Saturday, 31 May 2025

मान-सम्मान और यश-कीर्ति की न्यूनतम कामना भी माया का एक अस्त्र है जो निश्चित रूप से हमें भटकाता है ---

 मान-सम्मान और यश-कीर्ति की न्यूनतम कामना भी माया का एक अस्त्र है जो निश्चित रूप से हमें भटकाता है ---

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किसी पूर्व जन्म में हो सकता है मैंने कोई अच्छे कर्म किए होंगे, जिनका पुण्य अब फलीभूत हो रहा है। परमात्मा से परमप्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा, साधना मार्ग की प्राप्ति, गुरु लाभ, आंतरिक मार्गदर्शन, और अनुभूतियों द्वारा इस विषय की अच्छी समझ -- उसी का परिणाम है। अन्यथा न तो श्रुतियों को समझने की बौद्धिक क्षमता मेरे पास है, और न आगम ग्रंथों की। कुछ भी उल्लेखनीय सांसारिक उपलब्धि मेरे पास नहीं है। सिर्फ़ हरिःकृपा है।
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यह सृष्टि परमात्मा की है, जिसके हम अब अंश हैं। परमात्मा की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी हमारी स्वयं की सृष्टि में है। मेरी स्वयं की आध्यात्मिक गति तीब्र होगी तभी समाज और राष्ट्र की भी होगी। कहीं कमी है तो दोष मेरा ही है जिसे मुझे ही दूर करना होगा।
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मेरा यह अनुभव है कि मान-सम्मान और यश-कीर्ति की न्यूनतम कामना भी असत्य के मार्ग की ओर ले जाने वाला एक भटकाव है। यह माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है जिसने बड़े बड़े लोगों को असत्य के मार्ग पर भटकाया है, और निरंतर भटका रहा है। इससे बचो। निरंतर कूटस्थ परमात्मा को याद करो, व उन्हीं की चेतना में रहो। जो मौन में परमात्मा के साथ हैं, उन्हें सांसारिक गपशप के लिए समय कहाँ? अपने स्वयं का समय अब और नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि यह परमात्मा की अमानत है।
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भगवान कहते हैं ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् -- मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०:३॥"
अर्थात् -- जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, मर्त्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है॥
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"तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०:११॥"
अर्थात् उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
१ जून २०२२

योग साधना की एक सर्वश्रेष्ठ विधि ---

 योग साधना की एक सर्वश्रेष्ठ विधि ---

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भगवान हम से हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) विशेषकर मन मांगते हैं (यानि मनोनिग्रह का आदेश देते हैं) और कुछ नहीं। भगवान कहते हैं --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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यह बहुत अधिक गहरी बात है। यही उपासना है और यही साधना है। स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में इसे --"एष योगस्य परमो विधिः" अर्थात् "योग की परम श्रेष्ठ विधि" बताया है। वे कहते हैं -- शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से, धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा, उपरति (शांति) को प्राप्त कर, मन को आत्मा में स्थित कर के, यानि यह सब कुछ आत्मा ही है, उस से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है।
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कर्ताभाव को त्याग कर, एक निमित्त मात्र बन कर, भगवान को समर्पित होना पड़ेगा, क्योंकि -- "मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है, जिसे एक ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध आचार्य ही एक नए साधक को समझा सकता है।
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प्रातः साढ़े तीन या चार बजे उठिए। थोड़ा उष:पान कर शौचादि से निवृत होकर मुंह को धोइये और बाहर खुले में दस-पंद्रह बार लंबी लंबी सांसें लेकर कुछ देर तक हठयोग के कुछ आसन, प्राणायाम, बंध और महामुद्रा आदि कीजिये। फिर अपने ध्यान कक्ष में कमर को सीधी रखते हुये पूर्वाभिमुख होकर एक ऊनी आसन पर बैठ जाइये। बिना हत्थे की कुर्सी पर भी बैठ सकते हैं, लेकिन नीचे एक आसन अवश्य लगा लें। अब अर्धोन्मीलित आँखों से अपना पूरा दृष्टि-पथ और ध्यान भ्रूमध्य में ले लाइये।
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भ्रूमध्य में भगवान के सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप का ध्यान कीजिये, जिनकी ज्योति से सारी सृष्टि, सारा ब्रह्मांड प्रकाशित है। वह सर्वव्यापी ज्योति और उससे आलोकित सम्पूर्ण ब्रह्मांड आप स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। कहीं पर भी कोई अंधकार नहीं है। भ्रूमध्य में दृष्टिगोचर हो रहे सूर्य-मण्डल के मध्य में सर्वव्यापी पुरुषोत्तम या परमशिव का ध्यान कीजिये। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हें समर्पित कर स्वयं को भूल जाएँ। वे सर्वस्व सर्वव्यापी जो हैं, सो ही अनन्य रूप से केवल आप हैं। उनमें और आप में कोई भेद नहीं है। आप यह नश्वर शरीर नहीं, अपने सर्वव्यापी उपास्य/आराध्य पुरुषोत्तम/परमशिव के साथ एक हैं।
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कुछ देर तक वहीं बैठे रहिये। फिर समष्टि के कल्याण की प्रार्थना करें।
ध्यान साधना से पूर्व हठयोग के कुछ आसन, प्राणायाम, बंध, और महामुद्रा आदि का अभ्यास साधना में बहुत अधिक सहायक है।
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आजकल के कुछ प्रसिद्ध योगाचार्यों से मुझे एक ही शिकायत है। वे जो कुछ भी सिखाते हैं, वह सब "घेरण्ड-संहिता", "हठयोग-प्रदीपिका" और "शिव-संहिता" जैसे ग्रन्थों से ली हुई बातें हैं, लेकिन नाम लेते हैं पतंजलि के योग-दर्शन का। यह उनका एक झूठ और पाखंड है।
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आप सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२१

एक सुझाव लव-जिहाद रोकने का --- .

