Tuesday, 18 March 2025

देश के रजोगुण में वृद्धि, और तमोगुण का ह्रास देश की प्रगति का सूचक है ---

 देश के रजोगुण में वृद्धि, और तमोगुण का ह्रास देश की प्रगति का सूचक है ---

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पिछले कुछ समय में अत्यधिक सराहनीय एक सकारात्मक परिवर्तन पूरे देश में हुआ है। तमोगुण में कुछ कमी आयी है और रजोगुण में वृद्धि हुई है। लोगों के सोच-विचार और आचरण में भी बहुत सुधार हुआ है।
हमारा लक्ष्य बहुत ऊंचा रहे, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण तो गीता के दूसरे अध्याय के ४५वें श्लोक में हमें निस्त्रेगुण्य यानि गुणातीत होने को कहते हैं। गुणातीत वही हो सकता है जो वीतराग और स्थितप्रज्ञ हो। गीता में भगवान कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥"२:४५॥
यहाँ भगवान हमें निस्त्रेगुण्य ही नहीं, अपितु हमें नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने को भी कहते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मार्च २०२५

हमारे मोहल्ले की होली अवश्य देखिये ---

 https://www.youtube.com/watch?v=LBzzcoPjiOM

झुंझुनूं (राजस्थान) में हमारे मोहल्ले की होली अवश्य देखिये। पहले प्रातः पाँच बजे एक अति लोकप्रिय और प्रख्यात महात्मा हरिशरण जी महाराज का सत्संग/प्रवचन हुआ, फिर उनके नेतृत्व में प्रभातफेरी हुई, और उनके नेतृत्व में ही फूलों की होली हुई। अब फूलों की होली का प्रचलन हो गया है। होली खेलने के समय जम कर भजन-कीर्तन होते हैं। (इस वीडियो की रिकॉर्डिंग के मध्य में भूलवश कुछ समय तक ध्वनि नहीं आयी) भगवान की भक्ति का प्रबल जागरण हमारे यहाँ हो रहा है।पहले प्रातः पाँच बजे एक अति लोकप्रिय और प्रख्यात महात्मा हरिशरण जी महाराज का सत्संग/प्रवचन हुआ, फिर उनके नेतृत्व में प्रभातफेरी हुई, और उनके नेतृत्व में ही फूलों की होली हुई। अब फूलों की होली का प्रचलन हो गया है। होली खेलने के समय जम कर भजन-कीर्तन होते हैं। (इस वीडियो की रिकॉर्डिंग के मध्य में भूलवश कुछ समय तक ध्वनि नहीं आयी) भगवान की भक्ति का प्रबल जागरण हमारे यहाँ हो रहा है। वृंदावन में श्रीराधा-कृष्ण के साथ जैसी होली मनाई जाती है, बिल्कुल वैसी ही होली खाटू-श्याम में भी मनायी जाती है। उसी तर्ज पर होली मनाना हमारे यहाँ भी आरंभ हो गया है, लेकिन रंगों के स्थान पर केवल फूलों की पत्तियों और प्राकृतिक सुगंधों का ही उपयोग होता है। रंगों का उपयोग नहीं के बराबर होता है।

एक ब्रह्मज्ञ किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है ---

 एक ब्रह्मज्ञ किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है। उस आत्मविद को कोई पाप छू भी नहीं सकता। गीता में भगवान कहते हैं --

"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते"॥१८:१७॥"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता है।
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
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हम पूर्णरूपेण परमात्मा को समर्पित हों। परमात्मा की कृपा ही हम सब की रक्षा करेगी। भगवान की परमकृपा हम सब पर हो। | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०२५

भगवान की पकड़ बड़ी मजबूत होती है ---

 भगवान की पकड़ बड़ी मजबूत होती है। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में नींद से उठते ही यदि वे पकड़ते हैं तो उल्लास मनाकर उनका स्वागत कीजिये और भाग्यशाली मानते हुए स्वयं को उनके हाथों में सौंप दीजिये। कई बार हम भगवान की चेतना में उठते हैं, वह दिन बड़ा शुभ होता है। उठते ही उनके नाम का कीर्तन और ध्यान कीजिये।

