Monday, 12 May 2025

सिर्फ प्रेम, प्रेम, और प्रेम, अन्य कुछ भी नहीं .....

 सिर्फ प्रेम, प्रेम, और प्रेम, अन्य कुछ भी नहीं .....

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भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मांगना उनका अपमान है| जब हम भगवान के प्रेममय रूप का ध्यान करते हैं तब जिस आनंद की अनुभूति होती है वह आनंद अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता| वह आनंद अनुपम और अतुल्य है| यह बात करने का नहीं, अनुभव का विषय है| अपने सम्पूर्ण हृदय से प्रभु को प्रेम करो, और उनसे उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मत चाहो| जो आनंद, संतुष्टि और तृप्ति उनको प्रेम करने और उनकी उपस्थिति के आभास से मिलती है, वह इस सृष्टि में अन्य कहीं भी नहीं मिल सकती| उसके आगे अन्य सब कुछ गौण है| जब उनका प्रेम मिल गया तो सब कुछ मिल गया| अन्य कोई अपेक्षा मत रखिये|
हम सब के ह्रदय में वह प्रेम जागृत हो, सभी को शुभ मंगल कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मई २०१८ पुनश्च: --- भगवान एक रस हैं जिसे चखते रहो और आनंद लो. वे एक प्रवाह हैं जिन्हें स्वयं के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होने दो. उनके सिवा कोई अन्य है ही नहीं. वे अनिर्वचनीय परमप्रेम हैं, जिनके प्रेम में स्वयं को विसर्जित कर दो.
!! ॐ ॐ ॐ !!

यशस्वी और शूरवीर महाराज छत्रसाल ---

 यशस्वी और शूरवीर महाराज छत्रसाल

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज


चाटुकार दरबारियों, घटिया चापलूसों और बौद्धिक गुलामों के द्वारा औरंगजेब के नाम से मशहूर किया गया लफंगा मुइउद्दीन मुहम्मद 1618 ईस्वी में पैदा हुआ। तब तक शराबी और लफंगे सलीम ने, जिसे दरबारियों और बौद्धिक गुलामों ने जहांगीर प्रचारित किया है और जो राजपूतानी की कोख से जन्म लेने के बाद भी न तो वीर था और ना ही विद्यापरायण, ईस्ट इंडिया कंपनी को सूरत मंे तंबाकू के व्यापार की इजाजत दे दी थी और कंगलों की इस कंपनी ने, जिसे विश्व में व्यापार का कोई अनुभव तब तक प्राप्त नहीं था, व्यापार के नाम पर लूटपाट और डकैती शुरू कर दी। उधर पुर्तगाली राजकुमारी से इंग्लैंड के प्रिंस चार्ल्स द्वितीय का विवाह हुआ तो उन्होंने मुंबई टापू दहेज में राजकुमार को दे दिया। यह टापू सकरी खाड़ियों, दलदल और पहाड़ियों के कारण भारत के आंतरिक भूभाग से अलग-थलग था। पुर्तगाली कंपनी के एक अधिकारी अलफांसो अलबुकर्क ने भारतीय व्यापारियों से रिश्ते बनाकर और गोवा तथा मुंबई के बीच के कई जागीरदारों से दोस्ती कर छल और विश्वासघात के द्वारा कई जगह छोटी-छोटी सफलतायें पा ली थीं। यूरोपीय ईसाई एक कृतघ्न जाति रही है और उन्होंने सदा अपने को सहायता देने वालों के साथ कृतघ्नता और विश्वासघात किया।

दक्षिण पश्चिमी भारत की एक महत्वपूर्ण जागीर कोझीकोड (जो अब कालिकट के नाम से प्रसिद्ध है) का मुख्यालय भी कोझीकोड था जो दक्षिणी पश्चिमी समुद्र तट का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। जहाँ से चीन और पश्चिम एशिया दोनों ही दिशाओं में हिन्दू-व्यापारी नियमित जाते थे और बहुत बड़ी मात्रा में व्यापार होता था। वास्कोडिगामा भी वस्तुतः उन हिन्दू व्यापारियों की सहायता से ही 1498 ईस्वी में यहाँ पहुंचा था। कोझीकोड के राजा का नाम समुद्री था। जिसे मलयालम में समुत्री कहते थे और चीनी लोग जिसे शमितीसी कहते थे। अरब लोग उन्हें सामुरी कहते थे। यूरोपीय ईसाई भाषा संबंधी अपनी असमर्थता के कारण और नाम बिगाड़ने की अपनी असंस्कृत और विकृत आदत के कारण जामोरिन कहने लगे। जामोरिन ने वास्कोडिगामा को और बाद में अलबुकर्क को संरक्षण दिया। परंतु इन कृतघ्न दुष्टों ने उनके साथ दगाबाजी की और गुप्त रीति से विष देकर उनकी हत्या कर दी। इसके लिये उसने एक हिन्दू स्त्री से प्रेम का नाटक किया और उसके द्वारा ही जहर दिलवाया। अलबुकर्क ने शुरू में इस्लाम से अपनी घृणा के कारण मुसलमानों को बड़ी संख्या में मारा और मरवाया तथा इसके लिये हिन्दू राजाओं से सहयोग और प्रशंसा पाने का प्रयास करता रहा जिसमें अधिक सफल नहीं हुआ। अलबुकर्क की नीति पर चलते हुये पुर्तगालियों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के समय भी उनसे छलपूर्ण मैत्री का प्रयास किया परंतु शिवाजी महाराज उनके झांसे में नहीं आये। इस अलबुकर्क ने जमोरिन की हत्या के बाद कई छोटे-छोटे इलाकों पर कब्जा किया। उनमें से मुंबई का उजाड़ टापू भी एक था। जो पुर्तगाल के राजा ने इंग्लैंड के राजकुमार के साथ अपनी बेटी की शादी करते समय दहेज में दे दिया जिसे चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दस पौंड वार्षिक किराये पर दे दिया। यह दयनीय स्थिति थी उस समय इंग्लैंड की।