लव-जिहाद रोकने के लिए हिन्दू समाज में विवाह भी शीघ्र हों। २४-२५ वर्ष तक की आयु के युवक का और १८-२२ वर्ष तक की आयु की युवती का विवाह हो जाना चाहिए। Career व settle और पढ़ाई-लिखाई -- विवाह के बाद भी हो सकती है। यह एक ऐसी आयु है जिसमें विपरीत लिंग यानि opposite sex के प्रति आकर्षण सबसे अधिक होता है। इस आयु में विवाह हो जाना चाहिए।

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आजकल हिंदुओं में विवाह के समय वर की आयु लगभग ३५ वर्ष की होती है, और वधू लगभग ३० वर्ष की। वे न तो अच्छी संतान को जन्म दे पाते हैं, और न ही ठीक से उसका पालन-पोषण। जब तक उनकी संतान दसवीं उतीर्ण करती है तब तक माँ-बाप सेवा-निवृत हो जाते हैं। उनके पास संतान को अच्छी शिक्षा देने के लिए धन नहीं रहता। परिवार में सदस्यों की संख्या कम होने से पारिवारिक संबंध भी समाप्त होते जा रहे हैं।
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लगता है आने वाले कुछ वर्षों में -- भाई भाभी, देवर देवरानी, जेठ जेठानी, काका काकी, ताऊ ताई, भुआ भतीजा/भतीजी, मामा मामी, जैसे अनेक संबंध हिन्दुओं के घरों से सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे। बस ढाई-तीन लोगों के परिवार बचेंगे। कुल मिलाकर इस एक परिवार में एक बालक/बालिका के चलन और अहंकार के कारण, हिंदुओं की जनसंख्या बहुत कम हो जाएगी और हिंदुओं की हत्या कर के उनके घरों पर अधर्मी लोग अधिकार कर लेंगे। पढे लिखे समर्थवान हिंदुओं की घटती हुई जनसंख्या चिंता का विषय है।
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अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हमें अपने विचार बदलने होंगे, और स्वार्थ छोडने होंगे। नहीं तो हिन्दू जाति का नाम इतिहास में ही रह जाएगा।
१ जून २०२३

गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई "योग साधना" की एक परम श्रेष्ठ विधि --

 गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताई हुई "योग साधना" की एक परम श्रेष्ठ विधि --

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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥६:२४॥"
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
"यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
अर्थात् --
"संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके॥"
"शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
"यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे॥"
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समस्त कामनाओं से मुक्त हो कर धैर्ययुक्त बुद्धि से धीरे धीरे मन को सर्वव्यापी आत्मा में स्थित कर के अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योग की परम श्रेष्ठ विधि है। इस प्रकार योगाभ्यासके बलसे योगीका मन आत्मा में ही शान्त हो जाता है। उपनिषदों की सहायता से इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया जा सकता है। यह साधक की पात्रता पर निर्भर है कि वह कितना समझ सकता है। अतः किसी भी साधक को एक बार तो किन्हीं ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से व्यक्तिगत मार्गदर्शन लेना ही पड़ेगा।
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"मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं चल सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने यहाँ जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०२४

आचार्य/सद्गुरु की आवश्यकता क्यों है? गुरु कौन हो सकता है? ---

 आचार्य/सद्गुरु की आवश्यकता क्यों है? गुरु कौन हो सकता है? ---

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साधनाएँ अनेक हैं, मार्ग अनेक हैं, अनेक मंत्र हैं, अनेक विद्याएँ हैं, लेकिन परमात्मा की प्राप्ति के लिए हमें एक ही मार्ग चाहिए। कौन सा मार्ग हमारे लिए उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ है इसका निर्णय जब हम नहीं कर पाते तब किसी आचार्य सद्गुरु की शरण लेते हैं। हमारी अब तक की आध्यात्मिक उपलब्धियों का आंकलन कर के एक सद्गुरु ही बता सकता है कि कौन सा मार्ग हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है।
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अब प्रश्न यह उठता है कि हम गुरु रूप में किसका वरण करें। इस विषय में वेदों का जो आदेश है वह सर्वमान्य है, इसमें कोई विवाद नहीं हो सकता। वेद भगवान का आदेश है कि एक श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) और ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही गुरु हो सकता है।
"परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन |
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ||"
(मुण्डक. १:२:१२)
ऐसे गुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। हमें मार्गदर्शन उन्हीं से लेना चाहिए। गुरु की शिक्षा भी तभी फलदायी होगी जब हम सत्यनिष्ठ होंगे।
ॐ तत्सत् !!
१ जून २०२४

