Friday, 21 March 2025

सभी नवविवाहिता महिलाओं व कन्याओं और समस्त मातृशक्ति को गणगौर के पर्व पर अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ ---

 सभी नवविवाहिता महिलाओं व कन्याओं और समस्त मातृशक्ति को गणगौर के पर्व पर अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ|

यह त्यौहार पूरे राजस्थान, निकटवर्ती हरयाणा व मालवा के कुछ भागों में धूमधाम से मनाया जाता है| विभाजन से पूर्व सिंध के अमरकोट तक यह पर्व मनाया जाता था| जहाँ भी प्रवासी राजस्थानी हिन्दू रहते हैं उनकी मातृशक्ति यह पर्व मनाती है|
इसमें गौरी की साधना गणगौर के रूप में होती है| होली के दुसरे दिन से ही नवविवाहिताएँ अपने सौभाग्य की रक्षा के लिए व कुंआरी कन्याएं अच्छे वर की प्राप्ति के लिए गणगौर की स्थापना कर मंगल गीतों के साथ आराधना आरम्भ कर देती हैं, और आज के दिन पूजा कर गणगौर का विसर्जन कर देती हैं|
पश्चिमी प्रभाव के कारण भारतीय संस्कृति धीरे धीरे विलुप्त और क्षीण हो रही है अतः जितने उत्साह और श्रद्धा से लोक पर्व और त्यौहार मनाये जाते थे उस संस्कृति का क्षरण और लोप हो रहा है| कुछ वर्षों बाद ये लोक पर्व इतिहास की पुस्तकों में ही सीमित हो जायेंगे|
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१५

फेसबुक पर मेरे आने का एकमात्र उद्देश्य स्वयं के भावों/विचारों की अभिव्यक्ति थी ---

 सर्वप्रथम मैं जब फेसबुक पर जुलाई २०११ में आया तब मेरा लक्ष्य स्वयं के भावों/विचारों की अभिव्यक्ति थी| तत्पश्चात हिन्दू राष्ट्रवाद और तत्पश्चात आध्यात्म| बस यही फेसबुक पर मेरी गति थी| पिछले कुछ वर्षों से मैं अधिकांशतः हिन्दू राष्ट्रवाद और भक्ति पर ही लिखता आया हूँ| मेरा उद्देश्य था भक्ति को जागृत करना| भक्ति पर लिखने से मुझे बड़ा आनंद आता है|

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पर अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं| इस समय यहाँ इस सार्वजनिक मंच पर और अधिक स्पष्ट शब्दों में लिखना मुझे शोभा नहीं देता| अतः नहीं लिखूँगा| अब पहिले वाली बात नहीं है| अब से अपना अधिकांश समय एकांत उपासना में ही व्यतीत करना चाहूँगा| कभी कभी जब भी भगवान की इच्छा होगी, तब फेसबुक पर भी लिखूँगा| उपलब्धता फेसबुक पर कम ही होगी| अधिकांश समय सत्संग और साधना में ही व्यतीत होगा|
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मेरा संकल्प है कि भारत एक अखंड आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र हो, और सत्य सनातन धर्म की सर्वत्र प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो| इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु मैं आध्यात्मिक साधना करूँ, ऐसी ही भगवान की इच्छा है| उनकी इच्छा पूरी हो|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२०
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पुनश्च: ---
राष्ट्र की अस्मिता यानि हमारे धर्म व अस्तित्व पर जब मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब हमारा सर्वोपरी धर्म अपनी अस्मिता यानि धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना है| हमें कोई मुक्ति नहीं चाहिए| हम तो नित्यमुक्त है, सारे बंधन भ्रम हैं| नित्यमुक्त को मुक्ति की कैसी कामना?
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इस राष्ट्र का ब्रह्मतेज और क्षात्रत्व हम जागृत करेंगे, यह हम सब का संकल्प है| इस राष्ट्र को अन्धकार व असत्य से मुक्त करायेंगे| हम जीयेंगे तो स्वाभिमान और आत्म-गौरव से, अन्यथा नहीं रहेंगे|

