Friday, 25 April 2025

मौन-साधना ---

 मौन-साधना ---

कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ। मौन-साधना का विकल्प ही चुन रहा हूँ। अब मौन साधना ही अच्छी लग रही है, जिसका एकमात्र उद्देश्य -- परमात्मा को पूर्ण-समर्पण है। कोई आकांक्षा/कामना नहीं है। इस जीवन में खूब सत्संग, स्वाध्याय और साधना का साक्षी हूँ, अतः परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से किसी भी प्रकार के मार्गदर्शन की आवश्यकता अब नहीं है। आध्यात्मिक अनुभूतियाँ ही मेरा मार्गदर्शन करती हैं।
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धर्म की रक्षा, और अधर्म के नाश के लिये भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण जैसे अवतारों की भारत को आवश्यकता है। राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं। राष्ट्र आज बहुत अधिक आहत है। मेरे ह्रदय की पीड़ा भारत की पीड़ा है। हम लोग दायित्व बोध से रहित, और प्रज्ञाहीन हो गये हैं। भगवान अपने सभी भक्तों, और राष्ट्र की रक्षा करें।
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पुनश्च: ---
(प्रश्न) : सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने, पुष्प को महकने, व महासागर को इतनी जल राशि एकत्र करने के लिये कौन सी साधना या तप करना पड़ता है?
(उत्तर) : शांत होकर प्रभु को अपने भीतर प्रवाहित होने दो। उनका विलय अपने अस्तित्व में कर दो। उनकी उपस्थिति के प्रकाश से जब ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उनकी महक अपने ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेंगी। हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अप्रेल २०२५

माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है ---

माओवाद यानि नक्सलवाद को एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से समाप्त किया जा सकता है| इसमें राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठना पडेगा| सभी शासकों को पता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं| इस कार्य के लिए विशेषज्ञ भी हैं और अनुभवी व्यक्ति भी| पर राजनीतिक स्वार्थ आड़े आ जाते हैं|

(१) सबसे पहले तो स्वयं को माओवादी क्रांतिकारी बताने वाले ठगों से वनवासियों को बचाना होगा| इन ठगों का निश्चित विनाश तो करना ही होगा|
(२) फिर प्राकृतिक संसाधनों .... जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिए वनवासियों का सहयोग लेना ही होगा और उन्हें ही इसकी जिम्मेदारी भी देनी होगी|
(३) वनवासियों को साहूकारों, सरकारी कर्मचारियों और पूंजीपतियों के शोषण से बचाना होगा|
(४) वनवासियों के लिए एक पुलिस का सिपाही और एक कनिष्ठ से कनिष्ठ सरकारी कर्मचारी ही सरकार होता है| सरकारी कर्मचारियों को भी प्रशिक्षित करना होगा की वे वनवासियों को सताएँ नहीं|
(५) वनवासी क्षेत्रों में निःशुल्क शिक्षा और इलाज की व्यवस्था करनी होगी|
(६) वनवासी कल्याण परिषद् जैसी संस्थाओं को सहयोग देना भी होगा और उनसे सहयोग लेना भी होगा| उन्हें इस क्षेत्र का बहुत अनुभव है|
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>>> नक्सलवाद एक विफल विचारधारा है| इसके संस्थापक कानू सान्याल ने इसके भटकाव और विफलता से दुःखी होकर आत्म ह्त्या कर ली थी| उनके सहयोगी चारू मजूमदार भी निराश होकर ह्रदय रोग से मर गए थे| इस पर मैं एक लेख पोस्ट कर चुका हूँ| इस आसुरी विचारधारा का कोई भविष्य नहीं है|

२६ अप्रैल २०१७

मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, वे मुझे अपने साथ ही रखेंगे, कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे।

मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, वे मुझे अपने साथ ही रखेंगे, कभी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। मेरे विगत सारे पाप-पुण्य, उन्होनें अपने ऊपर ले लिए हैं, और मुझे अपने हृदय में स्थान दे दिया है, जहाँ कोई पाप-पुण्य और कर्मफल अब मेरा स्पर्श भी नहीं कर सकते। कोई भी रोग, शोक, दोष, दुःख, और पीड़ा, मेरे आसपास भी नहीं आ सकतीं। किसी भी रोग के विषैले जीवाणु मेरे समक्ष आने से पूर्व ही नष्ट हो जाते हैं, वे मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। जब भगवान स्वयं मेरी रक्षा कर रहे हैं, तो अन्य कोई सहारा नहीं चाहिए। यमराज भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। जब समय आयेगा तब यह शरीर नष्ट हो जाएगा, और तुरंत दूसरा मिल जाएगा। मैं अजर, अमर, शाश्वत आत्मा हूँ, जो अपने पारब्रह्म परमात्मा परमशिव के साथ एक है। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२१
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भगवान की सुनूँ या स्वयं की? ---

भगवान की सुनूँ या स्वयं की? --- भगवान एक बहुत गहरी बात कह रहे हैं जो समझने में बहुत कठिन है। लेकिन उसे सुनना भी पड़ेगा और उस का अनुसरण भी करना ही होगा ---

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किसी भी अनात्म विषय पर चिंतन मात्र से आजकल बड़ी पीड़ा होती है, अनात्म विषयों का चिंतन करने वालों का कुसंग भी दुःखदायी होता है। लेकिन भगवान एक दूसरी ही बात कह रहे हैं। जब भी भगवान का ध्यान करता हूँ, भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि तुम स्वयं हो। यह सारी सृष्टि तुम्हारा ही प्रतिबिंब है। अपने प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो। स्वयं को परिवर्तित करो, और यह भौतिक सृष्टि भी परिवर्तित हो जायेगी।
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यह अब तक का भौतिक जीवन तो नष्ट हो गया है। जीवन में बहुत कुछ करना था लेकिन चिड़िया चुग गई खेत। अब उस पर पछताना या विचार करना भी व्यर्थ है। एक ही कार्य रह गया है कि जो भी समय अवशिष्ट है उसका अधिकतम और सर्वश्रेष्ठ उपयोग किया जाये।
ॐ इति॥ ॐ शुभम् भवतु ॥ ॐ शिवम भवतु॥ ॐ स्वस्ति॥ ॐ श्रीनारायण हरिः॥
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

हम सब को भगवान से बहुत प्यार है। हम सब भगवान को जानना चाहते हैं, लेकिन जान नहीं पाते, इसका क्या कारण है? भगवान को जानना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे क्यों हैं?

इस प्रश्न का उत्तर गीता में भगवान ने अनेक बार अनेक स्थानों पर दिया है। भगवान की परम कृपा से मेरे जैसा अल्पज्ञ भी अंधों में काणा राजा बनकर ज्ञान की बातें लिखता रहता है। भगवान ने अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी है। मुझे भी भगवान ने अपनी करुणावश, मेरी बुद्धि में स्पष्टता और सच्चिदानंद की अनुभूतियाँ अनेक बार मुझे प्रदान की हैं। किसी भी तरह का कोई संशय मुझ में भगवान ने नहीं छोड़ा है। जब मेरे जैसा अल्पज्ञ भी संतुष्ट है तो आप तो बहुत बड़े बड़े ज्ञानी लोग हैं।

