Monday, 12 May 2025

"अद्वैतानुभूती" के रचेता आचार्य गोविन्दपाद ---

 प्रिय मान्यवर, सप्रेम नमस्ते! ॐ नमः शिवाय|

आपने मुझसे "अद्वैतानुभूती" के रचेता आचार्य गोविन्दपाद के बारे में कुछ लिखने को कहा था, जिनकी आध्यात्ममणि का स्पर्श पाकर आदि शंकराचार्य के जीवन में आध्यात्म की स्वर्णज्योति प्रकाशित हुई थी| मैं जो कुछ भी लिखने जा रहा हूँ उसका श्रेय संतों से प्राप्त सत्संग के आशीर्वाद का फल है| इसमें मेरी ओर से कुछ भी नहीं है|
सिद्ध योगियों ने अपनी दिव्य दृष्टी से देखा था कि आचार्य गोबिन्दपाद ही अपने पूर्व जन्म में भगवान पतंजलि थे| ये अनंतदेव यानि शेषनाग के अवतार थे| इसलिए इनके महाभाष्य का दूसरा नाम फणीभाष्य भी है| कलियुगी प्राणियों पर करुणा कर के भगवान अनंतदेव शेषनाग ने इस कलिकाल में तीन बार पृथ्वी पर अवतार लिया| पहले अवतार थे भगवान पतंजलि, दूसरे आचार्य गोबिन्दपाद और तीसरे वैद्यराज चरक| इस बात की पुष्टि सौलहवीं शताब्दी में महायोगी विज्ञानभिक्षु ने भी की है|
आचार्य शंकर बाल्यावस्था में गुरु की खोज में सुदूर केरल के एक गाँव से पैदल चलते चलते आचार्य गोबिन्दपाद के आकषर्ण से आकर्षित होकर ओंकारेश्वर के पास के वन की एक गुफा तक चले आये| आचार्य शंकर गुफा के द्वार पर खड़े होकर स्तुति करने लगे कि हे भगवन, आप ही अनंतदेव (शेषनाग) थे, अनन्तर आप ही इस धरा पर भगवान् पतंजलि के रूप में अवतरित हुए थे, और अब आप भगवान् गोबिन्दपाद के रूप में अवतरित हुए हैं| आप मुझ पर कृपा करें|
आचार्य गोबिन्दपाद ने संतुष्ट होकर पूछा --- कौन हो तुम?
इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य शंकर ने दस श्लोकों में परमात्मा अर्थात परम मैं का क्या स्वरुप है यह सुनाया| अद्वैतवाद की परम तात्विक व्याख्या बालक शंकर के मुख से सुनकर आचार्य गोबिन्दपाद ने शंकर को परमहंस संन्यास धर्म में दीक्षित किया|
इस अद्वैतवाद के सिद्धांत की पहिचान आचार्य शंकर के परम गुरु ऋषि गौड़पाद ने अपने अमर ग्रन्थ "मान्डुक्यकारिका" से कराई थी| यह अद्वैतवाद का सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदित करने हेतु आचार्य शंकर ने सवसे पहिले मांडूक्यकारिका पर ही भाष्य लिखा था| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के उपासक थे|
सार की बात जो मुझे ज्ञात थी वह मैंने आप को कम से कम शब्दों में बता दी| आगे आप स्वयं अपनी साधना से जानिये|
धन्यवाद| ॐ शिव ! ॐ ||
१२ मई २०१५

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