Tuesday, 6 May 2025

योगदा के सिर्फ चार ही गुरू हैं ----

 योगदा के सिर्फ चार ही गुरू हैं ---- महावतार बाबाजी, श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्री युक्तेश्वर जी और परमहंस योगानन्दजी|

भगवान श्री कृष्ण तों साक्षात भगवान हैं|
जीसस क्राइस्ट तों ऊपर से थोपे हुए हैं| वे किसी भी रूप मे गुरू नहीं हैं|
योगदा सत्संग को कुटिलता से सेल्फ रिअलाएज़शन फेलोशिप चर्च ने खरीद लिया धीरे धीरे ईसाईयत थोप रहे हैं| यहाँ के मालिक अमेरिकन लोग हैं|
Once, a seeker asked me why Lord Krushna is worshipped along with Jesus in one organization, even if the founder was a Hindu saint?
The answer is straightforward. The saint was given the mission to preach in the west, so just to impress the Christian folk there, he went for a psychological appeasement and told about the teachings of bible and kept the photograph of Jesus but he tried to teach all the those western people who came to learn sadhana about Vedic Sanatan Dharma, hence he gave them Bhartiya attire, asked them to read Sanskrit, but alas his dsiciples could not understand the implied meaning of the master's action. So that organization is more like a Christian Misssionary with no spiritual base !

वर्त्तमान में जैसा वातावरण है उसमें घर पर रहकर साधना करना असम्भव नहीं तो अत्यंत कष्टप्रद है ---

 वर्त्तमान में जैसा वातावरण है उसमें घर पर रहकर साधना करना असम्भव नहीं तो अत्यंत कष्टप्रद है ---