हम जप करें तो किसका जप करें? ---

 हम जप करें तो किसका जप करें? ---

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को यज्ञों में जपयज्ञ बताया है -- "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" (मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ)। भगवान कहते हैं --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ||१०:२५||
अर्थात् - "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ॥"
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अग्नि पुराण के अनुसार --
"जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः।
तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥"
अर्थात् -- ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं।
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अतः सबसे बड़ा यज्ञ -- "जपयज्ञ' है। इस से बड़ा दूसरा कोई यज्ञ नहीं है। इस में हम अपनी स्वयं की ही हवि शाकल्य बन कर, स्वयं ही श्रुवा बन कर, स्वयं की ही ब्रह्मरूप अग्नि में, स्वयं ही ब्रह्मरूप कर्ता बन कर हवन करते हैं। हमारा गन्तव्य भी ब्रह्म ही है।
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
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कोई भी साधना जितने सूक्ष्म स्तर पर होती है वह उतनी ही फलदायी होती है। जितना हम सूक्ष्म में जाते हैं उतना ही समष्टि का कल्याण कर सकते हैं। वाणी के चार क्रम हैं -- परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। उससे पूर्व मन में जो भाव आते हैं, वह मध्यमा वाणी है। मन में भाव उत्पन्न हों, उससे पूर्व वे मानस पटल पर दिखाई भी दें वह पश्यन्ति वाणी है। और उससे भी परे जहाँ से विचार जन्म लेते हैं वह परा वाणी है।
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साधनाकाल के आरंभ में जप वाणी द्वारा बोलकर ही होता है, फिर मौन में। हरिःकृपा से शनैः शनैः आज्ञाचक्र से सहस्त्रार, फिर सहस्त्रार से परे अनंत विस्तार में, और अनंत विस्तार से भी परे "परमशिव" में होता है। वहीं क्षीरसागर है जहाँ भगवान नारायण का निवास है। जब उनकी और भी अधिक कृपा होगी तब वे इस से भी परे ले जाएँगे। परमात्मा की कृपा पर ही सब निर्भर है, स्वयं के प्रयासों पर नहीं। प्रयास वे ही करवाते हैं, और यथार्थ में करते भी वे स्वयं ही हैं।
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"सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥१८:६४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! जय गुरु !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०२४

अन्तर्रात्मा में बड़ी तड़फ है परमात्मा को प्राप्त होने की, लेकिन अन्तःकरण बहुत दुर्बल है ---

 अन्तर्रात्मा में बड़ी तड़फ है परमात्मा को प्राप्त होने की, लेकिन अन्तःकरण बहुत दुर्बल है ---

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स्वयं का अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) ही धोखा दे रहा है। ईसाई मज़हब का एक वाक्यांश है -- "The Soul is willing but the flesh is weak." व्यक्ति कुछ अच्छा करना चाहता है, और बुराई से बचना चाहता है, लेकिन भौतिक और मानसिक रूप से स्वयं को असमर्थ पाता है। यह ऊर्जा और उत्साह की कमी दिखाता है। कुछ ऐसा ही हो रहा है मेरे साथ। लेकिन कोई भी कमी हो वह मुझे परमात्मा को प्राप्त करने से रोक नहीं सकती।
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मैं जिस नौका से यह भवसागर पार कर रहा हूँ, उसमें करोड़ों छिद्र हैं। झंझावातों से ग्रस्त यह रात अंधेरी है, जहाँ कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। गुरु महाराज को ही कर्णधार बना दिया है। इस नौका के वे ही कर्णधार है। इस घोर अंधकार में भी अनुकूल वायु परमात्मा की कृपा से चल रही है। इस जर्जित नौका के करोड़ों छिद्रों को भी परमात्मा ने भर दिया है। परमात्मा स्वयं ही यह नौका बन गए हैं, और सामने बिराजमान हैं। मुझ में कितनी भी कमियाँ हों, लेकिन मेरे प्रभु मुझे छोड़ नहीं सकते।
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हे प्रभु, इन विकट परिस्थितियों को मत बदलो, मुझे ही बदलो। मुझे आपके सिवाय अन्य कुछ भी दिखाई न दे, अन्य कुछ अनुभूत भी न हो। मेरी चेतना में केवल आप ही आप रहें, मैं नहीं। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२५

जीवन में कुछ गोपनीय भी होना चाहिये ---

 भगवान ने मुझे जितनी समझने और व्यक्त करने की क्षमता दी है, उसके अनुसार अपनी अत्यल्प और अति-सीमित बुद्धि से उतना ही अधिक व्यक्त करने का प्रयास मैंने सदा किया है। इससे अधिक अब संभव नहीं है, क्योंकि परिप्रेक्ष्य बदल गया है, जिसे मैं गोपनीय रखना चाहता हूँ। निष्ठावान सत्संगी मित्रों को ही मैं उपलब्ध हूँ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मई २०२५

मेरे जीवन में चाहे लाखों कमियाँ हों, कितने भी अभाव हों, अब उनका कोई महत्व नहीं रहा है ---