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भगवान "हैं" -- इसी समय, सर्वदा, यहीं पर और सर्वत्र वे हैं। इस "हैं" शब्द मे ही वे छिपे हुये हैं। यह कोई बुद्धि का विषय नहीं है, इसलिए अधिक लिखने से कोई लाभ नहीं है। आगे की बात स्वयं समझ में आ जाएगी। थोड़ी भक्ति और समर्पण का भाव चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं। रात्रि को सोने से पहिले उनका नामजप स्मरण/कीर्तन और ध्यान कर के सोयें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ मार्च २०२५

सत्य-सनातन-धर्म ही भारत की एकमात्र राजनीति होगी व भारत एक सत्य-धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा ---

 सत्य-सनातन-धर्म ही भारत की एकमात्र राजनीति होगी व भारत एक सत्य-धर्मनिष्ठ राष्ट्र होगा। यह सृष्टिकर्ता परमात्मा का संकल्प है।

भारत का पुनरोत्थान, एक आध्यात्मिक शक्ति व चेतना के अवतरण से हो रहा है। भारत की प्राचीन कृषि और शिक्षा व्यवस्था भी पुनःस्थापित होंगी। भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर विराजमान होगा। आसुरी शक्तियाँ पराभूत होंगी। सत्य का प्रकाश, असत्य के अंधकार को प्रभावहीन कर देगा। सनातन धर्म ही भारत का प्राण, और सम्पूर्ण सृष्टि का भविष्य है। सनातन धर्म है -- परमात्मा से परमप्रेम, उन्हें पाने की अभीप्सा, समर्पण और सदाचरण।
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मेरी श्रद्धा डगमगा रही थी जिसे विश्वास से बांध दिया है। अब वह डगमगा नहीं सकती। परमात्मा का विलय आत्मा में हो रहा है जिसके साक्षी स्वयं परमात्मा हैं। अपनी साधना परमात्मा स्वयं कर रहे हैं। मैं एक निमित्त/साक्षी मात्र हूँ।
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥
ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति शांति शांति॥"
ॐ सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे। तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम:॥
ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः'॥
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२५

अभीष्ट के लिए तपस्या ........

 अभीष्ट के लिए तपस्या ........

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प्राचीन भारत में लोग अपने हर अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तपस्या को ही मूल साधन मानते थे, चाहे वह सांसारिक कामना हो या आध्यात्मिक| भारत के प्राचीन साहित्य में बहुत सारे प्रसंग भरे पड़े हैं जब धनसंपति, पुत्र-कन्यादि सन्तान प्राप्ति, मनपसंद वर, शत्रु विजय, रोग मुक्ति आदि, और पारलौकिक कामनाओं की सिद्धि के लिए भी लोग तपस्या को ही अमोघ साधन मानते थे|
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काश! मेरे भी जीवन में वह तपस्या होती! ह्रदय की चाहत तो यही है कि हर कार्य सिर्फ परमात्मा की प्रसन्नता के लिए ही करूँ| सिर्फ प्रभु-प्रेम की ही बातें करूँ, चाहे बिना बात किये ही रहना पड़े| दूसरी कोई बात करता हूँ तो बड़ी पीड़ा होती है| मिलना भी ऐसे ही लोगों से चाहता हूँ जिनके ह्रदय में भगवान के प्रति प्रेम भरा पडा हो| बाकि सांसारिक लोगों से तो मिलना पड़ता ही है पर उनसे मिलने मात्र से बड़ी पीड़ा होती है| कहीं किसी सामान्य व्यक्ति का आतिथ्य भी स्वीकार कर लेता हूँ तो अगले एक दो दिन तो बड़े कष्ट से निकलते हैं| ईश्वर के अतरिक्त कुछ भी अन्य चिंतन बड़ा दु:खदायी है|
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आज के युग में लोग इन बातों पर विश्वाश नहीं करेंगे या हँसेंगे| पर यह सत्य है| नर्मदादि तटों पर घने दुर्गम वनों में आज भी ऐसे तपस्यारत संत हैं जिन के अग्निकुंडो में यानि धूणों में बिना ईंधन के अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है और जब वे वेदमंत्रों का पाठ करते हैं तब अग्नि स्वतः प्रकट होकर आहुतियाँ स्वीकार करती हैं|
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अनेक गुप्त तीर्थ हैं जिनके बड़े दिव्य स्पंदन हैं| बड़ी गुप्त रहस्यमयी विद्याएँ हैं और बड़े गुप्त रहस्यमय संत हैं| वनों में रहने वाले कई ऐसे साधुओं के बारे में पढ़ा है जो खुले में कुछ विशिष्ट गुप्त मन्त्र के साथ एक घेरा बनाकर निश्चिन्त होकर साधनारत हो जातें हैं या सो जाते हैं| उस घेरे में कोई भी हिंसक प्राणी प्रवेश नहीं कर सकता| कुछ ऐसे मन्त्र हैं जिनके जाप से दुर्गम और भयावह वनों में कोई भी हिंसक जीव आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता|
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ठाकुर जी जब एक बार ह्रदय में प्रवेश कर जातें हैं तो प्रवेश करते ही आड़े-टेढ़े हो जाते हैं फिर वे किसी भी परिस्थिति में बाहर नहीं निकलते| भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| एक बार वे जब ह्रदय में घुस जाते हैं तो अन्य किसी का भी अन्दर प्रवेश नहीं होने देते| ऐसे ईर्ष्यालु प्रेमी से भी प्रेम का जो आनंद है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०१६

