Sunday, 15 June 2025

समुद्री तूफानों के बारे में ---

समुद्री तूफानों के बारे में --- जो समुद्री तूफान भूमध्य रेखा से नीचे आते हैं, वे दक्षिण दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। जो समुद्री तूफान भूमध्य रेखा से ऊपर आते हैं, वे उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। पृथ्वी के भीतर कुछ अज्ञात चुम्बकीय रेखाएँ होती हैं, जिनके अनुसार ये अपना मार्ग बनाते हैं। अरब सागर में द्वारका, और बंगाल की खाड़ी में जगन्नाथपुरी के क्षेत्र में कुछ अज्ञात आकर्षण है जो वहाँ के समुद्र में वायुमंडल के कम दबाव के क्षेत्र को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसीलिए वहाँ हर वर्ष समुद्री तूफान आते हैं।

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समुद्री तूफानों का एक निश्चित चक्र होता है जो हर वर्ष प्रकृति के नियमों के अनुसार निर्मित और संचालित होता है। प्रकृति के नियमों को समझना पड़ता है। प्रकृति अपने नियमों से चलती है, न कि मनुष्य के बनाए नियमों से। समुद्र में कम दबाव के क्षेत्र जिन्हें हम तूफान कहते हैं, यदि नहीं बनेंगे तो पृथ्वी पर वर्षा नहीं होगी।
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चंद्रमा के घटने बढ़ने का समुद्र के जल पर विशेष प्रभाव पड़ता है, जिस के कारण ज्वार भाटा आता है। गृह-नक्षत्रों का भी प्रभाव पड़ता होगा, जिस पर कोई आधुनिक अनुसंधान नहीं हुए हैं। भारत में सन १९७९ के समय से मौसम विज्ञान पर बहुत बड़े बड़े खूब अनुसंधान हुये हैं। इस विषय पर भारत अब एक अग्रणी देश है।
१६ जून २०२३

हे पुण्य भूमि भारत, हे मातृभूमि भारत .....

 हे पुण्य भूमि भारत, हे मातृभूमि भारत .....

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ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं, धर्म-आध्यात्म, भक्ति-शौर्य, वेद-पुराण, योग-वेदांत, विभिन्न दर्शन शास्त्रों, और त्याग-तपस्या व साधना की पुण्यभूमि भारत आज चोर-उचक्कों, व्यभिचारी-भ्रष्टाचारियों, बेरोजगारों-नशेड़ियों, और अधर्मी-दुष्टों की भूमि बन कर क्यों रह गई है ?????
शासक वर्ग तो विधान से ऊपर होकर जी रहा है| भूमिचोर शासक बन गए हैं| देश को बेचते जा रहे हैं| बाजारों पर विदेशियों का अधिकार हो रहा है| देश का धन विदेशों में जा रहा है| देश का विधान भारतीय लगता ही नहीं है| अल्पसंख्यकवाद, आरक्षण, धर्मनिरपेक्षतावाद आदि से देश की अखण्डता इतिहास के पन्नों में खो गयी है| कहाँ लुप्त हो गयी है भारतीय संस्कृति ?????
व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन कुंठा, असंतोष और तनाव से भर गया है|
बिलकुल वैसी ही स्थिति बन गयी है जो महाविनाश से पूर्व होती है| देश की शिक्षा पद्धति व्यक्ति को कर्महीन व लोभी-लालची बनाती जा रही है| सारे नैतिक मूल्य लुप्त होते जा रहे हैं|
ऐसे में क्या आप तटस्थ रह सकते हैं ?????
हम मातृभूमि के अभ्युत्थान और नि:श्रेयस के लिए क्या कर सकते हैं?????
हम हमारी पुण्यभूमि को कैसे परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बैठा सकते हैं?????
क्या आप सब इन बिन्दुओं पर विचार करेंगे?????
यदि कुछ नहीं कर सकते तो आपका जीवन व्यर्थ है|
जय जननी, जय भारत||
१६ जनवरी २०१३

ब्रह्ममुहूर्त में भगवान अपने प्रेमियों को पकड़ ही लेते हैं ---

 ब्रह्ममुहूर्त में भगवान अपने प्रेमियों को पकड़ ही लेते हैं ---

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भगवान की पकड़ से छुटना असंभव है। धन्य हैं वे प्रेमी जिन्हें भगवान पकड़ लेते हैं और छोड़ते नहीं हैं। उठते ही थोड़ा उष:पान करें, और सब शंकाओं से निवृत होकर अपना आसन ग्रहण कर, अपनी-अपनी गुरु-परंपरानुसार ध्यान करें।
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भगवान को अपना सारा अस्तित्व समर्पित कर दें, फिर ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें। आप यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत ज्योतिर्मय ब्रह्म, और परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं। आप ज्योतिषांज्योति, सारे सूर्यों के सूर्य, और प्रकाशों के प्रकाश हैं। आप परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति और प्रियतम प्रभु के साथ एक हैं।
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शिवोहं शिवोहं शिव शिव शिव !! अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०२३

