Friday, 6 June 2025

भजन गायकी और कथावाचन एक व्यवसाय/व्यापार है जिसका लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना है ---

 हम लोग भजन गायकों और कथावाचकों को पूज्य/पूज्या संत मान लेते हैं, यह हमारी बहुत बड़ी भूल है| भजन गायकी और कथावाचन एक व्यवसाय/व्यापार है जिसका लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना है| कई पुरुष और लड़कियाँ कथावाचक बन जाती हैं और उन के परिवार के लोग करोड़ों में खेलने लगते हैं|

अज्ञानतावश श्रौताओं में उन के पैर छूने, आशीर्वाद लेने, उन से दीक्षा लेने और उन पर चढ़ावा चढ़ाने की होड़ लग जाती है| यह गलत है|
इन भजन गायकों और कथावाचकों का अहंकार भी बहुत अधिक प्रबल होता है| कोई इन्हें कुछ कह दे तो ये उस का अपमान करने में देर नहीं लगाते|
७ जून २०२०

अगर कोई बात समझ में नहीं आए, या जिसे समझना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे हो तो उसको वहीं छोड़ देना चाहिये ---

अगर कोई बात समझ में नहीं आए, या जिसे समझना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे हो तो उसको वहीं छोड़ देना चाहिये। जितना और जो भी समझ में आ सके, वही ठीक है| अपनी विद्वता के अहंकार प्रदर्शन के लिए ऊंची ऊंची बातें करना भी गलत है| वही बोलना चाहिए जो सामने वाले के समझ में आ सके| . देहरादून में कोलागढ़ रोड़ पर एक बहुत बड़े संत-महात्मा रहते थे जिनका नाम स्वामी ज्ञानानन्द गिरि था| वे वास्तव में परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए एक बहुत ही महान संत थे| उनसे मुझे तीन बार सत्संग लाभ मिला| मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे बहुत सारी बातें समझ में नहीं आतीं क्योंकि इतनी बौद्धिक मुझमें क्षमता नहीं है| उन्होने उत्तर दिया कि "भगवान है" बस इतना ही समझ लेना पर्याप्त है| बाकी जो आवश्यक होगा वह भगवान स्वयं समझा देंगे| (वे स्वामी आत्मानन्द गिरि के शिष्य थे| स्वामी आत्मानन्द गिरि, स्वामी योगानन्द गिरि के शिष्य थे| स्वामी योगानन्द गिरि कालांतर में परमहंस योगानन्द के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए|)

७ जून २०२०

मेरे पास कहीं भी जाने को अब कोई स्थान इस सृष्टि में नहीं बचा है ---

 मेरे पास कहीं भी जाने को अब कोई स्थान इस सृष्टि में नहीं बचा है।

कहाँ जाएँ? वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन लगाकर शांभवी मुद्रा में हर समय सर्वत्र बिराजमान हैं। सारा विश्व, सारी सृष्टि वे स्वयं हैं। उनसे परे कुछ भी नहीं है। पूरी सृष्टि में उनके सिवाय कोई अन्य है ही नहीं, केवल वे ही वे हैं। एकमात्र खाली स्थान उनके हृदय में है, जहाँ अपना डेरा मैंने लगा रखा है। और कोई स्थान खाली नहीं है। समर्पण के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ है भी तो नहीं। वही तो सर्वमय, सर्वरूप हैं। जब वे स्वयं सम्मुख है, दृष्टि में दूसरा रूप कैसे आ सकता है?
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
७ जून २०२३

क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?

 