मृत्यु के देवता द्वारा मुझे एक अंतिम चेतावनी ---

 मृत्यु के देवता द्वारा मुझे एक अंतिम चेतावनी ---

जो कुछ भी मेरे द्वारा लिखा जाता है, उसका Source और Link सब ठाकुर जी हैं| जैसी उनसे प्रेरणा मिलती है, वैसा ही लिखा जाता है| जिनको source या link चाहिए, वे ईश्वर की साधना करें|
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मेरी कोई आकांक्षा, कामना या अपेक्षा नहीं है| पूर्व जन्मों में मुक्ति का उपाय नहीं किया, इसलिए संचित कर्मफलों को भोगने के लिए यह जन्म लेना पड़ा| मेरे साथ अच्छा या बुरा जो कुछ भी हुआ, वह मेरे कर्मों का फल था| अतः किसी से मुझे कोई शिकायत नहीं है|
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इस आयु में, भविष्य में मैं कभी भी अकेले यात्रा नहीं करना चाहूँगा| साथ में एक परिचारक भी होना चाहिए| अभी ६ मार्च २०२१ को यह भौतिक देह, मृत्यु को प्राप्त होते होते बची| जीवन में कभी भी मुझे कोई चक्कर नहीं आया, और कभी भी मैं बेहोश नहीं हुआ था| ६ मार्च को मुझे जयपुर से 'पोरबंदर-मुजफ्फरपुर एक्सप्रेस' से एक बहुत लंबी यात्रा करनी थी| वातानुकूलित प्रतीक्षालय में ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था| जब ट्रेन आई तब मैं अपने आरक्षित डिब्बे की ओर चल पड़ा| पता नहीं क्या हुआ, मैं अचानक ही बेहोश होकर गिर पड़ा| देखने वालों ने बताया कि मैं बेहोश होकर पहले तो बाईं ओर खड़ी हुई ट्रेन के एक डिब्बे से टकराया, फिर दाईं ओर प्लेटफॉर्म पर धड़ाम से गिर गया| सिर में हल्की चोट और खरोंच भी आई| मेरा मोबाइल, चश्मा, और सामान सब नीचे इधर-उधर बिखर गया|
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मेरे सौभाग्य से जोधपुर के एक सत्संगी परम शिवभक्त मित्र श्री महेश कुमार सोनी ने मुझे पहिचान लिया| वे वहाँ विद्युत वितरण निगम में एक्जेक्यूटिव इंजीनियर हैं| वे दौड़ते हुए आए, और मेरा हाथ पकड़कर, मेरा नाम लेकर, तीन-चार बार झकझोरते हुए मुझे ज़ोर-ज़ोर से आवाज दी| बेहोशी में मुझे लगा कि कोई मुझे पुकार रहा है| चौथी बार की आवाज में मैं खड़ा हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो| मैंने भी उन्हें पहिचान लिया| उन्होने मुझे पानी पिलाया और मेरा सारा सामान सुरक्षित रूप से लेकर मुझे आरक्षित वातानुकूलित डिब्बे की मेरी सीट पर लिटा दिया| उनका उपकार मैं मानता हूँ|
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कहते हैं -- "चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः" अर्थात् भगवान चन्द्रशेखर शिव की जिसने शरण ले रखी हो, यमराज उसका क्या बिगाड़ सकता है? मैं भगवान शिव की ही शरणागत था, इसलिये प्राणरक्षा हो गई| भगवान शिव ही प्राणरक्षक के रूप में आए थे| लेकिन मेरे लिए यह एक चेतावनी भी थी कि अब से अवशिष्ट जीवन परमशिव की ध्यान साधना में ही बिताना है|