मुइउद्दीन मुहम्म्द के जन्म के समय सलीम का बेटा खुर्रम (जो मुइउद्दीन का पिता था) ऐश में डूबा हुआ था। मुइउद्दीन खुर्रम का तीसरा बेटा था और छठवीं संतान था (बीच मंे तीन बेटियां हुईं)। सलीम ने मुइउद्दीन और उसके भाई को विद्रोह के कारण लाहौर की जेल में बद कर रखा था। सलीम की मृत्यु के बाद उन्हें छोड़ा गया और वे जाकर आगरा में खुर्रम से मिले।
भाग्यवश मुइउद्दीन हाथी से कुचले जाने से बचा और इस कुशलता के लिये उसकी दरबार में प्रशंसा हुई। परंतु अपनी तारीफ से उसका गुमान बढ़ता चला गया और वह एक अत्याचारी जागीरदार बन गया। उसने अपने पिता को जेल में डालने के बाद तथा भाइयों की हत्या करने के बाद आगरे की जागीर पर कब्जा किया और अपने प्रपितामह जलालुद्दीन (नकली नाम अकबर) के समय से राजपूतों से चली आ रही दोस्ती का लाभ उठाकर राजपूतों के नेतृत्व में ओरछा के बुन्देलों पर आक्रमण कर दिया। 1635 ईस्वी में यह आक्रमण हुआ। खुर्रम और मुइउद्दीन दोनों ही राजपूतानियों की संतति थे और वस्तुतः जलालुद्दीन के समय से ही इनका कोई मजहब नहीं था परंतु युद्धोन्माद के अभ्यस्त मोमिनो का सहारा लेने के लिये वे प्रायः मौलवियों को भी महत्व देते थे और मुसलमानों के बीच खुद को मुसलमान तथा राजपूतों के बीच खुद को राजपूत प्रचारित करते रहते थे। मुइउद्दीन भी ऐसा ही दोगला था। राजपूत सेनापति के साथ उसने ओरछा को जीता और फिर ओरछा नरेश से संधि कर ली। नरेश ने इस संधि के बाद रामराजा मंदिर के बगल में ही बनाये गये महल का नाम जहांगीर महल कर दिया जो वस्तुतः खुर्रम के मशहूर नाम जहांगीर के आधार पर रखा गया था।

उधर गोड़ो और चंदेलों में आपसी युद्ध का लाभ उठाकर मुइउद्दीन ने चंदेलों को अपने साथ लिया और कई लड़ाइयों में गोड़ों के विरूद्ध चंदेलों की सहायता ली। इसी बीच पन्ना पर बुंदेलों का शासन हो गया। उसी समय महामति प्राणनाथ ने पन्ना में डेरा डाला और बंुदेला महाराज छत्रसाल की मुइउद्दीन से दोस्ती कराई। छत्रसाल ने कई लड़ाइयों में मुइउद्दीन का साथ दिया। परंतु फिर मुइउद्दीन पर मौलाओं का बढ़ता प्रभाव देखकर उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज से हाथ मिलाया और मुइउद्दीन के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। मुइउद्दीन छत्रसाल से थर-थर कांपता था। ऐसे वीर थे हमारे महाराज छत्रसाल।