मेरे जीवन में चाहे लाखों कमियाँ हों, कितने भी अभाव हों, अब उनका कोई महत्व नहीं रहा है। यह भौतिक शरीर रहे या न रहे, इससे भी अब कोई प्रयोजन नहीं है। जब भगवान से कुछ चाहिए ही नहीं, तब सारी औपचारिक साधनाएं भी महत्वहीन हो गयी हैं, जिनमें भोग और योग का चाहे थोड़ा सा भी प्रलोभन हो।

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एकमात्र आकर्षण सच्चिदानंद परमब्रह्म का है जिनकी अनुभूतियाँ होती रहती हैं। परमात्मा की मेरी अवधारणा निज अनुभवों पर आधारित है। परमात्मा की अभीप्सा के अतिरिक्त अन्य कोई भी आकांक्षा नहीं है। जीवन में जितने भी शत्रु-मित्र मिले, मैं सबका आभारी हूँ, और सभी को धन्यवाद देता हूँ। वास्तव में स्वयं परमात्मा ही थे जो शत्रु-मित्र, माता-पिता, भाई-बहिन, और सब संबंधियों के रूप में आये। वे ही यह मैं बन गए हैं। इस जन्म से पूर्व भी उन्हीं का साथ था, और इस देह के अवसान के पश्चात भी उन्हीं का साथ होगा। किसी कामना का जन्म ही न हो। केवल परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं, अन्य सब उन्हीं का रूप है। उन्हीं का अस्तित्व बना रहे। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मई २०२५

आज ३१ मई २०२५ को महारानी अहिल्याबाई होळकर की तीनसौवीं जयंती है ---

आज ३१ मई २०२५ को अङ्ग्रेज़ी तिथि के अनुसार सत्य-सनातन हिन्दू-धर्म की महान उद्धारकर्ता, भगवान शिव की मानस-पुत्री, पुण्यश्लोका महारानी अहिल्याबाई होळकर की तीनसौवीं जयंती है (जन्म : ३१ मई १७२५. मृत्यु १३ अगस्त १७९५) (राज्यकालावधी १७६७ - १७९५ई.) उस कालखंड में वे सत्य-सनातन हिन्दू-धर्म की महान उद्धारकर्ता थीं। उन्होने इंदौर नगर की स्थापना की व वहीं से मालवा पर शासन किया।

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काशी का वर्तमान विश्वनाथ मंदिर, गया का विष्णुपद मंदिर, सोमनाथ के भग्नावशेषों के समीप दूसरा सोमनाथ मंदिर, पूरे देश में सैंकड़ों घाटों, गोचर-भूमियों, और मंदिरों के पुनरोद्धार का महान कार्य उन्होंने किया। वे हजारों साधु-संतों और तपस्वी ब्राह्मणों के लिए माता के समान थीं। अपने राज्य में निःशुल्क शिक्षा के लिये अनेक गुरुकुलों की व्यवस्था की। उन्होने वह कर दिखाया जो अन्य पराक्रमी हिन्दू शासक न कर सके।
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उनके श्वसुर महाराजा मल्हार राव होल्कर अपनी मराठा सेना के साथ ज्ञानवापी को मुक्त कराने के लिये काशी आये थे। लेकिन वहाँ के (मुगलों से आतंकित) लोग हाथ जोड़कर खड़े हो गये और कहा कि आप तो ज्ञानवापी को मुक्त करा कर बापस महाराष्ट्र चले जाओगे, लेकिन मुगलों की सेना बापस आकर हमें जान से मार देगी। बड़े दुखी मन से महाराजा मल्हारराव बापस लौट गये।
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लेकिन उनकी पुत्रवधू महारानी अहिल्याबाई वहाँ अपनी सेना के साथ गयीं और ज्ञानवापी के बिलकुल पास में ही भगवान विश्वनाथ का नया मंदिर बनवाकर और प्राण-प्रतिष्ठा करवा कर ही लौटीं। मंदिर के शिखर पर जो सोना चढ़ा हुआ हुआ है वह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह जी ने भेजा था।
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महारानी अहिल्या बाई होल्कर पर मैं तीन-चार विस्तृत लेख लिख चुका हूँ। अधिक लिखूंगा तो पुनरावृति दोष होगा। इसलिए और नहीं लिख रहा। सभी को नमन !! महारानी अहिल्याबाई को नमन !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२५

