मैं इस समय परमशिव से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ ---
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स्वयं की व धर्मपत्नी की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण आध्यात्मिक लेखन लगभग बंद है। जगन्माता ही कृपा कर के कुछ न कुछ नित्य लिखवा देती हैं। अभी इस समय परमशिव से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ। उनकी उधार उतारनी बाकी है। परमशिव स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। जीवन का हर क्षण उन्हीं का है। जगन्माता का ही एक रूप -- कुंडलिनी के रूप में जागृत है, जो कभी कभी मेरुदंड, मस्तिष्क व इस भौतिक देह से बाहर के सभी चक्रों को भेद कर सूक्ष्म
जगत की अनंतता से भी परे परमशिव को नमन कर बापस लौट आती हैं। लेकिन चेतना वहीं परमशिव में ही रहती है। मुझे निमित्तमात्र बनाकर भगवान अपनी उपासना स्वयं करते हैं। सारी महिमा उन्ही की है, मुझ अकिंचन की कुछ भी नहीं।
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आज से नवरात्र आरंभ है, जो भगवती के तीन रूपों -- महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की आराधना का पर्व है। तीनों का समाहित रूप दुर्गा है। अज्ञान की तीन ग्रंथियाँ हैं -- रुद्रग्रन्थि (मूलाधारचक्र), विष्णुग्रन्थि (अनाहतचक्र) और ब्रह्मग्रन्थि (आज्ञाचक्र) जिनका भेदन महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती के बीज मंत्रों से होता है, जो नवार्ण मंत्र में दिए हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा भी अज्ञान की इन तीनों ग्रंथियों का बोध कराती हैं जिनका भेदन षड़चक्रों में भागवत मंत्र का जप करके भी किया जा सकता है।
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में रहता है तब हमारे में धर्म की ग्लानि होती है। हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रारचक्र, व उससे भी ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है। आज्ञाचक्र और उस से ऊपर धर्मक्षेत्र है, उसके नीचे कुरुक्षेत्र।
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आध्यात्मिक रूप से श्रीगुरुचरणों में जब एक बार भी हमारे सिर का नमन हो जाता है, तब हमारा सिर फिर बापस कभी नहीं उठता, झुका ही रहता है। यदि सिर बापस उठ गया है तो इसका अर्थ है कि सिर कभी झुका ही नहीं था।
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गुरु का साथ शाश्वत है। साधना में सिद्धि मिलते ही हम गुरु के साथ एक हो जाते हैं। कहीं पर किसी भी तरह का कोई भेद नहीं रहता। श्रीगुरु चरणों में हम अर्पित कर ही क्या सकते हैं? अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के सिवाय हमारे पास और है ही क्या? इसे पूरी तरह श्रीगुरुचरणों में अर्पित कर देना चाहिए।
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सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति - श्रीगुरु महाराज के चरण-कमल हैं। उस ज्योति का ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है। उस ज्योति-पुंज का प्रकाश "श्रीगुरुचरण सरोज रज" है, जिस में हमारा मन लोटपोट करे, और भगवान का स्मरण, चिंतन और ध्यान भी करता रहे। तभी चार फलों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
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सहस्त्रारचक्र में स्थिति श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। खेचरी-मुद्रा -- श्रीगुरुचरणों का स्पर्श है। जिन्हें खेचरी-मुद्रा सिद्ध नहीं है, वे साधनाकाल में जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें, और आती-जाती श्वास के प्रति सजग रहें। श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय द्वारा सिखाई हुई तालव्य-क्रिया के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है।
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'श्री' शब्द में 'श' का अर्थ है श्वास, 'र' अग्निबीज है, और 'ई' शक्तिबीज। श्वास रूपी अग्नि और उसकी शक्ति ही 'श्री' है। श्वास का संचलन प्राण तत्व के द्वारा होता है। प्राण तत्व -- सुषुम्ना नाड़ी में सोम और अग्नि के रूप में संचारित होता है। श्वास उसी की प्रतिक्रिया है। जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है।
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संध्याकाल -- दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है। हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं। हर श्वास -- एक जन्म है; और हर प्रश्वास -- एक मृत्यु।
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यह मनुष्य देह इस संसार सागर को पार करने की नौका है, गुरु कर्णधार हैं, व अनुकूल वायु -- परमात्मा का अनुग्रह है। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता से भी परे -- परमशिव हैं। वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है। मेरुदंड में विचरण कर रहे प्राणों का घनीभूत रूप "कुण्डलिनी महाशक्ति" है, जिसका परमशिव से मिलन ही योग है। हमारा मन सदा "श्रीगुरु-चरण-सरोजरज" में लोटपोट करता रहे। फिर जो करना है, वह स्वयं परमात्मा ही करेंगे।
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शुभ कामना किन्हें दूँ? कोई अन्य है ही नहीं। जिधर देखता हूँ, उधर मैं स्वयं हूँ। स्वयं में ही डुबकी लगा रहा हूँ। यह सारा दृश्य, दृष्टि और दृष्टा मैं हूँ। मैं, मेरे उपास्य परमशिव के साथ एक हूँ, वे ही उपासक हैं, और वे ही उपासना हैं। परमशिव ही भगवान श्रीहरिः हैं, वे ही वासुदेव हैं, उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२३