हमारे में सदगुण होंगे तभी हम अपनी भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं ---

हम स्वयं में बिना सदगुणों का विकास किये सांसारिक वैभव को प्राप्त करना चाहते हैं, यह हमारे पतन के मुख्य कारणों में से एक है| हमारे में सदगुण होंगे तभी हम अपनी भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| .

भगवान से मैं प्रार्थना करता हूँ कि जब हमारे में सदगुण पूर्ण रूप से विकसित हो जाएँ तभी हमें सांसारिक वैभव देना|
उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते| हम भगवान का ध्यान करेंगे तब निश्चित रूप से उनके गुण हमारे में अवतरित होंगे| नवरात्री का पावन पर्व चल रहा है| आओ जगन्माता की आराधना करें|
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हे माँ, तुम ही हमारी गति हो .....
हम सब की विकृतियों और दुष्ट वृत्तियों का नाश करो| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक रूपी तमोगुण हमारे में न रहें| हमें आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो| कोई अवांछित दुर्गुण हम में न रहे| हमारा चित्त शुद्ध हो| हम सब का कल्याण हो|
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।
जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ १ ॥
भवाब्धावपारे महादुःखभीरु पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः ।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ २ ॥
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ३ ॥
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ४ ॥
कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः कुलाचारहीनः कदाचारलीनः ।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ५ ॥
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ६ ॥
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये ।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ७ ॥
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः ।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रनष्टः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ८ ॥
॥ इति श्रीमदादिशंकराचार्य विरचिता भवान्याष्ट्कं समाप्ता ॥

१९ मार्च २०१८

वह कौन सा मार्ग है जो हमें सीधा परमात्मा तक ले जाता है? ---

 वह कौन सा मार्ग है जो हमें सीधा परमात्मा तक ले जाता है? सिर्फ एक ही मार्ग है -- जो हमारी सूक्ष्म देह की सुषुम्ना नाड़ी में स्थित सभी चक्रों को भेदते हुए ब्रह्मरंध्र से बाहर की अनंतता से भी परे परमशिव में खुलता है| अन्य कोई मार्ग नहीं है| सुषुम्ना में भी तीन उपनाड़ियाँ हैं -- चित्रा, वज्रा और ब्राह्मी| इनमें से ब्रह्म उपनाड़ी का मार्ग ही योगियों का मार्ग है| इस मार्ग के पथिकों को ऊर्जा मिलती है -- भक्ति और समर्पण से| इसका बोध भी हरिःकृपा से ही होता है|

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हमारे विचार और संकल्प, पूरी सृष्टि पर निश्चित रूप से अपना प्रभाव डालते हैं| यह सारी सृष्टि हमारे ही सामूहिक विचारों का घनीभूत रूप है| हमारे विचार पूरी सृष्टि से प्रतिबिंबित होकर हमारे ही पास लौटते हैं और हमारे जीवन को संचालित करते हैं| ये ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल हमें निश्चित रूप से मिलता है| अतः हमारे विचार सदा शुभ हों| जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही हम बन जाते हैं| १९ मार्च २०२१

