एक शाश्वत प्रश्न ---
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हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं -- फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है?
क्या यह संभव है कि पूरे मन को ही संसार के गुण-दोषों से हटा कर परमात्मा अर्थात प्रभु में लगा दिया जाये? क्या इसका भी कोई लघुमार्ग यानि Short Cut है?
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बार बार मन को परमात्मा में लगाते हैं, पर यह मानता ही नहीं है। भाग कर बापस आ जाता है। अब इसका क्या करें? क्या यह भूल भगवान की ही है कि उसने ऐसी चीज बनायी ही क्यों? ये सब शाश्वत प्रश्न हैं, कोई खाली बैठे की बेगार नहीं।
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है। न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है। अब तुम और छिप नहीं सकते। तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा। तुम निरंतर मेरे साथ भी हो पर फिर भी धुएँ की एक पतली सी दीवार मध्य में है जिसके कारण तुम्हारी विस्मृति कभी कभी हो जाती है। पूर्ण अभेदता हो। किसी भी तरह का कोई भेद ना हो। मेरा समर्पण पूर्ण हो। आपकी और मेरी दोनों की जय हो।
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपाशंकर
१५ जून २०१५
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