गर्मी का आनंद लेते हुए स्वयं को सारे संचित व प्रारब्ध कर्मों से मुक्त करें ---

  गर्मी का आनंद लेते हुए स्वयं को सारे संचित व प्रारब्ध कर्मों से मुक्त करें

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आजकल गर्मी खूब पड़ रही है। गर्मी का आनंद लें। रात्री को जल्दी सोने का अभ्यास कीजिये। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने घर की छत पर या बाहर खुले में भगवान का खूब ध्यान या नामजप करें। इतना आनंद आयेगा, इतना आनंद आयेगा जो अवर्णनीय है। फिर स्वच्छ हवा में घूमें।
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अधिक बोलने से और अधिक विचारों से मन चंचल होता है। वाणी और मन के मौन का अभ्यास करें। जितना आवश्यक है उतना ही बोलें। जप योग के निरंतर अभ्यास से अनावश्यक विचारों का शमन होता है। मन में अनावश्यक विचार न आने दें। सारे विचारों का समर्पण परमात्मा के चिंतन में कर दें। परमात्मा के ध्यान में महा-मौन की अनुभूति होती है। जब महा-मौन की अनुभूति हो, तब उस महा-मौन में ही रहने का अभ्यास करें। स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर दें। परमात्मा की अनुभूतियाँ होंगी तब आप आनंद से भर जाओगे।
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सब कुछ भगवान का है। अपने सारे कर्म भी भगवान को समर्पित कर दें। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ---
"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥"
"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥" (९:२७-२८)
अर्थात् - "हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे। इस प्रकार मेरे अर्पण करने से कर्मबन्धन से और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मों के फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपने-सहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे ही प्राप्त हो जायेगा॥
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और क्या चाहिये ? सब कुछ तो यहाँ भगवान ने हमें दे दिया है। हर समय स्वयं निमित्त मात्र बनकर परमात्मा का चिंतन करो, और परमात्मा को समर्पित हो जाओ।
कृपा शंकर
३१ मई २०१९

गर्मी के मौसम की सकारात्मकता ---

 गर्मी के मौसम की सकारात्मकता ---

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आजकल भयंकर गर्मी से लोग त्रस्त हैं| लू लगने से हजारों लोग मरे हैं|
पर गर्मी का एक आनंद भी है जो पूरा उठाना चाहिए|
जो लोग लू लगने से मरे हैं वे लू से नहीं मरे हैं बल्कि सावधानी नहीं बरतने से मरे हैं| लू का सबसे अधिक प्रकोप राजस्थान के मारवाड़ में और वहाँ भी विशेषकर शेखावाटी क्षेत्र में होता है, पर लू से यहाँ कोई मरता नहीं है क्योंकि सबको सावधानी बरतनी आती है|
मौसम में परिवर्तन के कारण अब की बार लू का सर्वाधिक प्रकोप आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में हुआ जहाँ दो हज़ार से अधिक लोग मरे हैं|
जब बाहर का तापमान सामान्य से तीन-चार डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है तब उसके प्रभाव से जो गर्म हवा चलती है उसे 'लू' कहते हैं| शुष्क जलवायू में तो यह बहुत घातक होती है|
जहाँ तक हो सके धूप में बाहर ना निकलें| यदि निकलना ही पड़े तो सिर को मोटे सूती कपडे से अच्छी तरह ढक लें| छाते का भी प्रयोग करें| गर्म हवा से देह को बचाएं| सफ़ेद सूती वस्त्र पहिनें| नंगे पाँव गर्म भूमि पर न चलें| घर से बाहर लिकलने से पूर्व खूब पानी पीकर चलें| प्यास लगते ही खूब पानी पीएँ| अनावश्यक बाहर खुले में ना रहें|
इस मौसम में छाछ, बील का शरबत, नीबुपानी, कच्चे आम का पना और तरबूज का सेवन बहुत लाभदायक और मजेदार भी होता है| प्याज भी दवा का काम करता है| राजस्थान और हरयाणा में छाछ और बाजरे के आटे से एक विशेष विधि से एक पेय बनाते हैं जिसे 'राबड़ी' कहते हैं| यह राबड़ी पीने से लू और गर्मी से रक्षा होती है|
किसी को लू लग जाना एक मेडिकल आपत्काल होता है| तुरंत उपचार न मिलने से मृत्यु हो सकती है| इसलिए सभी को इसका प्राथमिक उपचार सीख लेना चाहिए|
जितनी लू चलती है, खरबूजा उतना ही मीठा होता है| आजकल लू चल रही है तो खरबूजे भी बहुत मीठे आ रहे हैं| दूध और आम के रस को मिलाकर एक पेय 'अमरस' बनाया जाता है जिसको ठंडा कर के रात्रि में पीने का आनंद अमृततुल्य है|
इस गर्मी के मौसम में प्रातःकाल चार बजे से साढ़े पाँच बजे तक बाहर खुले में बैठकर भगवान का ध्यान या नामजप करना चाहिए| इतना आनंद आयेगा जो अवर्णनीय है| साढ़े पाँच से साढ़े छः बजे तक किसी बगीचे मे या बाहर कहीं शुद्ध हवा में लम्बे लम्बे साँस लेते हुए घूमना चाहिए|
जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए| हर क्षण का आनंद लें| सुख और दुःख एक मानसिक अवस्था मात्र है| खूब प्रसन्न रहें और जीवन को आनंदमय बना लें|
जय सियाराम | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ मई २०१५