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बापसी यात्रा में भी सत्संगी मित्रों ने मुझे जयपुर तक छोड़ दिया, जहाँ से मैं बस द्वारा यात्रा कर के सूरक्षित घर आ गया| जोधपुर के सत्संगी मित्र श्री नवीन कुमार डागा जी का भी उपकार मैं मानता हूँ| उन्होने किसी भी तरह का कोई कष्ट मुझे नहीं होने दिया| उपकार तो मैं अन्य भी अनेक सत्संगी मित्रों का मानता हूँ| लेकिन भगवान परमशिव ही थे जो इन सब रूपों में आए| जो भी समय व्यतीत हुआ वह अनेक दिव्य अनुभूतियों से परिपूर्ण था|
ॐ स्वस्ति | ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२१
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॥चंद्रशेखरऽष्टकम्॥ ऋषि मार्कण्डेय कृत ---
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम्।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्षमाम्॥
रत्नसानुशरासनं रजताद्रि शृङ्ग निकेतनम्।
सिन्जिनीकृत पन्नगेश्वर अच्युतानन सायकम्॥
क्षिप्र दग्ध पुरत्रयं त्रिदिवालयैरभि वन्दितम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥१॥
पञ्च पादप पुष्प गंध पदाम्बुज द्वय शोभितम्।
भाललोचन जातपावक दग्ध मन्मथ विग्रहम्॥
भस्म दग्ध कलेवरं भव नाशनं भवमाव्ययम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥२॥
मत्त वारण मुख्य चर्म कृतोत्तरीय मनोहरम्।
पङ्कजासन पद्मलोचन पूजिताङ्घ्रि सरोरुहम्॥
देव सिन्धु तरङ्गसीकर सिक्त शुभ्र जटाधरम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥३॥
यक्षराजसखं भगाक्षहरं भुजङ्ग विभूषणम्।
शैलराजसुतापरिष्कृत चारु वाम कलेवरम्॥
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥४॥
कुण्डलीकृत कुण्डलेश्वर कुण्डलं वृष वाहनम्।
नारदादिमुनीश्वरस्तुत वैभवं भुवनेश्वरम्॥
अन्धकान्धकमाश्रित अमरपादपं श्रमनान्तकम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥५॥
भेषजं भवरोगिणं अखिला पदामपहारिणम्।
दक्षयज्ञविनाशनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्॥
भुक्तिमुक्ति फलप्रदं सकलाघसङ्घ निबर्हणं।
चन्द्रशेखर माश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥६॥
भक्तवत्सलमर्चितं निधिमक्षयं हरिदंबरं
सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनुत्तमम् ।
सोमवारिदभूहुताशनसोमपानिलखाकृतिं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥७॥
विश्व सृष्टि विधायिनं पुनरेव पालन तत्परम्।
संहरन्तमपि प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम्॥
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमन्वितम्।
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥८॥
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहिमाम्।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर राक्षमाम्॥
॥इतिश्री॥

