Tuesday, 17 June 2025

जब मृत्यु को हम अपने समक्ष खड़ा पायें, तब क्या करे? ---

 राजा परीक्षित भाग्यशाली था जिसे शुकदेव जैसे आचार्य मिले। सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते। यह जानने की मेरी रुचि नहीं है कि मृत्यु के बाद क्या होता है। उस समय तो कुछ भी हमारे नियंत्रण में नहीं होता। जो होना है सो हमारे कर्मफलानुसार ही होता है। अतः यह प्रश्न ही असंगत है।

असली यानि सही प्रश्न तो यह है कि जब मृत्यु के देवता प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने खड़े हों, तब हम क्या करें? उस क्षण के लिए जीवन भर एक दीर्घकाल तक तैयारी करनी पड़ती है।
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पूर्ण भक्ति से भगवान में स्वयं का समर्पण करने की साधना तो नियमित रूप से करनी ही चाहिये। भगवान में स्वयं को समर्पित करने से अधिक हम कुछ भी नहीं कर सकते। फिर तो यह भगवान के हाथ में है कि वे हमें ठुकरा दें या प्यार करें। संकट के समय मित्र ही काम आता है। भगवान से मित्रता रखेंगे तो मित्र-रूप में वे ही काम आयेंगे।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार मूर्धा में ओंकार के जप का जीवन भर एक साधनात्मक अभ्यास करना होगा। तारक मंत्र "रां" की शरण लें। महात्माओं के सत्संग में सुना है कि "राम्" और "ॐ" में कोई अंतर नहीं है। दोनों का फल एक ही है। एक विशेष विधि से इस मंत्र का श्रवण करते रहें। यही इसका अनुसंधान है। यह भगवान की कृपा से ही समझ में आने वाली बात है।
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जब भी हम सांस लेते हैं, तब घनीभूत प्राण-ऊर्जा मूलाधारचक्र से ऊपर उठकर सुषुम्ना मार्ग से सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रारचक्र तक स्वभाविक रूप से जाती है। फिर जब सांस छोड़ते हैं तब यही प्राण-ऊर्जा सहस्त्रारचक्र से बापस नीचे सभी चक्रों को जागृत करती हुई लौटती है। ऊपर जाते समय मणिपुरचक्र को जब यह आहत करती है तब वहाँ एक बड़ा शब्द - "रं" - जुड़ जाता है। आज्ञाचक्र में वहाँ से निरंतर निःसृत होती हुई प्रणव की ध्वनि "ॐ" जब उसमें जुड़ जाती है, तब "रं" और "ॐ" दोनों मिलकर "राम्" हो जाते हैं, और स्पष्ट सुनाई देते हैं। एक दिन में ये नहीं सुनाई देंगे। कई महीनों तक अभ्यास करना पड़ता है। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा से मानसिक जप करना पड़ता है। फिर यह हमारा स्वभाव बन जाता है।
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भ्रूमध्य ही हरिःद्वार है, यानि राम जी का द्वार है। मृत्यु के समय भगवान शिव अपने भक्तों को तारक मंत्र "राम्" की दीक्षा देते हैं। भ्रूमध्य में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते ब्रह्मरंध्र के मार्ग से देह त्याग कर देते हैं , उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन है। यदि आप संसार-सागर को पार कर इसी जीवनकाल में मोक्ष चाहते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न १० श्लोकों का गहनतम स्वाध्याय व अनुसरण करें।
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
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भगवान आप की रक्षा करें। भगवान को समर्पित होंगे तो प्रकृति की प्रत्येक शक्ति आपका सहयोग करने को बाध्य है। शरीर का ध्यान रखो पर निर्भरता सिर्फ परमात्मा पर ही रहे। उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दो जो सदा नकारात्मक बातें करते हैं। आपका कल्याण हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२४

कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं ---

 कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं ---

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अपनी सामान्य संसारिक चेतना में मेरे मन में अनेक प्रश्न जन्म लेते हैं, जिनका मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता। लेकिन उच्चतर केन्द्रों में वेदान्त की चेतना जागृत हो जाती है, जिसमें वे सारे प्रश्न और सारे उत्तर महत्त्वहीन होकर तिरोहित हो जाते हैं। अतः निज चेतना को एक निश्चित बिन्दु से नीचे नहीं आने देना चाहिए। इसका अभ्यास बहुत आवश्यक है।
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अब किसी भी तरह के वाद-विवाद का समय नहीं है। धर्म-अधर्म के चिंतन का भी समय नहीं है, क्योंकि भगवान से उधार मांगा हुआ जीवन जी रहा हूँ। किसी भी तरह का अनात्म चिंतन होने ही न पाये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२३

परमशिव को नमन !!

  परमशिव को नमन ---

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"पीठं यस्या धरित्री जलधरकलशं लिङ्गमाकाशमूर्तिम् ,
नक्षत्रं पुष्पमाल्यं ग्रहगणकुसुमं चन्द्रवह्न्यर्कनेत्रम्।
कुक्षिः सप्त: समुद्रं भुजगिरिशिखरं सप्तपातालपादम्
वेदं वक्त्रं षडङ्गं दशदिश वसनं दिव्यलिङ्गं नमामि॥"
अर्थात् - पृथ्वी जिन का आसन है, जल से भरे हुए मेघ जिन के कलश हैं, सारे नक्षत्र जिन की पुष्प माला है, ग्रह गण जिनके कुसुम हैं, चन्द्र सूर्य एवं अग्नि जिन के नेत्र हैं , सातों समुद्र जिन के पेट हैं , पर्वतों के शिखर जिन के हाथ हैं , सातों पाताल जिन के पैर हैं, वेद और षड़ङ्ग जिन के मुख हैं, तथा दशों दिशायें जिन के वस्त्र हैं -- ऐसे आकाश की तरह मूर्तिमान दिव्य लिङ्ग को में नमस्कार करता हूँ।
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शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है। सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है। स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे -- तुरीय चेतना -- में विलय हो जाता है। उस तुरीय चेतना का प्रतीक है -- शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मयोनी में निरंतर जागृत रहता है. उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है. लिंग का शाब्दिक शास्त्रीय अर्थ है विलीन होना। शिवत्व में विलीन होने का प्रतीक है शिवलिंग।
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शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है। यही हमारा लक्ष्य है। शिव का अर्थ है -- कल्याणकारी।
शंभू का अर्थ है -- मंगलदायक।
शंकर का अर्थ है -- शमनकारी और आनंददायक।
ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है। इनमें कोई भेद नहीं है।
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पञ्चमुखी महादेव -- योगियों को गहन ध्यान में कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है। वह पञ्चकोणीय नक्षत्र पंचमुखी महादेव है। गहन ध्यान में योगीगण उसी का ध्यान करते हैं। ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है -- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। भगवान शिव पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले है। शिवपुराण के अनुसार ये पाँच मुख हैं -- ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात।
भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है जो आकाश तत्व के अधिपति हैं। इसका अर्थ है सबके स्वामी|
पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जो वायु तत्व के अधिपति हैं।दक्षिणी मुख का नाम 'अघोर' है जो अग्नितत्व के अधिपति हैं।उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो जल तत्व के अधिपति हैं।
पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है, जो पृथ्वी तत्व के अधिपति हैं।
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भगवान शिव पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति हैं इसलिए ये 'भूतनाथ' कहलाते हैं। भगवान शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' कहलाते है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण -- ये पाँचों मिल कर काल कहलाते हैं। ये काल के पाँच अंग हैं।
शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर| -- ये पाँचों मिलकर शिव-परिवार कहलाते हैं। नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं। शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र -- 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है। साधना में प्रयुक्त रुद्राक्ष भी सामान्यत: पंचमुखी ही होता है।
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जो परम कल्याणकारक हैं वे परमशिव हैं। परमशिव एक अनुभूति है। ब्रह्मरंध्र से परे परमात्मा की विराट अनंतता का सचेतन बोध परमशिव की अनुभूति है। तब साधक स्वयं ही परमशिव हो जाता है। भगवान परमशिव दुःखतस्कर हैं। तस्कर का अर्थ होता है -- जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है। भगवान परमशिव अपने भक्तों के सारे दुःख और कष्ट हर लेते हैं। वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं। जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं।
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परमात्मा के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। ब्रह्म शब्द का अर्थ है -- जिनका निरंतर विस्तार हो रहा है, जो सर्वत्र व्याप्त हैं, वे ब्रह्म हैं।
सूक्ष्म देह के भीतर सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक शिवलिंग तो मूलाधार चक्र के बिलकुल ऊपर है। मूलाधार से सहस्त्रार तक एक ओंकारमय दीर्घ शिवलिंग है। मेरुदंड में सुषुम्ना के सारे चक्र उसी में हैं।
एक शिवलिंग आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में है। मानसिक रूप से उसी में रहते हुए परमशिव अर्थात ईश्वर की कल्याणकारी ज्योतिर्मय सर्वव्यापकता का ध्यान किया जाता है। ध्यान भ्रूमध्य से आरम्भ करते हुए सहस्त्रार पर ले जाएँ और श्रीगुरुचरणों में आश्रय लेते हुए वहीं से करें।
सम्पूर्ण अनंतता से परे मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव हैं, जिनकी चेतना ही मेरा अस्तित्व है। ॐ शिव ! ॐ तत्सत् !
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ ॐ नमःशिवाय॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१७ जून २०२१

जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही "मुनि" हैं ---

 जिन्होनें मौन को साध लिया वे ही "मुनि" हैं ---

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सारे नाम और सारे आकार परमात्मा के हैं। मानसिक रूप से जप करते हुए हम निःशब्द मौन हो जाते हैं। इस मौन को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में मानस-तप बतलाया है --
"मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७:१६॥"
अर्थात् - मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन आत्मसंयम और अन्त:करण की शुद्धि यह सब मानस तप कहलाता है॥
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जीवन का मूल उद्देश्य है -- शिवत्व की प्राप्ति। ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ -- शिव बनकर शिव की आराधना करो। प्रश्न है -- हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर स्वयं को ही ढूँढ़ना होगा। जो मैंने पाया है, आवश्यक नहीं है कि वह आप के भी अनुकूल हो। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में इस विषय पर खूब चर्चा हुई है। लेकिन अनुसंधान तो स्वयं को ही करना होगा।
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एक मंत्र होता है कामना की पूर्ति करने वाला, और एक मंत्र होता है कामना को नष्ट करने वाला। दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। जब तक कोई कामना, आकांक्षा व इच्छा होती है, तब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। परमात्मा की अभीप्सा होती है, न कि आकांक्षा।
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जहाँ सभी आकांक्षाओं का स्रोत ही सूख जाये, जहाँ से व्यक्ति पूर्ण निष्काम हो जाता है, वहीं से परमात्मा की उपासना का आरंभ होता है। जैसे अंधकार और प्रकाश साथ साथ नहीं रह सकते, वैसे ही योग और भोग भी साथ-साथ नहीं हो सकते। कुछ पाने की कामना का ही नाश करना होगा। परमात्मा को उपलब्ध होने के लिए पृथकता के बोध का समर्पण ही होता है, न कि कुछ प्राप्ति। प्राप्त करने को तो कुछ भी नहीं है, सब कुछ हम स्वयं हैं। इस विषय का गंभीरता से चिंतन कीजिये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जून २०२४
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पुनश्च: ---- भक्ति निष्काम और अनन्य होनी चाहिए। निष्काम और अनन्य भक्ति को ही भगवान श्रीकृष्ण ने "अव्यभिचारिणी भक्ति" कहा है। आरंभ में तो यह भाव हो कि सब कुछ परमात्मा हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। धीरे धीरे आप परमात्मा के साथ एक हो जायें, और यह भाव करें कि मैं ही सर्वस्व परमात्मा हूँ, और मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है। भगवान से अन्य किसी भी आकांक्षा को भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् - अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