क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?
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जिन्ना का जिन्न तो अब बोतल में बंद है, कभी बाहर नहीं निकल सकता। भारत की रक्षा सदा से क्षत्रियों ने की है, उन्होंने ही समाज और राष्ट्र के हित में सबसे अधिक त्याग और बलिदान दिये हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि क्या "नमक का मूल्य" (नमकहलाली) "समाज और राष्ट्र के हित" से अधिक था?
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तुर्क (मुगल) आक्रांताओं की सेना में सारे मुस्लिम ही नहीं होते थे। आधे से अधिक तो भाड़े के हिन्दू सिपाही होते थे। ऐसे ही अंग्रेजों की सेना में लगभग सारे सिपाही भारत के ही भाड़े के हिन्दू और मुस्लिम सिपाही थे। उनकी निष्ठा (वफादारी) भारतीय समाज व राष्ट्र के प्रति न होकर, भाड़ा (तनखा या वेतन) देने वाले के प्रति ही होती थी। चाहे समाज और राष्ट्र नष्ट हो जाये, पर नमकहरामी नहीं होनी चाहिए। लगता है यही उनकी सोच थी। उस समय राष्ट्र और समाज की चेतना नहीं थी, यही विदेशी सत्ताओं की सफलताओं, और हमारी विफलताओं का कारण था। फिर भी भारत कभी भी पराधीन नहीं हुआ। विदेशियों का शासन भारतीय राजाओं के साथ संधि करके ही स्थापित हुआ। भारत सदा स्वाधीन था, और सदा स्वाधीन रहेगा।
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तुर्क और अंग्रेज़ दोनों ही लुटेरे थे। वे भारत को लूटने आये और सत्तासीन हो गए। तत्कालीन साहित्य और राजनीतिक स्थिति यही कहती है कि -- भूमिचोर ही भूप बन गए। सबसे दुःखद बात तो यह है कि तुर्कों और अंग्रेजों के पक्ष में भाड़े के हिन्दू ही लड़ रहे थे। अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा लागू की। हिन्दू जमींदार ही अपने हिन्दू किसानों का खून चूस कर अंग्रेजों की तिजोरी भर रहे थे। भारत के तुर्क (मुगल) और अंग्रेज आक्रांताओं की फौज भाड़े के भारतीयों की ही फौज थी।
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अभी भी गद्दारों की कमी भारत में नहीं है। लेकिन समाज और राष्ट्र की चेतना वाले नागरिक बहुमत में हैं, इसीलिए हम सुरक्षित हैं। जिस दिन सेकुलर कौमनष्ट और जिहादी लोग सत्ता में आ गए, उस दिन से फिर भारत को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करना होगा। अब राष्ट्रभक्ति का महत्व, नमक की कीमत से अधिक है।
७ जून २०२३

ईरान की वर्तमान विचित्र स्थिति और विश्व युद्ध का खतरा --

 ईरान की वर्तमान विचित्र स्थिति और विश्व युद्ध का खतरा -- (अति अति महत्वपूर्ण लेख, जिसका निश्चित प्रभाव भारत पर पड़ेगा)

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बिस्मिल्ला-हिर्रहमा-निर्रहीम (بِسْمِ ٱللَّٰهِ ٱلرَّحْمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ)॥ कल एक समाचार था कि ईरान ने ध्वनि की गति से १५ गुणा अधिक तीब्र गति से चलने वाली हाईपरसोनिक मिसाइल बना ली है। वहाँ की स्थिति बड़ी विचित्र है। वहाँ शिया मुल्ले-मौलवियों की सरकार है जो शिया शरीयत के अनुसार शासन चलाती है। वहाँ के मुल्ले-मौलवियों ने अपने मज़हब की बड़ी से बड़ी कसम खा रखी है कि जिस दिन भी उनके पास क्षमता होगी, वे इज़राइल को नष्ट कर के लालसागर में फेंक देंगे। वहाँ के मौलवियों ने यह भी कह रखा है कि जिस दिन वे अणु बम बना लेंगे, सबसे पहला निशाना इज़राइल को बनाएँगे। अब वे अणुबम बनाने के बहुत समीप हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इज़राइल शांत बैठेगा?
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ईरान के अधिकांश (लगभग ९०%) लोगों ने इस्लाम को मानसिक रूप से त्याग दिया है। वे इस्लामी कानूनों का उपयोग सिर्फ बहु-विवाह और तलाक के लिए करते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के लिए हिजाब आवश्यक है, अन्यथा जेल में डाल कर उनकी हत्या तक कर दी जाती है। घर में हिजाब कोई महिला नहीं पहिनती। कोई महिला नमाज़ नहीं पढ़ती। पूरे ईरान में ८०,ooo से अधिक मस्जिदें बंद हो चुकी हैं, क्योंकि वहाँ कोई नमाज़ नहीं पढ़ता।
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अंतिम बात यह कह कर इस लेख को समाप्त करता हूँ कि यदि ईरान में मुल्ला-मौलवियों का ही राज रहा तो इज़राइल से युद्ध और महाविनाश तय है। किसी तरह यदि मुल्ला-मौलवियों का राज हट जाये तो ईरान उस क्षेत्र का सर्वाधिक विकसित देश होगा।
होरमुज जलडमरूमध्य में नौकानयन होते रहना, भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
७ जून २०२३

हमारा निवास परमात्मा के सर्वव्यापी हृदय में है ---

  हमारा निवास परमात्मा के सर्वव्यापी हृदय में है, हम स्वयं आनंद-सिंधु हैं जो कभी प्यासा और अतृप्त नहीं हो सकता ---