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वर्त्तमान में जैसा वातावरण है उसमें घर पर रहकर साधना करना असम्भव नहीं तो अत्यंत कष्टप्रद है| एक बार युवावस्था में ईश्वर की एक झलक मिल जाये उसी समय व्यक्ति को गृहत्याग कर देना चाहिए| बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, लाखों में कोई एक ऐसा परिवार होगा जहाँ पति-पत्नी दोनों साधक हों| ऐसा परिवार धन्य हैं| वे घर में रहकर भी विरक्त हैं| ऐसे ही परिवारों में ही महान आत्माएं जन्म लेती हैं| आज के समाज का वातावरण अत्यंत प्रदूषित और विषाक्त है जहाँ भक्ति करना असम्भव है| कोई कर सकता है तो वह धन्य है|
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मैं इसे पूर्णरूपेण मानता हूँ| सन १९८५ में मैं भी गृह त्याग कर सन्यासी बनना चाहता था| मैंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र हेतु सेवाशर्तों के अनुसार तीन माह का नोटिस भी दे दिया था| मेरी कम्पनी ने जहां मैं नौकरी करता था मुझे तीन माह के लिए कम्पनी कार्य हेतु सिंगापूर, चीन, जापान और अमेरिका के प्रवास पर भेज दिया और मेरी इतनी दिमाग की धुलाई की कि मुझे त्याग पत्र बापस लेना पडा| मुझे चार माह से अधिक विदेश में ही रखा, भारत ही नहीं आने दिया| फिर सन १९८७ में मैंने फिर सन्यासी बनने के लिए प्रयास किया पर वहाँ मेरी स्वयं की दुर्बलताएं सामने आ गईं| यदि में तीन माह के मेरे वेतन का मोह त्याग देता तो ऐसी नौबत ही नहीं आती| पर व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाने के लिए तरह तरह के तर्क और बहाने ढूंढ लेता है| मुझे विफलताएं मिलीं सिर्फ इसीलिए कि मैं मोह को नहीं छोड़ पाया| तब मैंने यह अनुभूत किया कि सन्यास एक स्वभाविक घटना है जो जीवन में घटित होती है, न कि संकल्प| यही सोचता रहा कि जब दुबारा वैराग्य आ जाएगा तो पीछे मुड़कर नहीं देखूँगा| पर वैसा वैराग्य दुबारा आया ही नहीं| ऐसी घटना जीवन एक-दो बार ही घटित होती है उसी समय व्यक्ति को कठोर निर्णय ले लेना चाहिए|
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सन २००३ मैं किसी बात पर नियोक्ताओं से नाराज होकर घर आ गया और दो वर्ष तक अवैतनिक अवकाश पर रहा| फिर त्यागपत्र ही भिजवा दिया| घरवाले मुझे मूर्ख समझते है और कहते है कि तुझे "माया मिली ना राम|" फिर बापस मैंने किसी कि नौकरी की ही नहीं|
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मेरे एक अति घनिष्ठ मित्र है १९६८ बेच के IAS सेवानिवृत अधिकारी| पत्नी उनको छोड़ कर चली गयी थी| धार्मिक साहित्य पढ़कर वैराग्य हुआ और वैरागी बन गए| अपनी करोड़ों की भूमि में गुरुकुल चलाने की योजना बनाई| पर समय के प्रभाव से वहीं बैठे हैं| बच्चे उनके अमेरिका में बस गये हैं| बुढ़ापे में एक युवा स्त्री से विवाह कर लिया और अपनी अनमोल संपत्ति के मोह से कहीं नहीं जाते| विद्वता और तर्क शक्ति उनकी इतनी प्रखर है कि कोई उनके सामने टिक नहीं सकता| सिर्फ संपत्ति के मोह के सामने उनका वैराग्य विफल हो गया|
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मेरे एक परम मित्र हैं जो उड़ीसा में रहते हैं| सरकारी सेवा से निवृत होने से पूर्व अपने परिवार की व्यवस्था कर दी और स्वयं के लिए एक आश्रम बनवा लिया| सेवा निवृत होते ही वैरागी साधू बन गए| पूर्वाश्रम की उनकी पत्नी और पुत्रवधु ने उनकी नाक में दम कर रखा है| वे चाहती हैं कि महात्मा जी अपनी संपत्ति उनके नाम कर दें| कहीं किसी चेले को ना दे दें| पर संपत्ति के मोह से वे कष्ट पाते हुए भी वहीँ जमे हुए हैं|
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मेरे एक और परम मित्र जो अत्यंत समृद्ध परिवार से हैं और प्रखर अर्थशास्त्री रहे हैं| उनको भी वैराग्य हो गया| पर विधिवत रूप से उन्होंने किसे भी सम्प्रदाय की दीक्षा नहीं ली| आश्रम बना कर स्वतंत्र रहते है| खूब साधना करते है और अनेक बच्चों को खूब धार्मिक संस्कार दिए हैं| उनके द्वारा तैयार किये हुए बच्चे सचमुच भारत के भविष्य हैं|
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"सुख सम्पति परिवार बड़ाई| सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई||
ये सब रामभक्ति के बाधक|कहहिं संत तव पद अवराधक||"
जय श्री राम ॥
७ मई २०१३

आने वाला समय बड़ा विकट है, जिसमें परमात्मा भी उन्हीं की रक्षा करेंगे जो स्वधर्म पर अडिग रहेंगे ---

धर्म का आचरण ही धर्म की रक्षा है। जो धर्म का आचरण करेंगे, धर्म उन्हीं की रक्षा करेगा। आने वाला समय बड़ा विकट है, जिसमें परमात्मा भी उन्हीं की रक्षा करेंगे जो स्वधर्म पर अडिग रहेंगे।

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हमारा स्वधर्म है कि हम अपने निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करें। आरंभ में हमारा हर कार्य परमात्मा की प्रसन्नता के लिए हो, फिर परमात्मा को ही अपने स्वयं के माध्यम से कार्य करने दें। हर समय उनकी स्मृति रहे। यदि भूल जाएँ तो याद आते ही फिर स्मरण आरंभ कर दें। हमारा हर कार्य, हमारा हर क्षण, हमारी हर साँस परमात्मा को समर्पित हो। भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥"
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भगवान कैसे मिलेंगे? भगवान स्वयं कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६.३०॥"
अब और क्या चाहिए? चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, आपका बाल भी बांका नहीं होगा। भगवान का हर समय स्मरण रखें, फिर वे मार्गदर्शन करेंगे। यदि मरना भी पड़े तो स्वधर्म में यानि भगवान का स्मरण करते करते ही मरें।
आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ मई २०२१