महारानी अहिल्याबाई की २९४ वीं जयंती ---

भगवान शिव की मानसपुत्री महारानी अहिल्याबाई होलकर (३१ मई १७२५ - १३ अगस्त १७९५) की आज २९४ वीं जयंती है| इनके गौरव और महानता के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है| व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में विकटतम कष्ट और प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी इन्होने महानतम कार्य किये, जिनकी तुलना नहीं की जा सकती| इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी| इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे| इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए| अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थी और राज्य संभाला| अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया| अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया| राजधानी इंदौर उन्हीं की बसाई हुई नगरी है| जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन कल्याण के व्रत का पालन करती रही| उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया|
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सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की| वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से बने| हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू लोग इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे| सैंकड़ों असहाय लोगों और साधू संतों को अन्न वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी| पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएँ, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए| नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं| महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना| अमरकंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया| परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएँ कीं| ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की| वहाँ प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था|
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यहाँ दो शब्द उनके श्वसुर मल्हार राव के बारे में भी लिखना उचित रहेगा|
छत्रपति शिवाजी के पोते साहू जी ने एक चित्तपावन ब्राह्मण बालाजी बाजीराव (प्रथम) को पेशवा नियुक्त किया| बालाजी बाजीराव वेश बदल कर बिना सुरक्षा व्यवस्था के तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े| मार्ग के एक गाँव में उनको मुगलों के जासूसों ने पहचान लिया और उनकी हत्या के लिए बीस मुग़ल सैनिक पीछे लगा दिए| मल्हार राव ने कुछ भैंसे पाल रखीं थीं और उस गाँव में दूध बेच कर गुजारा करते थे| वे मुग़ल जासूस भी उन्हीं से दूध खरीदते थे| उनकी आपसी बातचीत से मल्हार राव को सब बातें स्पष्ट हो गईं| उनकी देशभक्ति जागृत हो गयी और चुपके से उनहोंने पेशवा को ढूंढकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी| यही नहीं पेशवा को एक संकरी घाटी में से सुरक्षित निकाल कर भेज दिया और उनकी तलवार खुद लेकर उन बीस मुगलों को रोकने खड़े हो गए| उस तंग घाटी से एक समय में सिर्फ एक ही व्यक्ति निकल सकता था| ज्यों ही कोई मुग़ल सैनिक बाहर निकलता, मल्हार राव की तलवार उसे यमलोक पहुंचा देती| उन्होंने पाँच मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया| इसे देख बाकी पंद्रह मुग़ल सैनिक गाली देते हुए बापस लौट गए| उन्होंने मल्हार राव के घर को आग लगा दी, उसके बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी व भैंसों को हाँक कर ले गए|
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मल्हार राव, पेशवा बाजीराव के दाहिने हाथ बन कर उनके साथ हर युद्ध में रहे| समय के साथ बाजीराव विश्व के सफलतम व महानतम सेनानायक बने| बाजीराव ने लगातार ४२ युद्ध लड़े और कभी पराजय का मुंह नहीं देखा| उनकी लू लगने से असमय मृत्यु नहीं होती तो भारत का इतिहास ही अलग होता और वे पूरे भारत के शासक होते| पेशवाओं ने वर्तमान इंदौर क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी|
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हमें गर्व है ऐसी शासिका पर| दुर्भाग्य से भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर ऐसे महान व्यक्तियों के इतिहास को नहीं पढाया जाता| भारत के अच्छे दिन भी लौटेंगे| इस लेख को लिखने के पीछे यही स्पष्ट करना था की यदि ह्रदय में भक्ति और श्रद्धा हो तो व्यक्ति कैसी भी मुसीबतों का सामना कर जीवन में सफल हो सकता है| इति|
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ॐ स्वस्ति ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर बावलिया
३१ मई २०१९

भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बैठे, व सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो|

 भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बैठे, व सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो| हमें न तोअपने अहंकार को तृप्त करने के लिए कोई आधिभौतिक उपलब्धि चाहिए, न ही हमें किसी व्यक्ति को प्रभावित कर उस से वाहवाही लूटनी है चाहे वह संसार की दृष्टि में कितना भी बड़ा व्यक्ति हो|

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वर्तमान युग में मनुष्य की सोच और उसका चिंतन इतना अधिक गिर गया है कि वह सिर्फ दूसरों की या तो हँसी ही उड़ा सकता है, या विरोध और बदनाम ही कर सकता है| किसी से भलाई की उम्मीद नहीं रही है|
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हमारा लक्ष्य भारत को एक आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र बनाना है जहाँ की राजनीति सनातन धर्म हो| आध्यात्मिक उपासना/साधना से दैवीय शक्तियों को जागृत कर उन्हीं की सहायता लेंगे| किसी मनुष्य से कोई अपेक्षा और आशा नहीं है| सारी प्रेरणा और शक्ति प्रत्यक्ष परमात्मा से ही लेंगे| पूर्वजन्मों के गुरु आशीर्वाद दे रहे हैं, वही पर्याप्त है|
हरिः ॐ तत्सत् !!
३१ मई २०२०

महारानी अहिल्याबाई होल्कर की २९५ वीं जयंती ---

 भारत की एक महान मातृशक्ति और भगवान शिव की मानस पुत्री प्रातःस्मरणीया परम-शिवभक्त महारानी अहिल्याबाई होलकर (३१ मई १७२५ - १३ अगस्त १७९५) को नमन जिन का आज ३१ मई को जन्म हुआ था| हमारा दुर्भाग्य है कि धर्मनिरपेक्षता और हिन्दुद्रोह के कारण इनका इतिहास नहीं पढ़ाया जाता| इनके गौरव और महानता के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है|

