Monday, 12 May 2025

यशस्वी और शूरवीर महाराज छत्रसाल ---

 यशस्वी और शूरवीर महाराज छत्रसाल

-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज


चाटुकार दरबारियों, घटिया चापलूसों और बौद्धिक गुलामों के द्वारा औरंगजेब के नाम से मशहूर किया गया लफंगा मुइउद्दीन मुहम्मद 1618 ईस्वी में पैदा हुआ। तब तक शराबी और लफंगे सलीम ने, जिसे दरबारियों और बौद्धिक गुलामों ने जहांगीर प्रचारित किया है और जो राजपूतानी की कोख से जन्म लेने के बाद भी न तो वीर था और ना ही विद्यापरायण, ईस्ट इंडिया कंपनी को सूरत मंे तंबाकू के व्यापार की इजाजत दे दी थी और कंगलों की इस कंपनी ने, जिसे विश्व में व्यापार का कोई अनुभव तब तक प्राप्त नहीं था, व्यापार के नाम पर लूटपाट और डकैती शुरू कर दी। उधर पुर्तगाली राजकुमारी से इंग्लैंड के प्रिंस चार्ल्स द्वितीय का विवाह हुआ तो उन्होंने मुंबई टापू दहेज में राजकुमार को दे दिया। यह टापू सकरी खाड़ियों, दलदल और पहाड़ियों के कारण भारत के आंतरिक भूभाग से अलग-थलग था। पुर्तगाली कंपनी के एक अधिकारी अलफांसो अलबुकर्क ने भारतीय व्यापारियों से रिश्ते बनाकर और गोवा तथा मुंबई के बीच के कई जागीरदारों से दोस्ती कर छल और विश्वासघात के द्वारा कई जगह छोटी-छोटी सफलतायें पा ली थीं। यूरोपीय ईसाई एक कृतघ्न जाति रही है और उन्होंने सदा अपने को सहायता देने वालों के साथ कृतघ्नता और विश्वासघात किया।

दक्षिण पश्चिमी भारत की एक महत्वपूर्ण जागीर कोझीकोड (जो अब कालिकट के नाम से प्रसिद्ध है) का मुख्यालय भी कोझीकोड था जो दक्षिणी पश्चिमी समुद्र तट का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। जहाँ से चीन और पश्चिम एशिया दोनों ही दिशाओं में हिन्दू-व्यापारी नियमित जाते थे और बहुत बड़ी मात्रा में व्यापार होता था। वास्कोडिगामा भी वस्तुतः उन हिन्दू व्यापारियों की सहायता से ही 1498 ईस्वी में यहाँ पहुंचा था। कोझीकोड के राजा का नाम समुद्री था। जिसे मलयालम में समुत्री कहते थे और चीनी लोग जिसे शमितीसी कहते थे। अरब लोग उन्हें सामुरी कहते थे। यूरोपीय ईसाई भाषा संबंधी अपनी असमर्थता के कारण और नाम बिगाड़ने की अपनी असंस्कृत और विकृत आदत के कारण जामोरिन कहने लगे। जामोरिन ने वास्कोडिगामा को और बाद में अलबुकर्क को संरक्षण दिया। परंतु इन कृतघ्न दुष्टों ने उनके साथ दगाबाजी की और गुप्त रीति से विष देकर उनकी हत्या कर दी। इसके लिये उसने एक हिन्दू स्त्री से प्रेम का नाटक किया और उसके द्वारा ही जहर दिलवाया। अलबुकर्क ने शुरू में इस्लाम से अपनी घृणा के कारण मुसलमानों को बड़ी संख्या में मारा और मरवाया तथा इसके लिये हिन्दू राजाओं से सहयोग और प्रशंसा पाने का प्रयास करता रहा जिसमें अधिक सफल नहीं हुआ। अलबुकर्क की नीति पर चलते हुये पुर्तगालियों ने छत्रपति शिवाजी महाराज के समय भी उनसे छलपूर्ण मैत्री का प्रयास किया परंतु शिवाजी महाराज उनके झांसे में नहीं आये। इस अलबुकर्क ने जमोरिन की हत्या के बाद कई छोटे-छोटे इलाकों पर कब्जा किया। उनमें से मुंबई का उजाड़ टापू भी एक था। जो पुर्तगाल के राजा ने इंग्लैंड के राजकुमार के साथ अपनी बेटी की शादी करते समय दहेज में दे दिया जिसे चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को दस पौंड वार्षिक किराये पर दे दिया। यह दयनीय स्थिति थी उस समय इंग्लैंड की।