महाराज छत्रसाल ने अनेक लड़ाइयों में मुइउद्दीन और उसके सहयोगी राजपूतों की सेनाओं को हराया। 1671 ईस्वी तक उन्होंने पूर्वी मालवा को एक स्वतंत्र राज्य बनाया और फिर 40 वर्षों तक पन्ना को राजधानी बनाकर चंबल और बेतवा तथा यमुना और तमसा नदी के बीच के बहुत बड़े क्षेत्र पर राज्य करते रहे। यह क्षेत्र तत्कालीन इंग्लैंड से बड़ा था। इस प्रकार महाराज छत्रसाल ही महाराणा प्रताप के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। महाराज छत्रसाल और छत्रपति शिवाजी महाराज ही 17वीं शताब्दी ईस्वी के भारत के प्रतापी सम्राट हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज तत्कालीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट हैं और महाराज छत्रसाल उनके सहयोगी सम्राट हैं। जिनकी स्वयं में बड़ी महिमा और गरिमा है। इन महान राजाओं को केन्द्र में रखे बिना 17वीं शताब्दी ईस्वी के भारत के विषय में विशेषकर उत्तरी भारत से महाराष्ट्र और गोवा तक फैले क्षेत्र के विषय में कुछ भी लिखना इतिहास नहीं है, कूड़ा कबाड़ा है। इतिहास तो वही है जो महाराणा प्रताप, महाराज छत्रसाल और छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता, भव्यता, महिमा और साम्राज्य का वर्णन करे।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

हम अपने स्वधर्म की रक्षा करें ---

 हम अपने स्वधर्म की रक्षा करें ---

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हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा की अभीप्सा (Aspiration) और स्वधर्म -- परमात्मा की प्राप्ति है। बाकी सब इसी का विस्तार है। यह विचार ही राष्ट्र-निर्माण करता है।
आसुरी शक्तियों से संघर्ष में स्वधर्म ही हमारी रक्षा कर सकता है, राज्य-सत्ता नहीं। हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा। "धर्मो रक्षति रक्षितः" --यह वाक्य मनुस्मृति और महाभारत में आता है।
गीता में भगवान का आश्वासन है ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०॥
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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मुझे ऐसा आभास होता है कि अगले कुछ वर्षों में विश्व की अधिकांश जनसंख्या नष्ट हो जाएगी। बहुत कम मनुष्य इस पृथ्वी पर बचेंगे। रक्षा उन्हीं की होगी जो ईश्वर की चेतना में रहेंगे। धर्म की पुनःप्रतिष्ठा होगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१३ मई २०२३

सब का साथ, सब का विकास --- .

 सब का साथ, सब का विकास ---

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किसी भी देश की वास्तविक संपदा उसके चरित्रवान, कार्यकुशल और सत्यनिष्ठ नागरिक होते हैं। अंधकार और प्रकाश साथ-साथ नहीं रह सकते। अमृत में थोड़ा सा विष मिला दिया जाये तो पूरा अमृत ही विष हो जाएगा।
अमृत का भी साथ, और विष का भी साथ --- किसी का विकास नहीं कर सकता। उसका परिणाम - मृत्यु है।
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समान नागरिक संहिता, हिंदुओं को धर्मशिक्षा का अधिकार, हिन्दू मंदिरों से सरकारी लूट की समाप्ति, आदि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनसे हिंदुओं को बड़ी पीड़ा होती है। हिंदुओं के साथ भी समानता का व्यवहार हो। ये भी विकास-पुरुष से हमारी अपेक्षाएं हैं।
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जिनके कारण आप सत्ता में हैं, उन्हें नाराज न करें। जिन्हें आप प्रसन्न करने का प्रयास कर रहे हैं, वे कभी भी आपको अपना मत (Vote) नहीं देंगे।
शुभ कामनाएं !!
१३ मई २०२३

"अद्वैतानुभूती" के रचेता आचार्य गोविन्दपाद ---

 प्रिय मान्यवर, सप्रेम नमस्ते! ॐ नमः शिवाय|

आपने मुझसे "अद्वैतानुभूती" के रचेता आचार्य गोविन्दपाद के बारे में कुछ लिखने को कहा था, जिनकी आध्यात्ममणि का स्पर्श पाकर आदि शंकराचार्य के जीवन में आध्यात्म की स्वर्णज्योति प्रकाशित हुई थी| मैं जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ उसका श्रेय संतों से प्राप्त सत्संग के आशीर्वाद का फल है| इसमें मेरी ओर से कुछ भी नहीं है|
सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे| ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे| इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है| कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया| पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद और तीसरे वैद्यराज चरक| इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने भी की है|
आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये| आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं| आप मुझ पर कृपा करें|
आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम?
इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया| अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया|
इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी| यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के उपासक थे|
सार की बात जो मुझे ज्ञात थी वह मैंने आप को कम से कम शब्दों में बता दी| आगे आप स्वयं अपनी साधना से जानिये|
धन्यवाद| ॐ शिव ! ॐ ||
१२ मई २०१५