परमात्मा का नाम, रूप और स्वभाव क्या है? ---

 परमात्मा का नाम, रूप और स्वभाव क्या है? ---

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इस बारे में श्रुति (वेद) ही प्रमाण है। सारे नाम परमात्मा के ही हैं। सारे आकार भी उसी के हैं, इसलिए परमात्मा निराकार है। मौन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में एक तप बताया है --
"मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७:१६॥"
अर्थात् - मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है॥
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जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही मुनि हैं। वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है। उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा। सिर्फ श्रुतियाँ (वेद) ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान।
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ -- शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है - हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर स्वयं को ही ढूँढ़ना होगा। जो मैंने पाया है, आवश्यक नहीं है कि वह आप के भी अनुकूल हो। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है। लेकिन अनुसंधान तो स्वयं को ही करना होगा।
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एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला, और एक मंत्र होता है कामना को नष्ट करने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब तक कोई कामना, आकांक्षा व इच्छा होती है, परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा की प्राप्ति की अभीप्सा होती है, न कि आकांक्षा।
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जहाँ सभी आकांक्षाओं का स्रोत ही सूख जाये, जहाँ से व्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है, वहीं से परमात्मा की उपासना का आरंभ होता है। जैसे अंधकार और प्रकाश साथ साथ नहीं रह सकते, वैसे ही योग और भोग भी साथ-साथ नहीं हो सकते। कुछ पाने की कामना का ही नाश करना होगा। परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए सिर्फ स्वयं का समर्पण ही होता है, न कि कुछ प्राप्ति।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

 परमात्मा के समक्ष होने पर क्या होता है? ---

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जब हम स्वयं परमात्मा के समक्ष होते हैं, तब सारे उपदेश, आदेश, सिद्धान्त, मत-पंथ, संप्रदाय, मांग, कामना, आकांक्षा, अपेक्षा, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य आदि सब तिरोहित हो जाते हैं। हमारा समर्पण पूर्ण प्रेम और सत्यनिष्ठा से हो, अन्य कुछ भी नहीं। आध्यात्म में "भटकाव" बड़ा कष्टदायी है। भगवान सर्वत्र सदैव निरंतर हमारे समक्ष हैं, और क्या चाहिए? सदा उनकी चेतना में निरंतर बने रहो।
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शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती। भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र और सर्वदा हमारे साथ एक हैं। वे हमारे प्राण और अस्तित्व हैं। वे कभी हमसे पृथक नहीं हो सकते। कहीं कोई भेद नहीं है। हम अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं। परमात्मा का ध्यान कीजिये, वे स्वयं को हमारे में व्यक्त करेंगे। यही सर्वश्रेष्ठ सेवा है, जो हम इस समय कर सकते हैं।
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निराश होने की आवश्यकता नहीं है। तमोगुण की प्रधानता से हम निराश हो जाते हैं। तमोगुण ही असत्य और अंधकार की शक्ति है। जिस समय जिस गुण की प्रधानता हमारे में होती है, उस समय वैसे ही हमारे विचार बन जाते हैं। तमोगुण के कारण हमें अपने चारों ओर का वातावरण बहुत अधिक अंधकारमय लगता है। लेकिन सत्य कुछ और ही है। यह जन्म हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मिला है। इसे नष्ट करना परमात्मा के प्रति अपराध है। आत्मज्ञान ही परम धर्म है।
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ॐ सहनाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांति शांति शांति !!
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

🌹🙏 गंगा दशहरा 🙏🌹 पर सभी श्रद्धालुओं का अभिनंदन ---

 हर साल ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को "गंगा दशहरा" का पावन पर्व मनाया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसी दिन माँ गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आईं थीं। आज गंगा दशहरा के पावन पर्व पर हमारे परिवार के अनेक सदस्यों ने हरिद्वार में गंगाजी में स्नान किया और विधिवत पूजा की। मेरे जाने का संयोग नहीं बैठा। गंगा जी में स्नान किए हुए भी बहुत वर्ष बीत गये हैं। जब भी माँ गंगा बुलायेंगी तभी जाना होगा। माँ गंगा से प्रार्थना है कि मेरे सभी पूर्वजों का उद्धार करे।