जो अन्य मतावलंबी हिन्दू बनना चाहते हैं, उन्हें हिन्दू धर्म में सप्रेम सादर स्वीकार कीजिए ---

 जो अन्य मतावलंबी हिन्दू बनना चाहते हैं, उन्हें हिन्दू धर्म में सप्रेम सादर स्वीकार कीजिए। विश्व में कहीं भी जो कोई स्वयं को हिन्दू मानता है, उसे हमें भी हिन्दू मानना चाहिये। जिन के पूर्वज हिन्दू थे और जिन्हें बलात् अपना धर्म छोड़ना पड़ा, उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे घर-बापसी कर अपने पूर्वजों का धर्म स्वीकार करें। घर-बापसी करने वालों का स्वागत करना चाहिए।

हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र क्या है? ---
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(१) हिन्दू :-- जो भी व्यक्ति आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह पृथ्वी के किसी भी भाग पर किसी भी देश में रहता है|
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(२) हिन्दुत्व :-- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करता है| हिन्दुत्व है हिंसा से दूरी| मनुष्य का लोभ और अहंकार हिंसा हैं, जिनसे मुक्ति परमधर्म अहिंसा है|
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(३) हिन्दू राष्ट्र :-- 'हिन्दू राष्ट्र' ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे पृथ्वी के किसी भी भाग में रहते हों|
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"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्॥"
"सर्वेषां मङ्गलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्॥"
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।
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इन्हीं मंगलकामनओं के साथ आपका दिन मंगलमय हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ मई २०२१

सदैव हरिः नाम जपते रहो, कभी कुछ भी अमंगल नहीं होगा।

सदैव हरिः नाम जपते रहो, कभी कुछ भी अमंगल नहीं होगा। भगवान श्रीहरिः सर्वत्र हैं, सदा उनकी चेतना में रहो। वे सब की रक्षा कर रहे हैं। निरीह मूक पशु-पक्षी और सभी प्राणी भी उनकी ही संतान हैं। वे सभी का कल्याण करते हैं। .

"वेदान्त के ब्रह्म ही साकार रूप में प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हैं, वे ही योगियों के परमशिव और पुरुषोत्तम हैं, और वे ही परमेष्ठि परात्पर सद्गुरु हैं| तत्व रूप से कोई भेद नहीं है|"
"आदि अंत कोउ जासु न पावा| मति अनुमानि निगम अस गावा||
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना| कर बिनु करम करइ बिधि नाना||
आनन रहित सकल रस भोगी| बिनु बानी बकता बड़ जोगी||
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा| ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा||
असि सब भाँति अलौकिक करनी| महिमा जासु जाइ नहिं बरनी||"
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समय बहुत अधिक खराब चल रहा है। चारों ओर अधर्म का बोलबाला है। इस अधर्ममय वातावरण में हमारी रक्षा श्रीहरिः ही कर सकते हैं। 🔥🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹🔥
कृपा शंकर
७ मई २०२२

सत्संग सत्संग सत्संग ---

 