मैंने तो तुम्हारे चरणों में आश्रय माँगा था, पर तुम ने तो अपने ह्रदय में ही मुझे बसा दिया ---

 हे, प्रियतम प्रभु ,

मैंने तो तुम्हारे चरणों में आश्रय माँगा था, पर तुम ने तो अपने ह्रदय में ही मुझे बसा दिया|
यह सृष्टि तुम्हारे मन का एक स्वप्न मात्र है| तुम्हारे इस स्वप्न में मेरा अब और कोई पृथक अस्तित्व न हो|
मैं, अपनी पृथकता यानि मेरापन, सारे संचित कर्मफल, सारी कमियाँ, अच्छाइयाँ, बुराईयाँ, अवगुण, गुण, पाप व पुण्य तुम्हें ही बापस अर्पित कर रहा हूँ|
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मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि अब और कोई साधना कर सकूँ|
कुछ करना है तो वह अब तुम्हीं करोगे| मेरे सारे अधूरे कार्य भी अब तुम्हें ही पूरे करने होंगे|
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तुम्हारे इस दिव्य परम प्रेम के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
मैं स्वयं ही तुम्हारा परम प्रेम हूँ और सदा रहूँ|
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव॥" ॐ ॐ ॐ ||
१२ मई २०१६

परमात्मा को समर्पण !!! ....

 परमात्मा को समर्पण !!! ....

अब इतनी शारीरिक और मानसिक क्षमता, उत्साह व ऊर्जा नहीं बची है कि मैं भगवान का ध्यान कर सकूँ | भक्तिभाव में भी संदेह होने लगा है कि कहीं यह आत्म-संतुष्टि के लिए हो रही भावुकता मात्र ही तो नहीं है | यह सोच विचार कर सब कुछ अपनी विवशता में भगवान को ही समर्पित कर दिया कि हे प्रभु, आप जानो और आपका काम जाने, मेरे वश की यह बात नहीं है | अगर साधना ही करानी थी तो उसकी सामर्थ्य भी देते ! अब तो कुछ नहीं चाहिए आपसे |
पर घोर आश्चर्य !!!!!!
सहसा मैंने यह पाया है कि मेरा कुछ करने का भाव तो एक भ्रम मात्र था | सब कुछ तो परम ब्रह्म परम शिव ही कर रहे हैं | वे अपना ध्यान स्वयं ही कर रहे हैं | मैं तो मात्र एक उपकरण था जिसका कोई अस्तित्व अब नहीं रहा है | मैनें तो उनके श्रीचरणों में आश्रय माँगा था, पर उन्होंने तो अपने ह्रदय में ही मुझे बसा लिया है |
हे प्रभु, यह सृष्टि आपके मन का एक विचार या स्वप्न मात्र है | आपके इस विचार या स्वप्न में मेरा आपसे अब कोई पृथक अस्तित्व नहीं है | मेरी अपनी पृथकता यानि मेरापन, सारे संचित कर्मफल, सारी कमियाँ, अच्छाइयाँ, बुराईयाँ, अवगुण, गुण, पाप व पुण्य सब आपको ही बापस अर्पित है | मुझ में इतनी क्षमता नहीं है कि अब और कोई साधना कर सकूँ | आप और मैं एक हैं, और सदा एक ही रहेंगे | जो आप हैं वह ही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही आप हैं |
ॐ ॐ ॐ ||
१२ मई २०१७

भद्रकालीपीठाधीश्वर जगद्गुरू दंडी स्वामी जोगेन्द्राश्रम जी महाराज द्वारा व्हाट्सएप्प पर भेजा गया आशीर्वादात्मक संदेश जिसे कॉपी/पेस्ट कर रहा हूँ :--- .

 भद्रकालीपीठाधीश्वर जगद्गुरू दंडी स्वामी जोगेन्द्राश्रम जी महाराज द्वारा व्हाट्सएप्प पर भेजा गया आशीर्वादात्मक संदेश जिसे कॉपी/पेस्ट कर रहा हूँ :---