सहस्त्रार में ज्योतिर्मय-ब्रह्म का ध्यान ---

 सहस्त्रार में ज्योतिर्मय-ब्रह्म का ध्यान -- गुरु-चरणों का ध्यान है| सहस्त्रार में स्थिति -- गुरु-चरणों में आश्रय है| मेरी हर साँस -- मेरे और परमात्मा के मध्य में एक कड़ी (Link) है| इन साँसों ने ही मुझे परमात्मा से जोड़ रखा है| मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं, इस देह के माध्यम से साँस ले रहे हैं| हर साँस के साथ साथ सुषुम्ना में जो प्राण-तत्व प्रवाहित हो रहा है, वह मुझे परमात्मा की ओर निरंतर धकेल रहा है| मेरे लिए कूटस्थ में ध्यान ही वेदपाठ है|

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मेरा विलय गुरु महाराज में हो गया है| वे मुझ से पृथक नहीं हैं| यह कूटस्थ सूर्यमंडल ही मेरा सर्वस्व है, जिसमें मैं मेरे परमप्रिय परमशिव के साथ एक हूँ|
ॐ तत्सत || ॐ स्वस्ति || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मार्च २०२१

भारत में धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण होगा ---

 भारत में धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण भी होगा। भारत एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी अखंड हिन्दू राष्ट्र भी होगा। असत्य का अंधकार भी दूर होगा। हम सदा परमात्मा की चेतना में रहें। यही भगवत्-प्राप्ति है, यही सत्य-सनातन-धर्म का सार है, और यही धर्म का पालन है, जो सदा हमारी रक्षा करेगा। यही हमारा कर्म है और यही हमारी भक्ति है। भगवान स्वयं हमारी चिंता कर रहे हैं।

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हम पराक्रमी, वीर्यवान, निर्भय और हर दृष्टि से शक्तिशाली बनें। महासागर में खड़ी चट्टान की तरह हम अडिग बनें, जो इतनी प्रचंड लहरों के निरंतर आघात से भी कभी विचलित नहीं होती। परशु की सी तीक्ष्णता हमारे में हो जिस पर कोई गिरे, वह तो कट ही जाये, और जिस पर परशु गिरे वह भी कट जाये। स्वर्ण की सी पवित्रता हमारे में हो, जिसे देखकर श्वेत कमल भी शर्मा जाये। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२२

शिव कृपा क्या होती है? ---

 शिव कृपा क्या होती है? ---

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पतंग उड़ती ही उड़ती है, अनंत की ऊँचाइयों पर जाना चाहती है जहाँ से बापस लौटना न पड़े। लेकिन उसके पीछे बंधी डोर उसे बापस खींच कर नीचे ले आती है। वह पतंग और कोई नहीं हम स्वयं हैं, और वह डोर हमारे कर्मफल हैं। हम परमात्मा को पाना चाहते हैं और साधना करते हैं, लेकिन सफलता नहीं मिलती; जिसका कारण हमारे कर्मफल हैं।
तो क्या करें? ---
घर में एक अलग कमरे की व्यवस्था कर लो, जहाँ कोई व्यवधान न हो, जहाँ कोई परेशान न करे। उस कमरे में अपने इष्ट देव का नित्य निरंतर चिंतन, मनन, स्मरण, भजन, ध्यान आदि जो भी हो सके वह करो। वह स्थान जागृत जाएगा। वहाँ जाते ही आप स्वयं शिवमय हो जायेंगे। उनकी कृपा की प्रत्यक्ष अनुभूति होगी। सब कर्मफलों से जब मुक्त हो जाओगे, तब पता चलेगा कि शिवकृपा क्या होती है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२१

एकमात्र महिमा उस भक्त की है, जो सदा भगवान का भजन करता है --- .

