Wednesday, 9 April 2025

निरंतर ईश्वर में रमण, उसी का चिंतन और उसी का ध्यान ---

अब तक मेरे इस लौकिक जीवन का अधिकाँश भाग व्यतीत हो चुका है, बहुत थोड़ा सा समय बाकी है, वह भी अनिश्चित है| जो समय बीत चुका है वह तो बापस आ नहीं सकता, पर जितना भी अनिश्चित समय बचा है, उसमें मेरा इसी क्षण से एक ही धर्म है और एक ही राजनीति है, वह है ..... निरंतर ईश्वर में रमण, उसी का चिंतन और उसी का ध्यान, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं|

.
आध्यात्मिक और बौद्धिक रूप से कहीं भी कण मात्र की भी कोई शंका या संदेह नहीं है, और भगवान की परम कृपा से आगे का पूरा मार्ग स्पष्ट है| एक परावस्था की मैं कल्पना किया करता था, पर अब पाता हूँ कि जहाँ मैं अवस्थित हूँ वही परावस्था है| जहाँ पर मैं हूँ वहीं भगवान स्वयं हैं, कहीं पर भी कोई भेद नहीं है| अब कहीं भी कोई यात्रा नहीं है, सारी यात्राएँ पूर्ण हो चुकी हैं|
.
हर तरह की अन्य सामाजिकता, राजनीति और मनोरंजन से दूर हट रहा हूँ| अनावश्यक लेख भी नहीं लिखूंगा, और संपर्क व सम्बन्ध भी सिर्फ समान विचारधारा के लोगों से ही रहेगा| अब तक जीवन में भगवान स्वयं ही मित्रों, सम्बन्धियों व अन्य सब के रूप में आये| उन सब के रूप में भगवान परमशिव को नमन !
.
किसी की भी निंदा, आलोचना , उलाहना, प्रतिवाद व शिकायत करने को मेरे पास अब कुछ भी नहीं है|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१० अप्रेल २०१८

कूटस्थ में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण अपना स्वयं का ध्यान कर रहे हैं ---

 कूटस्थ में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण अपना स्वयं का ध्यान कर रहे हैं| वे अपने आसन पर पद्मासन में बैठे हैं| उनकी छवि अलौकिक व अवर्णनीय है| सारी सृष्टि उनमें, और वे सारी सृष्टि में समाहित हैं| उनका ज्योतिर्मय कूटस्थ विग्रह -- "शब्दब्रह्म", -- चारों ओर गूंज रहा है| अभय प्रदान करता हुआ हुआ उनका संदेश स्पष्ट है ---

"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||
अर्थात् मच्चित्त होकर (मुझ में चित्त लगाकर) तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो नष्ट हो जाओगे||"
.
हे परमशिव, आप मुझे बहुत दूर तक ले आए हो, अब तो कूटस्थ चैतन्य ही मेरा जीवन, और आप ही मेरे प्राण हो|| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२१

अन्तर्मन की पीड़ा ---

 अन्तर्मन की पीड़ा:--

यह उन जिज्ञासुओं के अन्तर्मन की पीड़ा को है जो भगवान की उपासना करना तो चाहते हैं, पर अपने व्यक्तित्व की किसी कमी के कारण आध्यात्म पथ के पथिक नहीं हो पा रहे हैं|
उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है| अगले जन्मों में उन्हें फिर अवसर मिलेगा| घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण ... उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता| घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु बहुत अधिक दुखी रहते हैं| इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का अवसर मिलेगा|
१० अप्रेल २०२०

मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---

हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का धर्म एक ही होता है , और वह है -- परमात्मा को पूर्ण समर्पण। इसके लिये निरंतर परमात्मा का स्मरण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, और उन्हीं में रमण करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त आत्मा का कोई धर्म नहीं होता। यही सनातन धर्म है। इससे अतिरिक्त बाकी सब धर्म के नाम पर अधर्म है। गीता में भगवान कहते हैं --

"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
.
इस स्वधर्म का पालन इस संसार के महाभय से सदा हमारी रक्षा करेगा। भगवान का गीता में वचन है ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है| इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
.
इस स्वधर्म में मरना ही श्रेयस्कर है| भगवान कहते हैं ---
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
.
रात्री को सोने से पूर्व परमात्मा का ध्यान कर के सोयें, और प्रातःकाल उठते ही पुनश्च उनका ध्यान करें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। साकार और निराकार -- सारे रूप उन्हीं के हैं। प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को परासुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रारचक्र के मध्य) में रखें। इसे अपनी साधना बनाएँ। जो उन्नत साधक हैं वे अपनी चेतना को ब्रह्मरंध्र से भी बाहर परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव में रखें। अनंतता का बोध और और उसमें स्थिति होने पर आगे का मार्गदर्शन भगवान स्वयं करेंगे।
.
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२३

नारायण नारायण नारायण !! अपना परम आदर्श मैं किसे कहूँ? ---

 नारायण नारायण नारायण !! अपना परम आदर्श मैं किसे कहूँ? ---

.
मेरे परम आदर्श एक ही हैं, और वे हैं मेरे प्रेमास्पद -- जिन से मुझे पूर्ण प्रेम है। मुझे प्रेम है ज्योतिषाम्ज्योति सर्वव्यापक सर्वस्व अनंत परमात्मा से। उनका अस्तित्व ही मेरा अस्तित्व है। वे ही परमशिव हैं, वे ही महाविष्णु हैं और वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं। उनकी चेतना से नीचे उतरना स्वयं को पतित करना है। वे ही यह सारी सृष्टि हैं। मैं यह देह नहीं सर्वव्यापी परमात्मा की अनंतता और उससे परे हूँ। स्वयं परमात्मा ही यह "मैं" बन गए हैं।
.
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुष: साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च॥ (विष्णु सहस्त्रनाम)
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२३

उपासना / सहस्त्रारचक्र में गुरु महाराज के चरण कमलों का ध्यान करें।

उपासना ---
सहस्त्रारचक्र में गुरु महाराज के चरण कमलों का ध्यान करें। वहाँ दिखाई दे रही कूटस्थ ज्योति ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं। उसमें स्थिति गुरु चरणों में आश्रय है। गुरु-चरणों में आश्रय लेकर गुरु-प्रदत्त उपासना करें। कहीं कोई कमी रह जायेगी तो गुरु महाराज उसका शोधन कर देंगे। हर समय परमात्मा की चेतना में स्थित रहें। गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं ---
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२:७२॥
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२३