हरिद्वार में ही वर्षों पूर्व एक बार गंगा जी के जल में कमर तक के पानी में बैठकर पितृलोक के देवता भगवान अर्यमा का ध्यान किया था। उन्होने भी कृपा कर के अपनी उपस्थिती का आभास कराया और आशीर्वाद प्रदान किया। उनसे भी यही प्रार्थना की थी।
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माँ गंगा का अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में हुआ था। भागीरथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पृथ्वी पर माता गंगा को लाना चाहते थे। उन्होंने माँ गंगा की कठोर तपस्या की। भागीरथ ने उनसे धरती पर आने की प्रार्थना की। माँ गंगा ने बताया कि उनकी तेज धारा का प्रचंड वेग केवल भगवान शिव ही सहन कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। मां गंगा के प्रचंड वेग को भगवान शिव ने अपनी जटाओं में समा लिया और नियंत्रित वेग से गंगा को पृथ्वी पर प्रवाहित किया।
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देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले ॥ १ ॥
भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २ ॥
हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३ ॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४ ॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥ ५ ॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥ ६ ॥
तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥ ७ ॥
पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।
इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८ ॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥ ९ ॥
अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥ १० ॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥ ११ ॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२ ॥
येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥ १३ ॥
गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचितं गङ्गास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

हे प्रभु, मुझे आप में समर्पण करना सिखाओ ---

 हे प्रभु, मुझे आप में समर्पण करना सिखाओ ---

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हे परमात्मा, हे भगवन, मैं वास्तव में स्वयं को आप में पूर्णतः समर्पित करना चाहता हूँ। अब तक तो जो कुछ भी किया, लगता है कि वह सब एक ढोंग या दिखावा मात्र ही था। वास्तविकता का नहीं पता। अब स्वयं को और धोखा नहीं देना चाहता।
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मेरे ह्रदय की सारी कुटिलता का नाश करो। मैं स्वयं को खाली करना चाहता हूँ, स्वयं पर कई विचार लाद रखे हैं उन सब से मुक्त करो। अपने स्वरुप का बोध कराओ। चैतन्य में सिर्फ आपकी ही स्मृति रहे। आपका ही निरंतर सत्संग सदैव बना रहे।
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ह्रदय में दहकती इस अतृप्त प्यास को बुझाओ| आप ही मेरी गति हैं और आप ही मेरे आश्रय हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१६ जून २०२४

एक शाश्वत प्रश्न ---

 एक शाश्वत प्रश्न ---

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हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं -- फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है?
क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाये? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग यानि Short Cut है?
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बार बार मन को परमात्मा में लगाते हैं, पर यह मानता ही नहीं है। भाग कर बापस आ जाता है। अब इसका क्या करें? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनायी ही क्यों? ये सब शाश्वत प्रश्न हैं, कोई खाली बैठे की बेगार नहीं।
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है। न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है। अब तुम और छिप नहीं सकते। तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा। तुम निरंतर मेरे साथ भी हो पर फिर भी धुएँ की एक पतली सी दीवार मध्य में है जिसके कारण तुम्हारी विस्मृति कभी कभी हो जाती है। पूर्ण अभेदता हो। किसी भी तरह का कोई भेद ना हो। मेरा समर्पण पूर्ण हो। आपकी और मेरी दोनों की जय हो।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपाशंकर
१५ जून २०१५

जिन खोजा तीन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ---

 जिन खोजा तीन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ ---

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परमात्मा की भाषा "मौन" है। परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है। उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे, वह सत्य नहीं होगा। सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण हैं, बाकि सब अनुमान। परमात्मा हमेशा मौन है। यह उसका सहज स्वभाव है। उसके सारे नाम ज्ञानियों और भक्तों द्वारा दिए गए नाम हैं। मौन निर्विचार की स्थिति है। वह विचारों को सप्रयास रोकना नहीं, बल्कि साक्षीभाव से उनका अवलोकन है।
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पुनश्च: --- अब तक जो स्वाध्याय किया है वह पर्याप्त है इसी जीवन में परमात्मा के साक्षात्कार के लिए। और कुछ भी पढ़ने या सीखने की आवश्यकता मुझे नहीं है। नित्य कुछ न कुछ धूल जमती रहती है मन पर, जिसे हटाने के लिए थोड़ा-बहुत स्वाध्याय और साधना नित्य आवश्यक है। मैंने लिखा था कि हम इसी जीवन में ईश्वर को उपलब्ध हों, इसके अतिरिक्त मेरी रुचि अन्य किसी भी विषय में नहीं है। अतः अब आवश्यकता और अधिक गहरी डुबकी लगाने की है। सभी मित्रों से भी मेरा यही अनुरोध है कि निज विवेक के प्रकाश में जीवन में वे जो भी सर्वश्रेष्ठ कर सकते हैं, वह करें। मंगलमय शुभ-कामनाएँ॥
कृपा शंकर
१५ जून २०२५