 एकमात्र महिमा उस भक्त की है, जो सदा भगवान का भजन करता है ---

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मेरा शरीर इस समय ध्यान के आसन पर पद्मासन में बैठा है। दूर से दूर जहाँ तक मेरी कल्पना जाती है, वह अनंत विस्तार और सम्पूर्ण अस्तित्व - "मैं" हूँ। सारे मत-मतांतर, सारे पंथ-संप्रदाय, और सारी विचार-धाराएं -- मेरे भाग है; मैं किसी का नहीं। कहीं कोई अंधकार नहीं है, सर्वत्र ज्योतिर्मय ब्रह्म है, जिन से मेरा कोई भेद नहीं है।
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वह ज्योतिर्मय ब्रह्म ही उपास्य, उपासक और उपासना है; वही दृष्य, दृष्टि और दृष्टा है। सारी क्रियाएँ जगन्माता स्वयं कर रही हैं, उन्होंने ही इस सृष्टि को धारण कर रखा है। जिन्हें मैं ज्योतिर्मय ब्रह्म कहता हूँ, वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं, और वे ही जगन्माता हैं। यही मेरी साधना है, और यही मैं स्वयं हूँ। उन से परे कुछ भी नहीं है। सारा समय भी उनको ही समर्पित है।
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और कुछ भी लिखने योग्य नहीं है। जिन्हें कोई जिज्ञासा है, वे अपनी अंतर्रात्मा में उसके समाधान का अनुसंधान करें।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२३

मेरे पास न तो कोई प्रश्न है, और न किसी प्रश्न का कोई उत्तर ---

 मेरे पास न तो कोई प्रश्न है, और न किसी प्रश्न का कोई उत्तर ---

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ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है। पुस्तकों से सिर्फ सूचना मिलती है। हर प्रश्न का उत्तर श्रौता की बौद्धिक क्षमता और पात्रता के अनुसार होता है। एक चौथी कक्षा के बालक को जो बताया जाता है वह दसवीं के बालक को नहीं बता सकते। जो दसवीं के बालक को बताते हैं वह कॉलेज में पढ़ने वाले बालक को नहीं बता सकते। जो जिस क्षेत्र का ज्ञाता है उसे उसकी समझ के अनुसार वैसा ही उत्तर समझ में आ सकता है। जैसे पढ़ाई में क्रम हैं, वैसे ही आध्यात्म में भी क्रम हैं। इसलिए मैं हरेक व्यक्ति के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता। अब न तो कोई ज्ञान और भक्ति की बात करनी है, और न किसी की कोई जिज्ञासा का समाधान करना है। अब से वही लिखूँगा जो राष्ट्रहित में आवश्यक है; अन्य कुछ भी नहीं। प्राथमिक कक्षाओं में इस समय बहुत छात्र पढ़ रहे हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राथमिक कक्षाएं खराब हैं। मैं उस अवस्था से निकल चुका हूँ। कभी मैं भी प्राथमिक में पढ़ता था।
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किसी भी व्यक्ति की समझ इस बात पर निर्भर है कि उसकी चेतना का केंद्र कहाँ है। मेरी चेतना सहस्त्रारचक्र व उससे भी ऊपर के चक्रों में रहती है जो इस शरीर से बाहर हैं, अतः मेरी सोच भी वैसी ही है। किसी भी तरह का कोई संशय मुझे नहीं है। किसी भी आध्यात्मिक विषय पर और नहीं लिखना चाहता। अब से वही लिखूँगा जो राष्ट्रहित में आवश्यक है, अन्य कुछ भी नहीं। उन्हीं से मिलना चाहूँगा जो योगारूढ़ हैं, व निरंतर परमात्मा की चेतना में रहते हैं। मुझे अनेक महान आत्माओं से खूब प्रेम, स्नेह और आत्मीयता मिली है। उन सब को नमन करता हूँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२३

भगवान की चेतना में समर्पित होकर हरेक कार्य राष्ट्रहित में करें ---

 भगवान की चेतना में समर्पित होकर हरेक कार्य राष्ट्रहित में करें। हम सत्य-धर्मनिष्ठ हों। हमारी हर क्रिया में भगवान की अनुभूति/अभिव्यक्ति हो।

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हम भगवान के उपकरण मात्र ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण सृष्टि, अनंतता, और सारे प्राणियों के साथ एक हैं। हमें निमित्त बनाकर हमारे माध्यम से भगवान स्वयं अपनी साधना कर रहे हैं। भगवान की ज्योति का विस्तार चारों ओर है। हमारा अज्ञान ही असत्य का अंधकार है। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में सारा मार्गदर्शन है, जिनका स्वाध्याय, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान तो हमें ही करना होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०२४