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व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में विकटतम कष्ट और प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी इन्होने इतने महान कार्य किये जिनकी तुलना नहीं की जा सकती| वर्तमान इंदौर नगर की स्थापना इन्होने ही की थी| इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी| इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे| इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए| अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थी और राज्य संभाला| अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया| अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया| जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन कल्याण के व्रत का पालन करती रही| उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया|
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इन्होने सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की| वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से बने| हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू लोग इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे| सेंकडों असहाय लोगों और साधू-संतों को अन्न-वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी| पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएं, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए| नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं| महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना| अमर कंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया| परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएं कीं| ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की| वहाँ प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के पार्थिव शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था| बद्रीनाथ तीर्थ के मार्ग में बहुत बड़ी भूमि खरीद कर उसे गायों के चरने के लिए छोड़ दिया| उस गाँव का नाम ही अहिल्याबाई गोचर पड़ गया|
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यहाँ दो शब्द उनके श्वसुर मल्हार राव के बारे में भी लिखना उचित रहेगा|
छत्रपति शिवाजी के पोते साहू जी ने एक चित्तपावन ब्राह्मण बालाजी बाजीराव (प्रथम) को पेशवा नियुक्त किया| बालाजी बाजीराव वेश बदल कर बिना सुरक्षा व्यवस्था के तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े| मार्ग के एक गाँव में उनको मुगलों के जासूसों ने पहचान लिया और उनकी हत्या के लिए बीस मुग़ल सैनिक पीछे लगा दिए| मल्हार राव ने कुछ भैंसे पाल रखीं थीं और उस गाँव में दूध बेच कर गुजारा करते थे| वे मुग़ल जासूस भी उन्हीं से दूध खरीदते थे| उनकी आपसी बातचीत से मल्हार राव को सब बातें स्पष्ट हो गईं| उनकी देशभक्ति जागृत हो गयी और चुपके से उनहोंने पेशवा को ढूंढकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी| यही नहीं पेशवा को एक संकरी घाटी में से सुरक्षित निकाल कर भेज दिया और उनकी तलवार खुद लेकर उन बीस मुगलों को रोकने खड़े हो गए| उस तंग घाटी से एक समय में सिर्फ एक ही व्यक्ति निकल सकता था| ज्यों ही कोई मुग़ल सैनिक बाहर निकलता, मल्हार राव की तलवार उसे यमलोक पहुंचा देती| उन्होंने पांच मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया| इसे देख बाकी पंद्रह मुग़ल सैनिक गाली देते हुए बापस लौट गए| उन्होंने मल्हार राव के घर को आग लगा दी, उसके बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी व भैंसों को हाँक कर ले गए| मल्हार राव, पेशवा बाजीराव के दाहिने हाथ बन कर उनके साथ हर युद्ध में रहे| समय के साथ बाजीराव विश्व के सफलतम सेनानायक बने| उन्होंने अनेक युद्ध लड़े और कभी पराजित नहीं हुए| वे महानतम हिन्दू सेनानायकों में से एक थे| उन्होंने कभी पराजय का मुंह नहीं देखा| उनकी लू लगने से असमय मृत्यु नहीं होती तो भारत का इतिहास ही अलग होता| पेशवाओं ने वर्त्तमान इंदौर क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी| हमें गर्व है ऐसी शासिका पर|
ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय ॐ नमः शिवाय महादेव महादेव महादेव !!
३१ मई २०२०

हिंदुओं में होने वाले विवाह समारोहों के बारे में मेरे कुछ विचार हैं जिन्हें सराहते तो सब हैं पर पालन कोई नहीं करता :---

(१) दिवा लग्न हों यानि सूरज की रोशनी में विवाह हों ताकि जेनेरेटर और बिजली का फालतू खर्चा बचे, और रात्रि को लोग चैन से सो सकें| बैंड बाजा और नाच-कूद लड़के वाले अपने घर पर करें, कन्या पक्ष के यहाँ नहीं| .

(२) बारात में दस-पंद्रह से अधिक बाराती न हों| कन्या पक्ष पर वर पक्ष के अधिक से अधिक दस-पंद्रह लोगों को भोजन कराने की ज़िम्मेदारी हो|
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(3) हर विवाह की रजिस्ट्री हो| दहेज के हर सामान की और नकद दिये हुए रुपयों की वीडियो रिकॉर्डिंग हो और विवाह की रजिस्ट्री मे इसका उल्लेख हो ताकि कन्या पक्ष बाद मे निरपराध वर पक्ष पर झूठे मुकदमे न कर सके| आजकल महिला अत्याचार और दहेज के लगभग सारे मामले झूठे होते हैं| ऐसी परिस्थिति ही पैदा न हो कि झूठी मुकदमेबाजी हो| . आगे से स्थायी रूप से विवाह समारोहों में भी अधिकतम २२ व्यक्तियों की ही अनुमति का नियम बन जाये तो पूरे समाज का बहुत अधिक कल्याण हो जाएगा। ११ व्यक्ति कन्या पक्ष के और ११ व्यक्ति वर पक्ष के, बस इतना ही बहुत है, इस से अधिक किसी भी परिस्थिति में नहीं। कन्या का विवाह करते करते उसके माँ-बाप की कमर टूट जाती है, और वर पक्ष का लालच कभी कम नहीं होता।