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नारायण स्मरण! जय जगदम्बे !! जय श्री महाकाल !!!
आपका मंगल हो !!!!
राम और रावण का युद्ध चल रहा था । तब अंगद रावण को बोला, तू तो मरा हुआ है । तुझे मारने से क्या फायदा ?
तब
रावण बोला– मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे ?
यदि किसी व्यक्ति में इन 14 दुर्गुणों में से एक दुर्गुण भी आ जाता है तो वह मृतक समान हो जाता है ।
विचार करें कहीं यह दुर्गुण हमारे पास तो नहीं हैं....कि हमें मृतक समान माना जाय ।
1.कामवश- जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है । जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होती और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है । वह अध्यात्म का सेवन नही करता है । सदैव वासना में लीन रहता है ।
_2.वाम मार्गी- जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले । जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो । नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है । ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं ।
_3.कंजूस-कृपण- अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । जो व्यक्ति धर्म के कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याण कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो । दान करने से बचता हो । ऐसा आदमी भी मृत समान ही है ।
4.अति दरिद्र- गरीबी सबसे बड़ा श्राप है । जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वो भी मृत ही है । अत्यन्त दरिद्र भी मरा हुआ है । दरिद्र व्यक्ति को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है । गरीब लोगों की मदद करनी चाहिए ।
_5.विमूढ़- अत्यन्त मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । जिसके पास विवेक, बुद्धि नहीं हो । जो खुद निर्णय ना ले सके यानि हर काम को समझने या निर्णय को लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृत के समान ही है । मूढ़ अध्यात्म को समझता नहीं है ।
6.अजसि- जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है । जो घर, परिवार, कुटुंब, समाज, नगर या राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता है, वह व्यक्ति मृत समान ही होता है ।
7.सदा रोगवश- जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है । स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है । नकारात्मकता हावी हो जाती है । व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है । जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है ।
8.अति वृद्ध व्याधि युक्त अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है । शरीर और बुद्धि, दोनों असक्षम हो जाते हैं । ऐसे में कई बार स्वयं वह और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके ।
_9.सतत क्रोधी- 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृत समान ही है । हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करना, ऐसे लोगों का काम होता है । क्रोध के कारण मन और बुद्धि, दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं । जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता है । पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है । क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरक गामी होता है ।
10.अनाचार पाप के धन से परिवार का पोषण- जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है । उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं । हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए । पाप की कमाई पाप में ही जाती है । और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है ।
11.तनु पोषक- ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना ना हो, तो ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है । जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकि किसी अन्य को मिले ना मिले, वे मृत समान होते हैं । ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं । शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है । क्योंकि यह शरीर विनाशी है । नष्ट होने वाला है ।
12.निंदक- अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है । जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नज़र आती हैं । जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है । ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी ना किसी की बुराई ही करे, वह इंसान मृत समान होता है ।
परनिंदा करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है ।
_13.परमात्म विमुख- जो व्यक्ति परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है । जो व्यक्ति ये सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं । हम जो करते हैं, वही होता है । संसार हम ही चला रहे हैं । जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता है, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है ।
_14. श्रुति , संत विरोधी- जो संत, ग्रंथ, पुराण का विरोधी है, वह भी मृत समान होता है । श्रुत और सन्त ब्रेक का काम करते हैं । अगर गाड़ी में ब्रेक ना हो तो वह कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है । वैसे ही समाज को सन्त के जैसे ब्रेक की जरूरत है । नहीं तो समाज में अनाचार फैलेगा । १२ मई २०२०