सत्संग सत्संग सत्संग
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भारत में और भारत से बाहर भी मेरे अनेक ऐसे मित्र हैं जिनको परमात्मा की अभीप्सा के अतिरिक्त किसी भी प्रकार की आकांक्षा या कामना नहीं है। लेकिन परमात्मा ने हम सब को बहुत दूर दूर स्थापित कर रखा है। मेरा उनसे जुड़ाव सिर्फ परमात्मा में ही है। अब उनसे मिलना नहीं होता और आगे कभी होगा तो परमात्मा में ही होगा। किसी से मिलने की अब इच्छा भी नहीं है। परमात्मा निज जीवन में पूर्णतः व्यक्त हों, और सिर्फ उन्हीं की चेतना रहे। किसी भी तरह की कामना या आकांक्षा का जन्म ही न हो।
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मैं अब ऐसी कोई भी साधना नहीं करता जहाँ भोग का प्रलोभन है। सिर्फ दो ही कमियाँ मुझ में हैं। पहली कमी तो है -- प्रमाद। दूसरी है -- दीर्घसूत्रता। प्रमाद को तो भगवान सनतकुमार ने प्रत्यक्ष मृत्यु बताया हैं -- "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि"। भगवान सनतकुमार को ब्रह्मविद्या का प्रथम आचार्य बताया जाता है, क्योंकि ब्रह्मज्ञान उन्होने सर्वप्रथम अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। उपनिषदों में ब्रह्मविद्या को "भूमा" कहा गया है।
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अपने "अच्युत" स्वरूप को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है, और इसी का नाम "मृत्यु" है। जिस क्षण अपने अच्युत भाव से च्युत हुए उसी क्षण हम मर चुके हैं। यह परम सत्य है। आध्यात्मिक मार्ग पर प्रमाद ही हमारा सब से बड़ा शत्रु है| उसी के कारण हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य नामक -- नर्क के छः द्वारों में से किसी एक में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं।
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आत्मज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है, और यही भूमा-विद्या है। इस दिशा में जो अविचल और निरंतर अग्रसर है, वही महावीर है व सभी वीरों में श्रेष्ठ है। जब तक मन में राग-द्वेष है, तब तक जप, तप, ध्यान, पूजा-पाठ आदि का कोई लाभ नहीं है, सब बेकार हैं। भगवान और गुरु महाराज सदा हमारी रक्षा करें। हम स्थितप्रज्ञ बनें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
श्रीरामचन्द्रचरणो शरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ मई २०२४

फेसबुक से सकारात्मक लाभ ....

 फेसबुक से सकारात्मक लाभ ....

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लगभग साढे चार वर्ष पूर्व मैनें मेरे एक आध्यात्मिक मित्र के आग्रह पर फेसबुक पर खाता खोला था| स्वयं को व्यक्त करने की एक तड़प थी अवचेतन मन में जो इस मंच पर आने से पूर्ण हुई है|
आरम्भ में कुछ दिन तो समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिए| पर धीरे धीरे समान विचारों के देश विदेश के अनेक बहुत ही अच्छे अच्छे मित्र मिलने लगे जिनसे बहुतअधिक प्रोत्साहन मिला|
अनेक विद्वान् मनीषियों, विचारकों, साधू-संतों व भक्तिमती विदुषी मातृशक्ति से भी परिचय और आत्मीयता हुई जो अन्यथा नहीं हो सकती थी| समान विचारों के इतने मित्र भी अन्यथा नहीं मिल सकते थे|
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कुल मिलाकर मैं इस मंच से पूर्ण संतुष्ट हूँ| एक बात तो निश्चित है कि फेसबुक मेरे लिए एक उपकरण है, मैं इसका उपकरण या दास नहीं| इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दूँगा|
मैं सिर्फ राष्ट्रवादी व आध्यात्मिक लोगों से ही संपर्क रखता हूँ|
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मैं अपने सभी मित्रों, शुभचिंतकों और आत्मीयजनों का आभारी हूँ| आप सब मेरे निजात्मगण हैं|
आप सब में हृदयस्थ भगवान नारायण को प्रणाम !
ॐ नमः शिवाय | जय श्रीराम !
भारत माता की जय !
६ मई २०१६

हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम ---

 हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम ---

जब भी समय मिले, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। आध्यात्म की परावस्था में रहें। सारा जगत ही ब्रह्ममय है। किसी भी परिस्थिति में परमात्मा की उपासना न छोड़ें। पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है। कहीं ऐसा न हो कि हमारी उपेक्षा से परमात्मा को पाने कीअभीप्सा ही समाप्त हो जाए।

राष्ट्र की रक्षा हमारा धर्म है। धर्म की रक्षा उसके पालन से ही होगी। तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे। अपने स्वधर्म पर हम अडिग रहें।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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एक नए युग का आरंभ हो चुका है। गत दो सहस्त्र वर्षों से संतुलन आसुरी शक्तियों के पक्ष में था। अब संतुलन दैवीय शक्तियों के पक्ष में हो गया है। भारत से असत्य और अंधकार की शक्तियों का शनैः शनैः ह्रास सुनिश्चित है। हम अपने स्वधर्म पर डटे रहें और असत्य का सामना करते हुए सत्य को राष्ट्र व निज जीवन में अवतरित करें। "हम एक परमवैभवशाली नए भारत का निर्माण करेंगे।"
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ मई २०२०