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सृष्टिकर्ता परमात्मा से साक्षात्कार (Self-Realization) ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम इस जन्म में कर सकते हैं। स्वयं में परमात्मा को निरंतर व्यक्त करें। अपनी गुरु-परंपरा के अनुसार प्राणायाम, ध्यान आदि करें। उपदेश बहुत हैं, इसीलिए मैंने गुरु-परंपरा का उल्लेख किया है। अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार उपासना करें। मुझे मेरे पूर्व-जन्म से ही मार्गदर्शन प्राप्त है, अतः कोई संशय नहीं है। कोई कमी है तो व्यक्तिगत रूप से मुझमें ही है, महान गुरुओं में या उनकी परंपरा में नहीं। मेरे में बहुत अधिक कमियाँ हैं।
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ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करते करते जब ज्योतिर्मय कूटस्थ सूर्यमण्डल के दर्शन होने लगें तब उस सूर्यमंडल में भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करें। जब भी समय मिले तब गीता के १५वें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" का स्वाध्याय करें और उसके आरंभ के ऊर्ध्वमूल वाले श्लोकों को समझते हुए तदानुसार ऊर्ध्वमूल में ही ध्यान करते हुए अपनी चेतना का अनंत में विस्तार करें।
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गीता में -- ज्ञान, भक्ति और कर्म -- इन तीनों विषयों को भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छी तरह से समझाया है। हमारा निवास परमात्मा के हृदय में है। हम स्वयं अनंत आनंद-सिंधु हैं, अब कभी प्यासे और अतृप्त नहीं रहेंगे।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जून २०२४

गंगा दशहरा पर सभी श्रद्धालुओं का अभिनंदन ---

माँ गंगा का अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में हुआ था। भागीरथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पृथ्वी पर माता गंगा को लाना चाहते थे। उन्होंने माँ गंगा की कठोर तपस्या की। भागीरथ ने उनसे धरती पर आने की प्रार्थना की। माँ गंगा ने बताया कि उनकी तेज धारा का प्रचंड वेग केवल भगवान शिव ही सहन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। मां गंगा के प्रचंड वेग को भगवान शिव ने अपनी जटाओं में समा लिया और नियंत्रित वेग से गंगा को पृथ्वी पर प्रवाहित किया।

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देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले ॥ १ ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचितं गङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ ५ जून २०२५

मेरा साथ देने के लिए आप सभी को साभार धन्यवाद !!

 मेरा साथ देने के लिए आप सभी को साभार धन्यवाद !!

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मेरी अब एकमात्र अभीप्सा है -- अपने परमप्रिय प्रत्यगात्मा परमशिव में रमण करने की। इधर-उधर कहीं भी देखने की कोई इच्छा नहीं रही है। "तन समर्पित, मन समर्पित, तुझको अपनापन समर्पित॥" एक स्वभाविक परम अभीप्सा जागृत थी, जो अब प्रचंड रूप से और भी अधिक प्रबल हो गई है। परमात्मा की प्रेरणा से यहाँ इसी समय श्रीमद्भगवद्गीता के तीन श्लोक उद्धृत कर रहा हूँ।
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे। मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥
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(प्रश्न) : परमात्मा से हमें क्या चाहिये?
(उत्तर) : वे हमारा समर्पण पूर्णतः स्वीकार करें। और कुछ भी नहीं चाहिए।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥"
"वायुर्यमोग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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मैं मेरे प्रभु के साथ एक हूँ। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। जिसको प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जून २०२३

परमात्मा से जैसे भी निर्देश मिलें, उनका पालन करें ---

परमात्मा से जैसे भी निर्देश मिलें, उनका पालन करें ---
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परमात्मा से अपने संबंध व्यक्तिगत बनायें, मार्गदर्शन भी उन्हीं से लें, और समर्पित होकर उन्हीं को कर्ता बनायें। वे स्वयं ही एकमात्र कर्ता हैं, हम नहीं। कोई भी संशय हो तो उसका समाधान भी उन्हीं से करायें। हमारे माध्यम से सारी साधना वे स्वयं ही करते हैं। भटकने से अधिक बुरी गति, कोई दूसरी नहीं है। अपना अच्छा-बुरा सब कुछ, और स्वयं को भी उन्हें समर्पित कर दो। हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। सत्यनिष्ठा से किये गये समर्पण में जितनी अधिक पूर्णता होगी, जीवन में उतना ही अधिक संतोष, तृप्ति और आनंद मिलेगा।
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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जो मेरे माध्यम से साँस ले रहा है, जो मेरी आँखों से देख रहा है, जो मेरे ह्रदय में धड़क रहा है, जो मेरे माध्यम से सोच विचार कर रहा है, जो इस देह की सारी क्रियाओं का संचालक है, जो मेरा प्राण और अस्तित्व है, जो मेरा प्रेम और आनंद है, जो मेरा सब कुछ है, वह परमात्मा ही है। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। मैं कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि उसका दिया सब कुछ उसी को बापस लौटाने के लिए तड़प रहा हूँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जून २०२५