वर्तमान इज़राइल-फिलिस्तीन युद्ध का कारण और उसका समाधान ---

 वर्तमान इज़राइल-फिलिस्तीन युद्ध का कारण और उसका समाधान ---

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कल से इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य वर्तमान युद्ध पर हजारों की संख्या में ट्वीट हो रहे हैं ट्वीटर पर, यूट्यूब पर पचासों वीडियो आ रहे हैं, टीवी चैनलों पर अनेक बकासुर योद्धा रौद्र रूप में भयंकर वाक्युद्ध कर रहे हैं, अनेक सनसनीखेज समाचार आ रहे हैं, लेकिन वास्तविकता को बताया नहीं जा रहा है। सत्य को जान बूझ कर छिपाया जा रहा है।
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वर्तमान में जो युद्ध हो रहा है, वह ईरान का इज़राइल के विरुद्ध एक छद्म युद्ध है। इस समय फिलिस्तीन की औकात नहीं है कि वह इज़राइल से युद्ध कर सके, क्योंकि लगभग सभी अरब देशों ने फिलिस्तीन को सहायता देना बंद कर रखा है, और सभी अरब देशों ने इज़राइल से अपने संबंध सामान्य कर लिए हैं। पिछले एक वर्ष से फिलिस्तीन को शस्त्रों की आपूर्ति ईरान कर रहा है।
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अंतर्राष्ट्रीय मामलों के ऊपर नित्य लेख लिखने वाली गेटस्टोन इंस्टीट्यूट ने अपने आज के लेख में लिखा है ---
--- Were it not for Iran's financial and military aid, the Palestinian terrorist groups would not have been able to attack Israel with thousands of rockets and missiles.
In the past, Iran used its proxy in Lebanon, Hezbollah, to attack Israel. Iran is now using its Palestinian proxies to achieve its goal of eliminating Israel and killing Jews. This is a war not only between Israel and the Palestinian terrorist groups. Rather, it is a war waged by Iran against Israel. ---
उपरोक्त लेख को लिखने वाला भी एक प्रसिद्ध निष्पक्ष अरब पत्रकार है।
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इज़राइल और फिलिस्तीन का विवाद सौ वर्ष पुराना हो गया है। इसका समाधान यही है कि फिलिस्तीन के पास जितनी जमीन है, उसी को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मानकर फिलिस्तीन इस युद्ध को समाप्त घोषित कर दे, और आतंकवादी गतिविधियां पूरी तरह समाप्त कर दे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं है।
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प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय हिन्दू सैनिकों को युद्ध में चारे की तरह झौंक कर ब्रिटेन ने तुर्की की सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) को हराकर, उसका विखंडन कर दिया था। युद्ध के दौरान ही जब फिलिस्तीन पर तुर्की का अधिकार था, अंग्रेजों ने भारतीय हिन्दू सिपाहियों को लेकर फिलिस्तीन पर हमला किया और फिलिस्तीन को यरूशलम के साथ अपने अधिकार में ले लिया। उस समय फिलिस्तीन में अल्पसंख्यक यहूदी और बहुसंख्यक अरब बसे हुए थे। दोनों के बीच तनाव तब शुरू हुआ जब मित्र राष्ट्रों के समुदाय ने यहूदी लोगों के लिए फिलिस्तीन में इज़राइल नाम का एक Home Land स्थापित करने का निर्णय किया।
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यहूदियों की मान्यता के अनुसार फिलिस्तीन उनके पूर्वजों की पवित्र भूमि है, और अब यही उनका घर होना चाहिए। फिलिस्तीनी अरब भी इस्लाम आने से पूर्व यहूदी ही थे। लेकिन मुसलमान बनने के बाद वे यहूदियों से शत्रुता और घृणा रखने लगे। फिलिस्तीनी अरबों के लिए यह उनका देश था। सन १९२० से द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ती तक यूरोप में यहूदियों का भयंकर नर-संहार हुआ था, उस नर-संहार से बचे प्रायः सभी यहूदी भागकर अपनी एक मातृभूमि की चाह में फिलिस्तीन आ गए। सन १९४७ में संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन का विभाजन कर में उसे यहूदियों और अरबों के अलग-अलग राष्ट्रों में बाँटने का निर्णय हुआ, और यरुशलम को एक अंतरराष्ट्रीय नगर बनाया गया। लेकिन अरब पक्ष ने इसको खारिज कर दिया।
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इसके बाद की कहानी और युद्धों का तो सबको पता है। बड़ी भयंकर मारकाट और लड़ाइयाँ हुई हैं। उन्हें मैं लिखना नहीं चाहता। जो लिखने की बात है वह तो लिख दी है।
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अब भविष्य में इज़राइल और ईरान में भयानक निर्णायक युद्ध होगा जिसमें या तो ईरान ही बचेगा या इज़राइल। यह विश्वयुद्ध का कारण होगा और महा भयंकर विनाश होगा। यह युद्ध भारत से दूर हो, यही मेरी प्रार्थना है।
कृपा शंकर
१२ मई २०२१

अव्यभिचारिणी भक्ति --- (भाग २)

 अव्यभिचारिणी भक्ति --- (भाग २)

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बहुत दिनों से अव्यभिचारिणी भक्ति पर पुनश्च लिखने की इच्छा थी। दो-तीन बार पूर्व में भी लिख चुका हूँ, उसी की लगभग पुनरावृति कर रहा हूँ। इसके बाद लिखने को कुछ और अवशेष रहता ही नहीं है। भक्तों ने भगवान को उपालंभ देते हुए उन्हें एक ईर्ष्यालु-प्रेमी कहा है, जिन्हें वे ही भक्त अच्छे लगते हैं जो उनकी रचनाओं को नहीं, बल्कि सिर्फ उन्हें ही प्रेम करते हैं। भक्तों के अनुसार भगवान हमसे हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं। उन्हें ९९.९९% नहीं, बल्कि १००% प्रेम चाहिए। भगवान से पृथक, अन्य कहीं पर कभी भी हमारे प्रेम का किंचित भी होना -- भक्ति में व्यभिचार है। भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं पर किसी भी परिस्थिति में प्रेम का नहीं होना --अव्यभिचारिणी भक्ति है।
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कल-परसों मैंने अनन्य भक्ति पर एक लेख लिखा था। गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमसे अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति मांगते हैं। अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और भक्ति की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, जो अनेक जन्मों की साधना के उपरांत प्राप्त होती है। यह एक क्रमिक विकास, परमात्मा को उपलब्ध होने की अंतिम सीढ़ी, और उनकी परम कृपा है। इसके उपरांत वैराग्य का होना सुनिश्चित है।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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ईश्वर में अनन्य योग, यानि एकत्वरूप समाधि-योग से अव्यभिचारिणी भक्ति व्यक्त होती है। भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है। वे ही हमारी परमगति हैं। विविक्तदेशसेवित्व -- एकान्त पवित्र देश में रहने का स्वभाव, तथा संस्कार-शून्य जनसमुदाय में अप्रीति। यहाँ विनयभावरहित संस्कारशून्य लोगों के समुदाय का नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कारसम्पन्न मनुष्यों का समुदाय जनसमुदाय नहीं है। वह तो ज्ञानमें सहायक है।
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इस भक्ति को उपलब्ध होने पर भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं मन नहीं लगता। भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है। भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं। हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं। इसे समझना थोड़ा कठिन है। हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें। सारा जगत ब्रह्ममय हो जाए। ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो। यह अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है।
भगवान स्वयं कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति (कूटस्थ-चैतन्य) भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२:७१॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात - जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है॥
हे पृथानन्दन ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है॥
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व्यावहारिक व स्वभाविक रूप से यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति तब उपलब्ध होती है जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है| तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं। सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं। फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय -- एक ही हो जाते हैं। उस स्थिति में हम कह सकते हैं -- "शिवोहम् शिवोहम्" या "अहं ब्रह्मास्मि"। फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१२ मई २०२३