बुद्ध ने कभी कोई धर्म अलग से नहीं चलाया। उनके उपदेश सनातन धर्म के ही उपदेश थे ---

 बुद्ध ने कभी कोई धर्म अलग से नहीं चलाया। उनके उपदेश सनातन धर्म के ही उपदेश थे

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कल ५ मई २०२३ को बुद्ध पूर्णिमा थी। सिद्धांत रूप से बौद्ध मत बहुत अच्छा होगा, लेकिन आज तक जीवन में मुझे कोई भी ऐसा बौद्ध मतानुयायी नहीं मिला है जिससे मैं प्रभावित हुआ हूँ। कई बौद्ध देशों का भ्रमण मैंने किया है जैसे सिंहल द्वीप (श्रीलंका), श्याम (थाइलेंड), दक्षिण कोरिया, जापान, चीन और ताईवान। वहाँ के कुछ अनुभव भी हैं।
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एक तो सारे बौद्ध मतानुयायी गोमांस का भक्षण करते हैं। कोरिया और चीन में तो कुत्ते का मांस भी खाते हैं। जापान के लोग कहने को तो बौद्ध मतानुयायी हैं, लेकिन उनका इतिहास देखो तो उनके आचरण में अत्यधिक हिंसा ही हिंसा और यौनाचार ही यौनाचार की प्रधानता रही है। व्यावहारिक रूप से बौद्ध मत इस समय विश्व में कहीं भी नहीं दिखाई दे रहा है। सब नाम के ही बौद्ध हैं। श्रीलंका के बौद्ध गुरु, हिंदुओं से पता नहीं क्यों द्वेष रखते हैं? जब कि बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार सारे विश्व में हिन्दू ब्राह्मणों ने ही किया था।
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श्रीलंका, थाइलेंड, म्यानमार व अन्य दक्षिणपूर्वी देशों में हीनयान बौद्धमत है। चीन, ताइवान, कोरिया, मंगोलिया और जापान में महायान बौद्धमत है। तिब्बत में वज्रयान बौद्धमत है। इस्लाम के आगमन से पूर्व पूरा मध्य एशिया, अफगानिस्तान और तुर्की भी बौद्ध महायान मत के अनुयायी थे।
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बुद्ध के देहावसान से पाँच सौ वर्षों तक बुद्ध की शिक्षाएं कहीं भी नहीं लिखी गई थीं। उनके पाँच सौ वर्षों के बाद श्रीलंका के अनुराधापुर में एक सभा हुई थी जिसमें हुई चर्चाओं को पाली भाषा में लिपिबद्ध किया गया। जिन्होंने उन चर्चाओं को स्वीकार किया वे हीनयान कहलाये, और जिन्होंने उन्हे अस्वीकार किया वे महायान कहलाये। वज्रयान बौद्ध मत तो हिन्दू धर्म की दस महाविद्याओं में से एक छिन्नमस्ता देवी की आराधना का अपभ्रन्स और परिवर्तित विकृत रूप है। उनके ध्यान मंत्र "ॐ मणिपद्मे हुं" का अर्थ तो यही है। ॐ ईश्वर का वाचक है, हुं छिन्नमस्ता का बीजमंत्र है जिनका निवास मणिपुर चक्र के पद्म में है। यह मंत्र उनका ध्यानमंत्र है, जिसका अर्थ है - मैं मणिपुर पद्म (सूक्ष्म देह में नाभि के पीछे का भाग) में भगवती छिन्नमस्ता का ध्यान करता हूँ। तिब्बत के लामा लोग हिमाचल के ऊना जिले में स्थित चिंत्यपूर्णी मंदिर में बहुत आते रहे हैं। यह माँ छिन्नमस्ता का ही मंदिर है। सूक्ष्म देह में सुषुम्ना की उपनाड़ी वज्रा में साधना के कारण यह वज़्रयान कहलाता है।