गुरु का स्वयं में विलय ही गुरु-पूजा है ---

 गुरु का स्वयं में विलय ही गुरु-पूजा है ---

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गुरु की देह तो प्रतीकात्मक है, यह शरीर तो गुरु को मिला हुआ एक वाहन है जो उसे लोक-यात्रा के लिये मिला है, उसकी देह तो एक माध्यम है, स्वयं में गुरु नहीं| गुरु तत्व को हम भौतिक रूप से व्यक्त करने के लिए गुरु के शरीर का चित्र लगा देते हैं, पर उसका यह शरीर गुरु नहीं है|
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गुरु का स्वयं में विलय ही गुरु-पूजा है| गुरु के वेदानुकूल उपदेशों को स्वयं के आचरण में लाना और उन वेद-वाक्यों के प्रति समर्पण ही गुरु-भक्ति है, गुरु के शरीर की पूजा नहीं| हाँ, साधना से पूर्व मानसिक रूप से गुरु की अनुमति और आदेश अवश्य ले लेना चाहिए| गुरु का चित्र तो एक प्रतीक है, गुरु नहीं| .
गुरु में कोई दोष या विकृति है तो क्या हम उसे अपना लेंगे ? फिर हमारा गुरु के प्रति दृष्टिकोण क्या हो ?
उत्तर :-- यदि गुरु में कोई दोष है, तो उसका फल वह स्वयं भुगतेगा, हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं| हमारा समर्पण तो गुरु के वेदानुकूल वचनों/उपदेशों के प्रति है, उस की देह के प्रति नहीं| हमारा समर्पण ही हमें इस संसार-सागर / माया-मोह से पार करेगा, गुरु की देह नहीं| पूजा तो गुरु-पादुका की होती है, गुरु के देह की नहीं| गुरु तो तत्व है देह नहीं| मेरा तो यह मानना है कि गुरु का स्वयं में विलय ही गुरु-पूजा है| गुरु के देह की पूजा तो गुरु की ह्त्या के बराबर है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
मार्च १६, २०१९

जो शास्त्रीय मर्यादा में जी रहे हैं उन्हें कोरोना वायरस तो क्या, किसी भी तरह की अकाल मृत्यु की आशंका नहीं है ---

 जो शास्त्रीय मर्यादा में जी रहे हैं उन्हें कोरोना वायरस तो क्या, किसी भी तरह की अकाल मृत्यु की आशंका नहीं है| "चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः|"

इस शरीर-महाराज रूपी विमान के चालक ही नहीं, यह विमान भी वे स्वयं ही हैं ..... जीवन और मृत्यु जिन का एक विचार मात्र है| उन्हीं का आश्रय है|
आज के इस चुनौती भरे समय में हम परमात्मा में प्रतिष्ठित होकर उनके प्रकाश का विस्तार करें| हमारी हर क्रिया में उनकी अभिव्यक्ति हो| यही हमारा स्वधर्म / परमधर्म है| हमारे जन्म का उद्देश्य ही यही है| हमारा जन्म इसीलिए हुआ है कि हम इस स्वधर्म का पालन करते-करते ही संसार में रहें और इस का पालन करते करते ही संसार से विदा लें| यदि हम स्वधर्म का पालन नहीं कर रहे हैं तो इस पृथ्वी पर एक भार ही हैं| ॐ तत्सत्|
कृपा शंकर
१८ मार्च २०२०

किसी से घृणा कर के, या किसी का गला काट कर, कोई व्यक्ति भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता ---

 किसी से घृणा कर के, या किसी का गला काट कर, कोई व्यक्ति भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकता| दूसरों के सिर काटने, या हानि पहुँचाने से कोई बड़ा नहीं होता| दूसरों के घर में अंधकार कर के, कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता|

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विश्व के अनेक लोग स्वयं तो शान्ति से रहना नहीं जानते, पर अपनी शान्ति की खोज -- धर्म के नाम पर दूसरों के प्रति घृणा, दूसरों की सभ्यताओं के विनाश, और दूसरों के नरसंहार में ही ढूँढते रहे हैं| ऐसे लोग इस संसार को नष्ट करने के लिए सदा तत्पर हैं| आत्मा शाश्वत है, कर्मफलों से कोई बच नहीं सकता और कर्मफलानुसार पुनर्जन्म भी सुनिश्चित है| ऐसे लोग अपना कर्मफल भोगने के लिए अति कष्टमय परिस्थितियों में बापस इस संसार में आते हैं|
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शांति का मार्ग, जो भगवान् ने बताया है, वह है --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
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भगवान हम सब की आत्मा हैं, वे समान रूप से सर्वत्र व्याप्त हैं| उन्हें सर्वत्र, व सब में उन्हें देखने वाले के लिए वे कभी अदृश्य नहीं होते| भगवान ने हमें सर्वत्र उन्हीं को देखने को कहा है, और साथ-साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म के पालन करने को भी कहा है| हम अपना हर कार्य जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में ईश्वर-प्रदत्त निज-विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें|
ॐ स्वस्ति !!
१८ मार्च २०२१