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गीता के सातवें अध्याय "ज्ञान-विज्ञान योग" में भगवान हमें परा और अपरा प्रकृतियों के बारे में बताते हैं। हमारी बुद्धि अपरा-प्रकृति का भाग है। भगवान हमें अपरा-प्रकृति से ऊपर उठकर परा-प्रकृति में स्थित होने को कहते हैं। इन दोनों प्रकृतियों से भी परे की एक परावस्था है, जिसमें हम ज्ञान का भी अतिक्रमण कर, ज्ञानातीत हो जाते हैं। वहाँ हम, हम नहीं होते, केवल आत्मरूप परमात्मा ही होते हैं। उस अवस्था को "कैवल्य" अवस्था कहते हैं। अपरा व परा प्रकृतियों को हम भगवान की कृपा से ही समझ सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥७:४॥"
"अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।७:५॥"
"एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७:६॥"
"मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९:१०॥"
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अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं -- पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) तथा मन, बुद्धि और अहंकार। परा प्रकृति -- हमारा जीव रूप है।
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भगवान की अनन्य-भक्ति और अपने आत्म-स्वरूप के निरंतर ध्यान से कैवल्य-अवस्था की प्राप्ति होती है। कैवल्य अवस्था -- में कोई अन्य नहीं, आत्म-रूप में केवल परमात्मा होते हैं। यह अवस्था शुद्ध बोधस्वरुप है, जहाँ केवल स्वयं है, स्वयं के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है -- एकोहम् द्वितीयो नास्ति। जीवात्मा का शुद्ध निज स्वरूप में स्थित हो जाना कैवल्य है।
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"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥"
(श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः मंत्र ११)
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हम परमात्मा को जान नहीं सकते, लेकिन समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं; वैसे ही जैसे जल की एक बूँद, महासागर को जान नहीं सकती, लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक हो जाती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर हो जाती है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में है, और मैं सम्पूर्ण सृष्टि में हूँ। मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! यही कैवल्यावस्था है।
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आप सब को सप्रेम सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो ---

भगवान कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि तुम स्वयं हो। यह समस्त सृष्टि हमारा ही प्रतिबिंब है। स्वयं को परिवर्तित करो, और यह भौतिक सृष्टि भी परिवर्तित हो जायेगी। अपने प्रतिबिंब पर दोषारोपण मत करो। हम अकिंचन-भाव में रहें या परमशिव-भाव में, बात एक ही है। परमात्मा के ध्यान में यह अकिंचन-भाव, परमशिव-भाव में परिवर्तित हो जाता है। यह काम केवल बातों से नहीं होगा। धरातल पर परमात्मा का गहन व दीर्घ ध्यान और साधना करनी होगी। ऊर्ध्वस्थ कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करें।
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"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥"
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥"
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥"
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२५

रामनाम का बैंक आपको लाख गुणा फल देता है ----

रामनाम का बैंक आपको लाख गुणा फल देता है ---
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आजकल स्टॉक मार्केट के व्यवसायी सोशियल मीडिया पर छाए हुये हैं, जो आपको अपने भौतिक धन के विनिवेश की सलाह देते हैं। मैं आपको रामनाम के एक ऐसे बैंक के बारे में बताना चाहता हूँ जिसमें निवेशित आपके भजन का धन दिन दूना और रात चौगुना हो जायेगा। उस धन पर न तो कोई डाका डाल सकता है और न कोई आपको ठग सकता है। उस धन को यमराज भी आपसे नहीं छीन सकता। वह धन जन्म-जन्मांतरों तक आपके काम आएगा। आपको बस इतना ही करना है कि रात्री को सोने से पूर्व दस-पंद्रह मिनट भगवान के नाम का कीर्तन करके सोयें। प्रातःकाल उठते ही कुछ मिनट तक दुबारा भगवान के नाम का कीर्तन करें। पूरे दिन भगवान को अपनी स्मृति में रखें, और स्वधर्म का पालन करें।
आप शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा। अन्य किसी भी तरह की कोई आकांक्षा न हो। यही हामारा स्वधर्म है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥११:३५॥"
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थोड़े-बहुत स्वधर्म का पालन भी महाभय से रक्षा करेगा ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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भगवान समान रूप से सर्वत्र व्यापात हैं। आप निरंतर उनका नाम-स्मरण कीजिये और पुण्यार्जन कीजिये। इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है। भगवान कहते हैं ---
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
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और क्या चाहिये? भगवान स्वयं इस बैंक के स्वामी हैं। यह बैंक हर समय आपके कारण शरीर से जुड़ी हुई है, अतः कहीं खो भी नहीं सकती। यह सस्ते से सस्ता और सर्वाधिक लाभदायक सौदा है। इससे अधिक लाभदायक अन्य कुछ भी नहीं है। अब रही बात मेरी फीस यानि मेरे कमीशन की -- तो दो बार भगवान का नाम बड़े प्रेम से लीजिये, मुझे मेरी फीस मिल चुकी है।
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नारायण !! नारायण !! नारायण !! जो भी इन पंक्तियों को पढ़ रहा है, वह धन्य है। मैं उसे नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२४

