बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ चैतन्य में ज्योतिषांज्योतिः भगवान स्वयं हैं| कभी वे त्रिभंग-मुद्रा में, कभी पद्मासन में, कभी ज्योतिर्मय ब्रह्म, कभी पञ्चमुखी महादेव, कभी परमशिव आदि-आदि के रूप में व्यक्त होते हैं| सारी महिमा उन्हीं की है| अपना रहस्य वे स्वयं ही अनावृत कर सकते हैं, हमारे में उतना सामर्थ्य नहीं है| उनकी जय हो!!
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गीता कहती है --
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||"
श्रुति भगवती कहती है --
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति||"
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टिप्पणी :-- यहाँ मैंने जिस "ज्योतिषांज्योतिः" शब्द का प्रयोग किया है, वह "शिवसंकल्पसूक्त" के प्रथम मंत्र से लिया है| वह मंत्र इस प्रकार है --
"यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति| दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु||"
मूलमंत्र में इसका भावार्थ भिन्न है| लेकिन यहाँ मैंने परमात्मा के लिए इस शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि वे मन के स्वामी हैं, और सभी प्रकाशों के प्रकाश हैं|
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०२१
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