मुइउद्दीन मुहम्म्द के जन्म के समय सलीम का बेटा खुर्रम (जो मुइउद्दीन का पिता था) ऐश में डूबा हुआ था। मुइउद्दीन खुर्रम का तीसरा बेटा था और छठवीं संतान था (बीच मंे तीन बेटियां हुईं)। सलीम ने मुइउद्दीन और उसके भाई को विद्रोह के कारण लाहौर की जेल में बद कर रखा था। सलीम की मृत्यु के बाद उन्हें छोड़ा गया और वे जाकर आगरा में खुर्रम से मिले।
भाग्यवश मुइउद्दीन हाथी से कुचले जाने से बचा और इस कुशलता के लिये उसकी दरबार में प्रशंसा हुई। परंतु अपनी तारीफ से उसका गुमान बढ़ता चला गया और वह एक अत्याचारी जागीरदार बन गया। उसने अपने पिता को जेल में डालने के बाद तथा भाइयों की हत्या करने के बाद आगरे की जागीर पर कब्जा किया और अपने प्रपितामह जलालुद्दीन (नकली नाम अकबर) के समय से राजपूतों से चली आ रही दोस्ती का लाभ उठाकर राजपूतों के नेतृत्व में ओरछा के बुन्देलों पर आक्रमण कर दिया। 1635 ईस्वी में यह आक्रमण हुआ। खुर्रम और मुइउद्दीन दोनों ही राजपूतानियों की संतति थे और वस्तुतः जलालुद्दीन के समय से ही इनका कोई मजहब नहीं था परंतु युद्धोन्माद के अभ्यस्त मोमिनो का सहारा लेने के लिये वे प्रायः मौलवियों को भी महत्व देते थे और मुसलमानों के बीच खुद को मुसलमान तथा राजपूतों के बीच खुद को राजपूत प्रचारित करते रहते थे। मुइउद्दीन भी ऐसा ही दोगला था। राजपूत सेनापति के साथ उसने ओरछा को जीता और फिर ओरछा नरेश से संधि कर ली। नरेश ने इस संधि के बाद रामराजा मंदिर के बगल में ही बनाये गये महल का नाम जहांगीर महल कर दिया जो वस्तुतः खुर्रम के मशहूर नाम जहांगीर के आधार पर रखा गया था।

उधर गोड़ो और चंदेलों में आपसी युद्ध का लाभ उठाकर मुइउद्दीन ने चंदेलों को अपने साथ लिया और कई लड़ाइयों में गोड़ों के विरूद्ध चंदेलों की सहायता ली। इसी बीच पन्ना पर बुंदेलों का शासन हो गया। उसी समय महामति प्राणनाथ ने पन्ना में डेरा डाला और बंुदेला महाराज छत्रसाल की मुइउद्दीन से दोस्ती कराई। छत्रसाल ने कई लड़ाइयों में मुइउद्दीन का साथ दिया। परंतु फिर मुइउद्दीन पर मौलाओं का बढ़ता प्रभाव देखकर उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज से हाथ मिलाया और मुइउद्दीन के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। मुइउद्दीन छत्रसाल से थर-थर कांपता था। ऐसे वीर थे हमारे महाराज छत्रसाल।

महाराज छत्रसाल ने अनेक लड़ाइयों में मुइउद्दीन और उसके सहयोगी राजपूतों की सेनाओं को हराया। 1671 ईस्वी तक उन्होंने पूर्वी मालवा को एक स्वतंत्र राज्य बनाया और फिर 40 वर्षों तक पन्ना को राजधानी बनाकर चंबल और बेतवा तथा यमुना और तमसा नदी के बीच के बहुत बड़े क्षेत्र पर राज्य करते रहे। यह क्षेत्र तत्कालीन इंग्लैंड से बड़ा था। इस प्रकार महाराज छत्रसाल ही महाराणा प्रताप के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। महाराज छत्रसाल और छत्रपति शिवाजी महाराज ही 17वीं शताब्दी ईस्वी के भारत के प्रतापी सम्राट हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज तत्कालीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट हैं और महाराज छत्रसाल उनके सहयोगी सम्राट हैं। जिनकी स्वयं में बड़ी महिमा और गरिमा है। इन महान राजाओं को केन्द्र में रखे बिना 17वीं शताब्दी ईस्वी के भारत के विषय में विशेषकर उत्तरी भारत से महाराष्ट्र और गोवा तक फैले क्षेत्र के विषय में कुछ भी लिखना इतिहास नहीं है, कूड़ा कबाड़ा है। इतिहास तो वही है जो महाराणा प्रताप, महाराज छत्रसाल और छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता, भव्यता, महिमा और साम्राज्य का वर्णन करे।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

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