भारत का भविष्य सम्पूर्ण सृष्टि का भविष्य है ---

भारत का भविष्य सम्पूर्ण सृष्टि का भविष्य है, इसलिए भारत का पुनरोत्थान, निश्चित रूप से, एक महान आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा, एक दिव्य चेतना के अवतरण से होगा| भारत की प्राचीन कृषि, शिक्षा, राजनीति, व सामाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना होगी, आसुरी शक्तियों का उन्मूलन होगा, और सत्य का प्रकाश भारत में छाये असत्य के अन्धकार को मिटा देगा| सनातन धर्म ही भारत का प्राण, राजनीति, और भविष्य है| सनातन धर्म ही नहीं रहा तो यह सृष्टि निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगी|

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सनातन धर्म है -- "परमात्मा के प्रति परमप्रेम, समर्पण, उन्हें जानने व पाने की अभीप्सा, और धर्माचरण|"
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हम सब का जन्म इसी लिए हुआ है कि हम -- इस संसार को परमात्मा के प्रकाश में पहुँचायें और श्रद्धा-विश्वास, प्रेम, व शांति से, परमात्मा को निज जीवन में व्यक्त कर इस धरा पर ले आयें| जहाँ परमात्मा स्वयं विराजते हैं, वहाँ किसी अन्य की आवश्यकता नहीं है|
ॐ तत्सत् | ॐ स्वस्ति ||
कृपा शंकर
१८ मार्च २०२१

जीवन में ईश्वर के बिना जो जीवन मैंने जीया है, वह वास्तव में नारकीय था ---

 जीवन में ईश्वर के बिना जो जीवन मैंने जीया है, वह वास्तव में नारकीय था| धन्य हैं वे लोग, जिन्होने सांसारिक आकर्षणों और वासनाओं पर विजय पाकर, अपने जीवन की दिशा को परमात्मा की ओर मोड़कर, निज जीवन में परमात्मा को पूर्णतः व्यक्त किया है| जीवन एक अंतहीन सतत् प्रक्रिया है| मेरी रुचि किसी भी तरह के मोक्ष या मुक्ति में नहीं है| ईश्वर से यही प्रार्थना है कि भविष्य में जो भी जीवन मिलें, उनमें जन्म से ही पूर्ण वैराग्य, भक्ति, ज्ञान और ईश्वर की अभिव्यक्ति हो|

इस जीवन में भी जो अल्प समय अवशिष्ट है, वह ईश्वर के ध्यान में ही बीत जाये| इसके अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा नहीं है|
ॐ स्वस्ति !!
१८ मार्च २०२१
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वेदों को समझने के लिए --

 वेदों को समझने के लिए --

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"शिक्षा", "कल्प", "व्याकरण", "निरुक्त", "छंद", और "ज्योतिष" का ज्ञान अनिवार्य है। इनके बिना वेदों को समझना असंभव है। जिनको इन का ज्ञान नहीं है, वे वेदों को नहीं समझ पायेंगे। जिन्हें वेदों को समझने की जिज्ञासा है वे किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के पास जाकर पूर्ण श्रद्धा और विनम्रता से उनसे ज्ञान ग्रहण करें। सिर्फ अनुवाद पढ़ने से कुछ नहीं मिलेगा। जो इन वेदांगों की शिक्षा देते हैं, उन्हें 'उपाध्याय' कहते हैं। आजकल तो ब्राह्मणों का एक वर्ग स्वयं को 'उपाध्याय' लिखता है, लेकिन 'उपाध्याय' वह है जिसे वेदांगों का ज्ञान है।
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(१) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को "शिक्षा" कहते हैं| वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है| इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो|
(२) जितने भी धार्मिक कर्म -- पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे "कल्प" सूत्र है|
(३) "व्याकरण" वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है|
(४) "निरुक्त" शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है|
(५) "छंद" अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है|
(६) "ज्योतिष" से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है|
१८ मार्च २०२३

