राजा परीक्षित भाग्यशाली था जिसे शुकदेव जैसे आचार्य मिले। सभी इतने भाग्यशाली नहीं होते। यह जानने की मेरी रुचि नहीं है कि मृत्यु के बाद क्या होता है। उस समय तो कुछ भी हमारे नियंत्रण में नहीं होता। जो होना है सो हमारे कर्मफलानुसार ही होता है। अतः यह प्रश्न ही असंगत है।
असली यानि सही प्रश्न तो यह है कि जब मृत्यु के देवता प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने खड़े हों, तब हम क्या करें? उस क्षण के लिए जीवन भर एक दीर्घकाल तक तैयारी करनी पड़ती है।
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पूर्ण भक्ति से भगवान में स्वयं का समर्पण करने की साधना तो नियमित रूप से करनी ही चाहिये। भगवान में स्वयं को समर्पित करने से अधिक हम कुछ भी नहीं कर सकते। फिर तो यह भगवान के हाथ में है कि वे हमें ठुकरा दें या प्यार करें। संकट के समय मित्र ही काम आता है। भगवान से मित्रता रखेंगे तो मित्र-रूप में वे ही काम आयेंगे।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार मूर्धा में ओंकार के जप का जीवन भर एक साधनात्मक अभ्यास करना होगा। तारक मंत्र "रां" की शरण लें। महात्माओं के सत्संग में सुना है कि "राम्" और "ॐ" में कोई अंतर नहीं है। दोनों का फल एक ही है। एक विशेष विधि से इस मंत्र का श्रवण करते रहें। यही इसका अनुसंधान है। यह भगवान की कृपा से ही समझ में आने वाली बात है।
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जब भी हम सांस लेते हैं, तब घनीभूत प्राण-ऊर्जा मूलाधारचक्र से ऊपर उठकर सुषुम्ना मार्ग से सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रारचक्र तक स्वभाविक रूप से जाती है। फिर जब सांस छोड़ते हैं तब यही प्राण-ऊर्जा सहस्त्रारचक्र से बापस नीचे सभी चक्रों को जागृत करती हुई लौटती है। ऊपर जाते समय मणिपुरचक्र को जब यह आहत करती है तब वहाँ एक बड़ा शब्द - "रं" - जुड़ जाता है। आज्ञाचक्र में वहाँ से निरंतर निःसृत होती हुई प्रणव की ध्वनि "ॐ" जब उसमें जुड़ जाती है, तब "रं" और "ॐ" दोनों मिलकर "राम्" हो जाते हैं, और स्पष्ट सुनाई देते हैं। एक दिन में ये नहीं सुनाई देंगे। कई महीनों तक अभ्यास करना पड़ता है। पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा से मानसिक जप करना पड़ता है। फिर यह हमारा स्वभाव बन जाता है।
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भ्रूमध्य ही हरिःद्वार है, यानि राम जी का द्वार है। मृत्यु के समय भगवान शिव अपने भक्तों को तारक मंत्र "राम्" की दीक्षा देते हैं। भ्रूमध्य में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते ब्रह्मरंध्र के मार्ग से देह त्याग कर देते हैं , उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन है। यदि आप संसार-सागर को पार कर इसी जीवनकाल में मोक्ष चाहते हैं तो श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न १० श्लोकों का गहनतम स्वाध्याय व अनुसरण करें।





"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"





भगवान आप की रक्षा करें। भगवान को समर्पित होंगे तो प्रकृति की प्रत्येक शक्ति आपका सहयोग करने को बाध्य है। शरीर का ध्यान रखो पर निर्भरता सिर्फ परमात्मा पर ही रहे। उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दो जो सदा नकारात्मक बातें करते हैं। आपका कल्याण हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२४