आज वैशाख शुक्ल पंचमी को आचार्य शंकर की २५३१ वीं जयंती है ----

आज वैशाख शुक्ल पंचमी को आचार्य शंकर की २५३१ वीं जयंती है। उनका जन्म जीसस क्राइस्ट से ५०८ वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। इसी तरह उनका देहावसान जीसस क्राइस्ट से ४७४ वर्ष पूर्व हुआ था। दुर्भावना से पश्चिमी विद्वान् उनका जन्म ईसा के ७८८ वर्ष बाद होना बताते हैं, जो गलत है। शंकराचार्य मठों से उपलब्ध प्राचीनतम पांडुलिपियों, अन्य ग्रंथों में दिए विवरणों और ग्रहों की तत्कालीन स्थितियों के आधार पर उनकी सही जन्म तिथि की गणना भारतीय विद्वानों द्वारा दुबारा की गई थी।

उनकी जयंती पर उन को नमन एवं सभी सनातन धर्मावलम्बियों का अभिनन्दन॥
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एक महानतम परम विलक्षण प्रतिभा जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण कर सनातन धर्म का पुनरोद्धार किया था, के बारे में लिखने का मेरा यह प्रयास सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। आज वैशाख शुक्ल पञ्चमी को उनका जन्म मेरे जैसे उनकी परंपरा के सभी अनुयायियों के ह्रदय में हुआ है, अतः शिव स्वरुप भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन, जिनकी परम ज्योति हमारे कूटस्थ में निरंतर प्रज्ज्वलित है।
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मात्र सात वर्ष का एक संन्यासी बालक, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का एक दाना तक नहीं था|। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेममूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला वह बालक था -- ‘'शंकर'’, जो आगे चलकर जगत्गुरू शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ।
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आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को मालाबार प्रान्त (केरल) के कालड़ी गाँव में तैत्तिरीय शाखा के एक यजुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया था। उस समय सारे भारत में नास्तिकता का बोलबाला था। उस नास्तिकता के प्रभाव को दूरकर उन्होंने वेदान्त और भक्ति की ज्योति से सारे देश को आलोकित कर दिया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चारों शिष्यों को आसीन किया।
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एक बार आचार्य शंकर प्रातःकाल वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये तब देखा कि एक युवा महिला अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी। उसने अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था। विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं नीचे उतर कर स्नान कर सकूं। उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया। बार बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह देते कि परे हट जाए।
आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं। इस पर वह युवा स्त्री बोली कि हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस शक्तिहीन जग में केवल ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है। एक निष्काम, निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब माया है। एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जड़वत हो गए। क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो गए हैं। स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो गए। ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं। यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है। इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए। उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की। उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
"हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी। यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं। किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण है।"
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आदि शंकराचार्य के बारे में सामान्य जन में यही धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया। पर यह सही नहीं है। अद्वैतवादी से अधिक वे एक भक्त थे, और उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया। अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि गौड़पाद थे, जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की। आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का शंकराचार्य ने विस्तृत रूप दिया। अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदन करने हेतु शंकराचार्य ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा। आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के भी उपासक थे।
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शंकराचार्य के गुरु योगीन्द्र गोविन्दपाद थे जिन्होंने पिचासी श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की। उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं। वहाँ आसपास और भी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं। पूरा क्षेत्र तपोभूमि है। राजाधिराज मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है।
अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में शंकराचार्य कहते हैं ---
"भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित्।"
-- "साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है|"
भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं। उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की हैं जो अति दिव्य और अनुपम हैं। उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है। इतना ही नहीं परम ज्ञानी के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं जो अनुपम हैं।
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यदि भगवान भाष्यकार आदि शंकराचार्य तत्कालीन विकृत हो चुके नास्तिक बौद्ध मत का खंडन करके सनातन धर्म की पुनर्स्थापना नहीं करते तो आज भारत, भारत नहीं होता, बल्कि एक पूर्णरूपेण इस्लामिक देश होता। इस्लाम का प्रतिरोध भारत इसी लिए कर पाया क्योंकि यहाँ सनातन धर्म पुनर्स्थापित हो चुका था। बौद्धों ने अपना सिर कटा लिया या धर्मान्तरित हो गए पर इस्लाम की धार का प्रतिरोध नहीं कर पाए। पूरा मध्य एशिया (जहां उज्बेकिस्तान से मुग़ल आक्रान्ता आये थे और भारत पर राज्य किया), तुर्किस्तान सहित बौद्ध मतानुयायी हो गया था। वहाँ के मुसलमान पहिले हिन्दू थे, फिर बौद्ध बने। बौद्ध मत में अनेक विकृतियाँ आ गयी थीं, और उसके अनुयायी अत्यधिक अहिंसक और बलहीन हो गए थे।
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जब इस्लाम का जन्म हुआ तब इस्लाम की आक्रामक धार इतनी तीक्ष्ण थी कि १०० वर्ष के भीतर भीतर पूरा अरब (जो हिन्दू था), बेबीलोन (वर्तमान इराक, कुवैत), पश्चिम एशिया -- यमन से लेबनान तक, उत्तरी अफ्रीका (सोमालिया, इथियोपिया, जिबूती, सूडान, मिश्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मोरक्को), मध्य एशिया के सारे देश (ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, अज़र्बेजान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान आदि), रूस के तातारिस्तान, देगिस्तान व् चेचेनिया आदि प्रदेश और पूरा फारस (वर्त्तमान ईरान) इस्लाम की पताका के अंतर्गत आ गए थे।
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लेकिन इस्लाम की आंधी एक लगभग सहस्त्र वर्ष राज्य कर के भी भारत को नष्ट नहीं कर पाई, क्योंकि यहाँ सनातन धर्म के अनुयायियों द्वारा भक्ति मार्ग के आन्दोलन द्वारा हर प्रकार के विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध हुआ।
मौलाना हाली ने दुःख प्रकट करते हुए लिखा था ---
"वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर॥"
यानी इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया॥
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मेरी दृष्टी में भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिन्होंने ढ़ाई हजार वर्षों पूर्व इस धरा पर विचरण किया। सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही महापुरुषों से हुई है। धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म दिया।
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपा शंकर
१२ मई २०२४

मैं परमशिव हूँ। शिवोहं शिवोहं ॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ !!

 मैं परमशिव हूँ। शिवोहं शिवोहं ॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ !!

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अपनी पूर्णता यानि परमशिवत्व में जागृति ही जीवन है, कोई खोज नहीं। परम शिवत्व ही हमारी शाश्वत जिज्ञासा और गति है। हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं। जिसे हम खोज रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं।
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जीवन में यदि किसी से मिलना-जुलना ही है तो अच्छी सकारात्मक सोच के लोगों से ही मिलें, अन्यथा परमात्मा के साथ अकेले ही रहें। हम परमात्मा के साथ हैं तो सभी के साथ हैं, और सर्वत्र हैं।
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भगवान ने हमें विवेक दिया है, जिसका उपयोग करते हुए अपनी वर्तमान परिस्थितियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह कार्य निज विवेक के प्रकाश में करें।
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सदा यह भाव रखें कि यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही विस्तार, और मेरा ही संकल्प है। जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, और जो कुछ भी दृष्टि से परे हैं, वह सब मैं हूँ। मैं सम्पूर्ण अस्तित्व और उसकी पूर्णता हूँ। मैं परमशिव हूँ। शिवोहं शिवोहं ॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ !!
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निर्वाण षटकम् ---
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु: चिदानंद रूपः शिवोहम् शिवोहम् ||१||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः, न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु, चिदानंदरूप: शिवोहम् शिवोहम् ||२||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ, मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः, चिदानंदरूप: शिवोहम् शिवोहम् ||३|
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं, न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता, चिदानंद रूप: शिवोहम् शिवोहम् ||४||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं, चिदानंद रूप: शिवोहम् शिवोहम् ||५||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो, विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:, चिदानंद रूप: शिवोहम् शिवोहम् ||६||
(इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम् सम्पूर्णं)
१२ मई २०२४