मनुष्य जाति सदा से ही आपस में लड़ती-झगड़ती आई है, और लड़ते-झगड़ते ही समाप्त हो जाएगी ---

 मनुष्य जाति सदा से ही आपस में लड़ती-झगड़ती आई है, और लड़ते-झगड़ते ही समाप्त हो जाएगी ---

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जब तक 'अहंकार' और 'लोभ' (तमोगुण) है, तब तक मनुष्य जाति में कोई एकता, प्रेम और सद्भावना नहीं हो सकती। मनुष्य जाति सदा से ही आपस में लड़ती-झगड़ती आई है, और लड़ते-झगड़ते ही समाप्त हो जाएगी। मनुष्यों में ईर्ष्या-द्वेष, काम-क्रोध और मोह के पीछे भी 'अहंकार' और 'लोभ' ही है। कोई कितनी भी बड़ी-बड़ी 'सद्भाव', 'प्रेम', व 'जीओ और जीने दो' की बातें करता रहे, लेकिन लोभ और अहंकार से उस व्यक्ति का तुरंत पतन हो जाता है।
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मनुष्यों में प्रेम और एकता सिर्फ और सिर्फ आध्यात्म यानि ब्रह्मज्ञान से ही हो सकती है, लेकिन त्रिगुण (तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण) उसे आध्यात्म में प्रवेश नहीं करने देते। गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसीलिए अर्जुन को "निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" कहते हैं। यह एक साधना है जिसका दीर्घकाल तक किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ, सिद्ध आचार्य के मार्गदर्शन में गहन अभ्यास करना पड़ता है। निस्त्रैगुण्य यानि त्रिगुणातीत होकर ही व्यक्ति आध्यात्मिक हो सकता है। इसके लिए भी भक्ति और अभीप्सा अनिवार्य है।
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जो राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त है, उसे वीतराग कहते हैं। जो सब प्रकार की स्पृहाओं से मुक्त है, वह निःस्पृह है। इन से भी ऊंची अवस्था स्थितप्रज्ञता है। जो सब प्रकार की तृष्णाओं व एषणाओं से मुक्त है, वह स्थितप्रज्ञ है। जो स्थितप्रज्ञ है, वही सन्यासी है, और वही आत्माराम (आत्मा में रमण करने वाला) है।
ॐ तत्सत् !!
१८ मार्च २०२३

होली के त्योहार की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा है, उस दिन स्वयं भगवान पुरुषोत्तम हमारे साथ भक्ति के रंगों से होली खेलेंगे ---

होली के त्योहार की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा है, उस दिन स्वयं भगवान पुरुषोत्तम हमारे साथ भक्ति के रंगों से होली खेलेंगे। वे ही एकमात्र पुरुष हैं। अभी से वे चैतन्य में छा गए हैं। वे ही इस देह में जी रहे हैं। इन नासिकाओं से वे ही सांसें ले रहे हैं, इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, वे ही सम्पूर्ण अस्तित्व हैं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य का कोई अस्तित्व नहीं है। वे निरंतर हमारे चैतन्य में रहें। मैं उनकी शरणागत हूँ।

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"परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥१०:१२॥"
"स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१०:१५॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- आप परमब्रह्म परमात्मा, परमधाम परमतेज और परमपावन हैं, तथा आप नित्य और दिव्य पुरुष हैं। आप आदिदेव अजन्मा और सर्वव्यापी हैं। (१०:१२)
हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवों के देव ! हे जगत् के स्वामी ! आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं॥ (१०:१५)
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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साधना की दृष्टि से हिन्दू धर्म में चार रात्रियों का बड़ा महत्व है -- कालरात्रि (दीपावली), दारुणरात्रि (होली), मोहरात्रि (जन्माष्टमी), और महारात्रि (महाशिवरात्रि)। इन रात्रियों को की गई उपासना कई गुना अधिक फलदायी होती हैं॥ एक सप्ताह के पश्चात आने वाले होली के त्योहार की अभी से तैयारी आरंभ कर दीजिये। होली की दारुण रात्रि, व धुलन्डी का अपराह्न काल -- भगवान की आराधना/उपासना के लिए है, न कि अन्य किसी प्रयोजन के लिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
१८ मार्च २०२४