३१ मई 2020

सारा जगत ब्रह्ममय यानि प्राण और ऊर्जा का स्पंदन है, जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है।

 सारा जगत ब्रह्ममय यानि प्राण और ऊर्जा का स्पंदन है, जिसका निरंतर विस्तार हो रहा है। सारी सृष्टि ही परमशिव है। भगवान विष्णु स्वयं ही यह विश्व बन गए हैं। सारी सृष्टि विभिन्न आवृतियों पर ऊर्जा का स्पंदन है, जो प्राण से चैतन्य है। वह अनंत विस्तार और उससे भी परे ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में परमशिव हैं, वे ही मेरे उपास्य हैं। "सियाराम मय सब जग जानी करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी॥" "ॐ विश्वं विष्णु:-वषट्कारो भूत-भव्य-भवत- प्रभुः।"

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"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२२

अहिल्याबाई होल्कर की २९७वीं जयंती

आज पुण्यश्लोका, प्रातःस्मरणीया, एक महानतम भारतीय नारी योद्धा व शासिका, भगवान शिव की मानसपुत्री, इंदौर नगर जी स्थापिका, मालवा की महारानी, अहिल्याबाई होल्कर की २९७वीं जयंती है। इनका जन्म ३१ मई १७२५ को महाराष्ट्र के चांडी (वर्तमान अहमदनगर) गांव में हुआ था। इन्होने विपरीततम परिस्थितियों में महानतम कार्य किए। इनका यश और कीर्ति सदा अमर रहेंगे।

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इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी। इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे। इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए। अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की म्रत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थीं, और राज्य संभाला। अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया।
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अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया। राजधानी इंदौर उन्हीं की बसाई हुई नगरी है। जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन-कल्याण के व्रत का पालन करती रही। उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया।
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अहिल्याबाई ने सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की। वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से पुनर्निर्मित हुए। हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे। सेंकडों असहाय लोगों और साधू-संतों को अन्न वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी। पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएं, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए। नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं। महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना। अमरकंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया। परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएं कीं। ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की। वहां प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था। बदरीनाथ के मार्ग में एक गाँव आता है जिसका नाम गोचर है। वहाँ की भूमि को खरीद कर उन्होंने गायों के चरने के लिए छोड़ दिया।
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पेशवा बाजीराव ने मालवा क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था, जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी। हमें गर्व है ऐसी महान शासिका पर। इति॥ ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२२

एक दुर्धर्ष आध्यात्मिक शक्ति -- भारत के उत्थान में कार्यरत हो चुकी है, जिसे रोकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है।

मेरी जागृत अंतश्चेतना और अंतःप्रभा मुझे बार-बार आश्वस्त कर रही हैं कि एक दुर्धर्ष आध्यात्मिक शक्ति -- भारत के उत्थान में कार्यरत हो चुकी है, जिसे रोकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है।
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असत्य और अंधकार की शक्तियों का पराभव, धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण सुनिश्चित हैं। गुरुकृपा से मुझे पूरा मार्गदर्शन मिल रहा है, जिसका अनुसरण मुझे ही करना है।
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अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२३

संयमित मन मनुष्य का मित्र है, और स्वेच्छाचारी मन उसका शत्रु। स्वयं के सबसे अच्छे मित्र बनें, और स्वयं पर सबसे अधिक विश्वास करें।

 संयमित मन मनुष्य का मित्र है, और स्वेच्छाचारी मन उसका शत्रु। स्वयं के सबसे अच्छे मित्र बनें, और स्वयं पर सबसे अधिक विश्वास करें। मन को निरंतर परमात्मा में स्थिर कर के रखें।

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हमारे जीवन में हमारा सब से बड़ा संघर्ष और युद्ध हमारी अपनी स्वयं की चेतना के भीतर होता है। इसके लिए हमें अपने बच्चों को और स्वयं को भी प्रशिक्षित करना होगा। बच्चों को डरा-धमका कर न रखें। हरेक बालक में कम से कम इतना तो साहस विकसित करें की वह बिना किसी भय के अपने मन की बात अपने माँ-बाप को, अपने से बड़ों को, और अपने अध्यापकों को कह सके।
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हमारा सबसे बड़ा शत्रु हमारा अपना स्वयं का भय है, जिस के साथ हमारा सबसे बड़ा युद्ध होता है। कभी कभी हम अपने स्वयं के परम शत्रु बन जाते हैं, इससे बड़ा शत्रु अन्य कोई भी नहीं है। स्वयं के सबसे अच्छे मित्र बनें, और स्वयं पर सबसे अधिक विश्वास करें।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय को बहुत अच्छी तरह से समझाया है। भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
"बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६:६॥"
"जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६:७॥"
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हमें अपने भाग्य यानि कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करने चाहियें। मनुष्य को अपने द्वारा अपना स्वयं का उद्धार करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है, और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है। जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है, परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा नित्य-प्राप्त है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२४