उतनी अन्य किसी विषय पर नहीं हुई हैं|
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धर्म के नाम पर, अपनी मान्यताएं थोपने के लिए, अनेक राष्ट्रों और सभ्यताओं को नष्ट कर दिया गया, धर्म के नाम पर लाखों करोड़ मनुष्यों की हत्याएँ कर दी गईं जो आज भी अनवरत चल रही हैं| मनुष्य के अहंकार ने धर्म सम्बन्धी अपनी अपनी मान्यताएँ अन्यों पर थोपने के लिए सदा हिंसा का सहारा लिया है| >>>> मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना| <<<<
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धर्म के तत्व को समझने का प्रयास सिर्फ भारतवर्ष में ही हुआ है| भारत का प्राण ... धर्म है| भारत सदा धर्म-सापेक्ष रहा है| धर्म की शरण में जाने का आह्वान सिर्फ भारतवर्ष से ही हुआ है| धर्म की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने यहाँ समय समय पर अवतार लिए है| धर्म की रक्षा हेतु ही यहाँ के सम्राटों ने राज्य किया है| धर्म की रक्षा के लिए ही असंख्य स्त्री-पुरुषों ने हँसते हँसते अपने प्राण दिए हैं|
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भारत में धर्म की सर्वमान्य परिभाषा -- "परहित" को ही माना गया है| कणाद ऋषि के ये वचन भी सबने स्वीकार किये हैं ..... जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह ही धर्म है| पर यह भी विचार का विषय है कि अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि कैसे हो सकती है|
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महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है|
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प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है| यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा| मन और बुद्धि गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा| ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे| हमारी क्या औकात है ? पर कोई उन्हें पूछें तो सही|
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हमारी देहरूपी रथ का रथी .... आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है|
बुद्धि ..... कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकती है| उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है| धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें| जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं|
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अंततः मेरा ह्रदय तो यही कहता है कि हम जो भी कार्य अपना अहँकार परमात्मा को समर्पित कर, समष्टि के कल्याण के लिए करते हैं, वही धर्म है| व्यष्टि का अस्तित्व समष्टि के लिए ही है| यही धर्म है| धन्यवाद|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
16 अप्रेल 2016

दीर्घसूत्रता, प्रमाद और अनियमितता .....

दीर्घसूत्रता (जो कार्य करना है उसे आगे टालने कि प्रवृत्ति) और प्रमाद व अनियमितता >>>>> ये माया के सबसे बड़े अस्त्र हैं जो हमें परमात्मा से दूर करते हैं| ये हमारी साधना में बाधक ही नहीं, पतन के भी सबसे बड़े कारण हैं|
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नियमित ध्यान आवश्यक है अन्यथा हमारे में परमात्मा को पाने की तीब्र अभीप्सा (अतृप्त प्यास और तड़प) ही समाप्त हो जायेगी| परमात्मा को पाने की तीब्र अभीप्सा और परमात्मा से परम प्रेम (भक्ति) .... ये दो ही तो सबसे बड़े साधन हैं हमारे पास| ये होंगे तभी प्रभु की कृपा होगी और तभी सद्गुरु मिलेंगे| ये ही नहीं रहे तो पतन निश्चित है| यदि हम जीवन में किसी प्रयास के प्रति गंभीर हैं, तो उसके लिए हमें दृढ निश्चयी तथा नियमित होना ही पडेगा| जैसे स्वस्थ रहने के लिए नियमित व्यायाम आवश्यक है वैसे ही साधना में सफलता के लिए नियमित ध्यान आवश्यक है|
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जो काम करना है उसे अभी और इसी समय करो, आगे के लिए मत टालो| यही सफलता का रहस्य है| वो आगे आना वाला समय कभी नहों आयेगा| उपासना का समय हो जाये तो उसी समय उपासना करो, आगे के लिए मत टालो| तभी तो उपास्य के गुण हमारे में आयेंगे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
16 April 2016

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय .....