== खेचरी मुद्रा == (भाग २)

== खेचरी मुद्रा ==

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(भाग 2)
शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है :-----
करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम्|
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम्||
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतागामी करता है, अर्थात जीभ की तालुका में जीभ को बिठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं|
इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों पश्चात जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे|
लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे|
तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि है| पद्मासन में बैठकर जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
मुझे उस मन्त्र का ज्ञान नहीं है अतः उस पर चर्चा नहीं करूंगा|
भगवान् दत्तात्रेय के अनुसार----
अन्तःकपालविवरे जिव्हां व्यावृत्तः बंधयेत्|
भ्रूमध्ये दृष्टिरपोषा मुद्राभवति खेचरी||
अर्थात जिव्हा को पलटकर मस्तक-छिद्र के अभ्यंतर में पहुंचाकर भ्रूमध्य में दृष्टी को स्थापित करना खेचरी मुद्रा है|
यह तो भौतिक स्तर पर की जाने वाली साधना है जो ध्यान योग में तीब्र प्रगति के लिए आवश्यक है| पर आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य के नीचे) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
कल से चल रही खेचरी मुद्रा पर चर्चा का आज समापन करता हूँ| योग साधक तो इसे सीखते ही हैं| जो साधक नहीं हैं उनकी भी रूचि जागृत हो इसके लिये यह चर्चा है|
कल कुछ सीमित मंचों पर महामुद्रा और योनिमुद्रा पर प्रस्तुति दूंगा| ॐ शिव|

अक्षय तृतीया समस्त मानवता के लिए मंगलमय हो --- .

 अक्षय तृतीया समस्त मानवता के लिए मंगलमय हो ---

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भारत के लिए इसका महत्व विशेष है क्योंकि इस दिन परशुराम जयंती पडती है|
भारत की वर्तमान परिस्थितियों में भगवान परशुराम के भाव की सर्वाधिक आवश्यकता है| यदि हम अपने धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना चाहते हैं तों हमें परशुराम की तेजस्विता और चरित्र को स्वयं मे अवतरित कर स्वयं परशुराम बनना होगा|
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राष्ट्र की वर्तमान परिस्थिति में एक नहीं अनेक परशुरामों की आवश्यकता है|
योग-दर्शन का एक सूत्र है --- 'वीतराग विषयं वा चितः'| यानि किसी वीतराग के बारे मे चिंतन करते करते हमारा चित्त भी वीतराग बन जाता है|
महाभारत में एक यक्ष प्रश्न के उत्तर मे महाराज युधिष्ठिर कहते है --- 'महाजनो येन गतः सः पन्थाः'| अर्थात महापुरुष जिस मार्ग पर चले हैं वह ही सही मार्ग है|
आज के समय हमें भगवान परशुराम जैसे व्यक्तित्व के मार्ग पर चलने की आवश्यकता है|
यदि आप के एक हाथ मे शास्त्र हैं तों उसकी रक्षा के लिए दूसरे हाथ मे शस्त्र भी होने चाहिएं| हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथ मे शस्त्र हैं| अब समय आ गया है कि हमें धर्म-रक्षा के लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों धारण करने होंगे| चरित्रवान और तेजस्वी भी बनना होगा, अन्यथा हम नष्ट हो जायेंगे|
भगवान परशुराम कि जय| सनातन हिंदू धर्म कि जय|
समस्त सृष्टि का कल्याण हो|
२५ अप्रेल २०१२