मैं इस समय परमशिव से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ ---

 मैं इस समय परमशिव से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ ---

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स्वयं की व धर्मपत्नी की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण आध्यात्मिक लेखन लगभग बंद है। जगन्माता ही कृपा कर के कुछ न कुछ नित्य लिखवा देती हैं। अभी इस समय परमशिव से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ। उनकी उधार उतारनी बाकी है। परमशिव स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। जीवन का हर क्षण उन्हीं का है। जगन्माता का ही एक रूप -- कुंडलिनी के रूप में जागृत है, जो कभी कभी मेरुदंड, मस्तिष्क व इस भौतिक देह से बाहर के सभी चक्रों को भेद कर सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे परमशिव को नमन कर बापस लौट आती हैं। लेकिन चेतना वहीं परमशिव में ही रहती है। मुझे निमित्तमात्र बनाकर भगवान अपनी उपासना स्वयं करते हैं। सारी महिमा उन्ही की है, मुझ अकिंचन की कुछ भी नहीं।
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आज से नवरात्र आरंभ है, जो भगवती के तीन रूपों -- महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की आराधना का पर्व है। तीनों का समाहित रूप दुर्गा है। अज्ञान की तीन ग्रंथियाँ हैं -- रुद्रग्रन्थि (मूलाधारचक्र), विष्णुग्रन्थि (अनाहतचक्र) और ब्रह्मग्रन्थि (आज्ञाचक्र) जिनका भेदन महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती के बीज मंत्रों से होता है, जो नवार्ण मंत्र में दिए हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण की त्रिभंग मुद्रा भी अज्ञान की इन तीनों ग्रंथियों का बोध कराती हैं जिनका भेदन षड़चक्रों में भागवत मंत्र का जप करके भी किया जा सकता है।
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में रहता है तब हमारे में धर्म की ग्लानि होती है। हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रारचक्र, व उससे भी ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है। आज्ञाचक्र और उस से ऊपर धर्मक्षेत्र है, उसके नीचे कुरुक्षेत्र।
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आध्यात्मिक रूप से श्रीगुरुचरणों में जब एक बार भी हमारे सिर का नमन हो जाता है, तब हमारा सिर फिर बापस कभी नहीं उठता, झुका ही रहता है। यदि सिर बापस उठ गया है तो इसका अर्थ है कि सिर कभी झुका ही नहीं था।
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गुरु का साथ शाश्वत है। साधना में सिद्धि मिलते ही हम गुरु के साथ एक हो जाते हैं। कहीं पर किसी भी तरह का कोई भेद नहीं रहता। श्रीगुरु चरणों में हम अर्पित कर ही क्या सकते हैं? अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) के सिवाय हमारे पास और है ही क्या? इसे पूरी तरह श्रीगुरुचरणों में अर्पित कर देना चाहिए।
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सहस्त्रारचक्र में दिखाई दे रही ज्योति - श्रीगुरु महाराज के चरण-कमल हैं। उस ज्योति का ध्यान श्रीगुरुचरणों का ध्यान है। उस ज्योति-पुंज का प्रकाश "श्रीगुरुचरण सरोज रज" है, जिस में हमारा मन लोटपोट करे, और भगवान का स्मरण, चिंतन और ध्यान भी करता रहे। तभी चार फलों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
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सहस्त्रारचक्र में स्थिति श्रीगुरुचरणों में आश्रय है। खेचरी-मुद्रा -- श्रीगुरुचरणों का स्पर्श है। जिन्हें खेचरी-मुद्रा सिद्ध नहीं है, वे साधनाकाल में जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें, और आती-जाती श्वास के प्रति सजग रहें। श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय द्वारा सिखाई हुई तालव्य-क्रिया के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है।
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'श्री' शब्द में 'श' का अर्थ है श्वास, 'र' अग्निबीज है, और 'ई' शक्तिबीज। श्वास रूपी अग्नि और उसकी शक्ति ही 'श्री' है। श्वास का संचलन प्राण तत्व के द्वारा होता है। प्राण तत्व -- सुषुम्ना नाड़ी में सोम और अग्नि के रूप में संचारित होता है। श्वास उसी की प्रतिक्रिया है। जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है।
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संध्याकाल -- दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है। हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए, क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं। हर श्वास -- एक जन्म है; और हर प्रश्वास -- एक मृत्यु।
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यह मनुष्य देह इस संसार सागर को पार करने की नौका है, गुरु कर्णधार हैं, व अनुकूल वायु -- परमात्मा का अनुग्रह है। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता से भी परे -- परमशिव हैं। वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है। मेरुदंड में विचरण कर रहे प्राणों का घनीभूत रूप "कुण्डलिनी महाशक्ति" है, जिसका परमशिव से मिलन ही योग है। हमारा मन सदा "श्रीगुरु-चरण-सरोजरज" में लोटपोट करता रहे। फिर जो करना है, वह स्वयं परमात्मा ही करेंगे।
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शुभ कामना किन्हें दूँ? कोई अन्य है ही नहीं। जिधर देखता हूँ, उधर मैं स्वयं हूँ। स्वयं में ही डुबकी लगा रहा हूँ। यह सारा दृश्य, दृष्टि और दृष्टा मैं हूँ। मैं, मेरे उपास्य परमशिव के साथ एक हूँ, वे ही उपासक हैं, और वे ही उपासना हैं। परमशिव ही भगवान श्रीहरिः हैं, वे ही वासुदेव हैं, उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२३