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय .....
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बालू रेत में चीनी मिला कर छोड़ दो| चींटियाँ बालू को छोड़ देंगी पर चीनी को खा लेंगी| गन्ना चूसते हैं तब रस को तो चूस लेते हैं पर छिलका फेंक देते हैं| संसार में यही दृष्टिकोण अपना होना चाहिए| सारी विचारधाराएँ और वाद हमारे लिए हैं, हम उनके लिए नहीं|
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हमारा प्रेम परमात्मा से है जिसे समझने और जिस की अनुभूति के पश्चात उसके विभिन्न नाम-रूपों में मोह नहीं रहता| लक्ष्य सामने हो तो तो मार्ग-दर्शिका का महत्त्व नहीं रहता| चन्द्रमा को देखने के पश्चात उसकी और संकेत करती अंगुली का महत्त्व नहीं रहता|
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अनुभूत होने पर सच्चिदानंद परमात्मा पर ही दृष्टी रहे, न कि उसके नाम रूपों पर| हाँ, वैराग्य और सर्वत्र ब्रह्मदृष्टी का अभ्यास तो आवश्यक है| जहाँ तक मैं समझता हूँ यही निष्काम कर्म है| बाकी सांसारिक कार्यों में जो हम परोपकार के नाम पर करते हैं, कुछ न कुछ यश और कीर्ति की कामना रहती ही है|
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हे परात्पर गुरु महाराज, आपकी जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

उत्तरी कोरिया की कुछ यादें .....

उत्तरी कोरिया की कुछ यादें .....
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मेरा दक्षिण कोरिया तो तीन चार बार जाने का काम पडा है पर उत्तरी कोरिया में सन १९८० में यानि आज से लगभग ३७ वर्ष पूर्व एक बार दो-तीन सप्ताह के लिए जाने का काम पडा था| बहुत अधिक प्रतिबन्ध होने के कारण किसी भी विदेशी को वहाँ स्वतंत्र रूप से घूमने फिरने की अनुमति नहीं मिलती है|
उस समय वहाँ पुलिस आदि प्रायः सभी विभागों का काम सेना ही करती थी| सेना के प्रायः सभी अधिकारियों को रूसी भाषा का ज्ञान था| संभवतः उनका प्रशिक्षण रूस में या रूसी अधिकारियों द्वारा हुआ होगा|
मेरा भी रूसी भाषा पर उस समय तक बहुत अच्छा अधिकार था, अतः वहाँ के अधिकारियों से बातचीत में और उन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई|
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वहां के अधिकारियों का जीवन अभावग्रस्त ही लगा अतः सामान्य लोगों का तो बहुत ही बुरा हाल होता होगा| वहाँ के सामान्य लोग गरीबी का ही जीवन जीते होंगे जिसका आभास उन्हें स्वयं को नहीं है| लोगों को किस प्रकार अज्ञान रूपी अन्धकार में असत्य धारणाओं के मध्य रखा जाता है, यह वहाँ स्पष्ट था| मजदूर लोग जब काम करते थे तब एक महिला ध्वनी वितारक यंत्र से उन्हें खूब कड़ी मेहनत करने का भाषण देती रहती थी|
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वहाँ के पूर्व दिवंगत शासक किम इल सुंग का दर्जा तो भगवान से कम नहीं है| उन्होंने "जूचे" नामक एक नई संस्कृति और विचारधारा को जन्म दिया था|
उत्तर कोरिया जूचे कैलेंडर पर चलता है, यह किम इल सुंग की जन्मतिथि पर आधारित है| वहाँ 8 जुलाई और 17 दिसंबर को पैदा होने वालों को इन तारीखों में अपना जन्मदिन मनाने की अनुमति नहीं है| कारण यह कि ये दो तारीखें उनके पूर्व शासकों किम इल सुंग और किम जोंग इल की पुण्यतिथियां हैं|
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अमेरिका और जापान को वहाँ शत्रु राष्ट्र के रूप में सिखाया जाता है| वहाँ का हर नागरिक अमेरिका और जापान को अपना शत्रु मानता है| पूरा देश एक सैनिक किले की तरह ही है|
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वहाँ के इतिहास और भूगोल के बारे में विस्तार भय से यहाँ चर्चा नहीं कर रहा हूँ| संक्षेप में इतना ही कहूंगा कि रूस का अधिकार मंचूरिया पर तो था ही और वह पूरे कोरिया पर नियंत्रण करना चाहता था, इसी कारण सन १९०५ में जापान और रूस में एक भयानक युद्ध हुआ था जिसमें रूस की पराजय विश्व के इतिहास की धारा को बदलने वाली एक अति महत्वपूर्ण घटना थी| भारत पर भी इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा था| वहाँ कई रूसी लोगों से भी मिलना हुआ था|
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कुल मिलाकर वह देश एक नर्कतुल्य ही है जहाँ किसी धर्म को मानने की सजा तो मृत्युदंड है ही, और वहाँ के तानाशाह के मनमर्जी के अनुसार न चलने की सजा भी मृत्युदंड ही है|
इति||