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चीन में पढ़ाया जाता है कि चीन में बौद्ध मत सन ००६७ ई. में भारत से कश्यप मातंग और धर्मारण्य नाम के दो ब्राह्मण लाए थे। लेकिन व्यावहारिक रूप से चीन के सबसे प्रतापी सम्राट कुबलई खान तक चीन में हिन्दू धर्म ही था। कूबलई खान का दादा चंगेज़ खान एक महान हिन्दू सम्राट था। उसके नाम का मंगोलियन भाषा में सही उच्चारण "गंगेश हान" है। उसका वास्तविक नाम गंगेश हान था। श्रीकृष्ण के ही एक नाम "कान्ह" का प्रचलन उस क्षेत्र में खूब था। कान्ह का अपभ्रन्स "हान" हुआ जो एक अति सम्माननीय उपाधि थी। "खान" शब्द, "हान" का ही अपभ्रन्स है।
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सम्राट कूबलई खान ने बौद्ध मत स्वीकार कर लिया था। उन्होंने ही प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति की थी। उनका राज्य उत्तर में सइबेरिया की बाइकाल झील से दक्षिण में विएतनाम, और पूर्व में कोरिया से पश्चिम में कश्यप सागर (पृथ्वी का २०% भाग) तक था। उनके प्रभाव से बौद्ध मत उस क्षेत्र में खूब फैला।
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ईसा की पाँचवी या छठी सदी में बोधिधर्म नाम के एक साधु भारत से चीन के हुनान प्रांत के शाओलिन मंदिर में गए थे। वहाँ कुछ समय रहने के पश्चात वे जापान गए। जापान में बौद्ध मत उन बोधिधर्म नाम के साधु ने ही फैलाया।
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भारत से बौद्ध मत के ब्राह्मण हिन्दू प्रचारक जब दक्षिण-पूर्व एशिया में गए तो उन्होंने एक विशाल नदी को देखा, जिसका नाम उन्होंने "माँ गंगा" रखा। उस नदी "माँ गंगा" का ही नाम अपभ्रन्स होते होते "मेकोन्ग" नदी पड़ गया जो उस क्षेत्र की जीवन रेखा है।
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एक बार दक्षिण कोरिया में मैं एक बहुत ऊंचे पर्वत पर स्थित एक बौद्ध मठ में घूमने गया। साथ में एक स्थानीय मित्र को ले गया जिसे अंग्रेजी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। उसके माध्यम से वहाँ के प्रमुख साधु से खूब बातचीत की। बहुत भले व्यक्ति थे जिन्होंने मेरा खूब सत्कार किया। उन्होंने मुझे पढ़ने को कोरियन भाषा में कुछ साहित्य भी दिया जो मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर था। वहाँ अनेक साधु वहाँ की भाषा में कुछ मंत्रों का पाठ कर रहे थे। मैंने बड़े ध्यान से उन मंत्रों को सुना। बीच बीच में कुछ संस्कृत के शब्द भी थे।
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भारत के जो नव बौद्ध हैं, वे हर समय हिंदुओं की विशेष कर के ब्राह्मणों की तो निंदा ही निंदा करते रहते हैं। क्या परनिंदा और द्वेष ही उनका धर्म है? बुद्ध ने तो कभी भी कहीं पर भी द्वेष और परनिंदा के उपदेश नहीं दिए हैं। जो भी है और जैसे भी है, मैं तो सभी की प्रशंसा और सभी को नमन ही करता हूँ। सभी में परमात्मा की अभिव्यक्ति हो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ मई २०२३
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पुनश्च: --- संस्कृत का "कैवल्य" शब्द अपभ्रन्स होते होते चीनी भाषा में कुबलई हो गया। चीन के अंतिम महान हिन्दू सम्राट कूबलई खान का वास्तविक नाम "कैवल्य हान" था। उन्होंने बौद्धों को प्रश्रय दिया था, और स्वयं भी बौद्ध हो गए थे। उनके पश्चात चीन से मंगोल साम्राज्य ही नष्ट हो गया था।