अपने लक्ष्य परमात्मा को कभी भी एक क्षण के लिए भी मत भूलो ---

 अपने लक्ष्य परमात्मा को कभी भी एक क्षण के लिए भी मत भूलो ---

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इस जीवन में मैनें बड़े बड़े महात्माओं के मुख से जितने भी सत्संग सुने हैं, और जितनी भी साधनानाएं की हैं, उन सब का सार यह है कि अपने लक्ष्य परमात्मा को कभी भी एक क्षण के लिए भी मत भूलो। हर समय उन्हें अपनी स्मृति में रखो। गुरु परंपरा में भी यही सीखा है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीक़ृष्ण भी यही कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
भावार्थ --- अन्तकाल की भावना ही अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण है, इसलिये तूँ हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेव में जिस के मनबुद्धि अर्पित हैं, ऐसा तू मुझ में अर्पित किये हुए मनबुद्धि वाला होकर मुझको ही अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा। इसमें संशय नहीं है।
हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "कूटस्थ" शब्द का प्रयोग अनेक बार किया है। कूटस्थ -- एक अनुभूति है। "ब्राह्मी स्थिति" भी एक अनुभूति है। जब इनकी अनुभूति हो जाये तब इन्हीं की चेतना में रहना चाहिए। बंद आँखों के अंधकार के पीछे हर समय भगवान अपने ज्योतिर्मय रूप में निरंतर रहते हैं। अब तो आँखें खुली हों या बंद हों, वे हर समय हमारे समक्ष रहें।
"जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०२४

"रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते" ---

 "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते" ---

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इस शरीर रूपी रथ में सदा जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता| यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है जिसे अनुभूतियों द्वारा ही समझा जा सकता है| इसका अर्थ वही समझ सकता है जो कूटस्थ में ज्योति, अक्षर और स्पंदन के लय को सदा अनुभूत करता है| इसे लययोग भी कहते हैं| अपना संपूर्ण ध्यान ब्रह्मरंध पर केंद्रित करके ब्रह्म में लीन हो जाना "लय योग ध्यान" है| इसमें नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण करना पड़ता है| इसे किसी सिद्ध गुरु से ही सीखना चाहिए, हर किसी से नहीं|
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है| पर वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति --- ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है| तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए| यह स्वयं में एक उत्सव है| ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो| यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है ---
'दोलारूढं तु गोविन्दं मञ्चस्थं मधुसूदनम् । रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥'
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते||८:१६||"
अर्थात् हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक के सब लोक पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं| परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता||
जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं, उसका नाम भुवन है| ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है| भगवान के अनुसार ब्रह्मलोक सहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं| अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसार में जन्म लेना पड़े ऐसे हैं| परंतु केवल भगवान के प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म नहीं होता|
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले| उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते||" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है| यह क्रियायोग विज्ञान है| आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को सादर साष्टांग दंडवत् !!
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२१

बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ चैतन्य में ज्योतिषांज्योतिः भगवान स्वयं हैं ---

 बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ चैतन्य में ज्योतिषांज्योतिः भगवान स्वयं हैं| कभी वे त्रिभंग-मुद्रा में, कभी पद्मासन में, कभी ज्योतिर्मय ब्रह्म, कभी पञ्चमुखी महादेव, कभी परमशिव आदि-आदि के रूप में व्यक्त होते हैं| सारी महिमा उन्हीं की है| अपना रहस्य वे स्वयं ही अनावृत कर सकते हैं, हमारे में उतना सामर्थ्य नहीं है| उनकी जय हो!!

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गीता कहती है --
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||"
श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
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टिप्पणी :-- यहाँ मैंने जिस "ज्योतिषांज्योतिः" शब्द का प्रयोग किया है, वह "शिवसंकल्पसूक्त" के प्रथम मंत्र से लिया है| वह मंत्र इस प्रकार है --
"यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति| दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु||"
मूलमंत्र में इसका भावार्थ भिन्न है| लेकिन यहाँ मैंने परमात्मा के लिए इस शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि वे मन के स्वामी हैं, और सभी प्रकाशों के प्रकाश हैं|
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२१